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दिग्विजय यात्रा में चक्रवर्ती ने समस्त दिशाएँ जीत लीं।
इस प्रकार भरत ने भारतवर्ष के समस्त म्लेच्छ खंडों पर विजय प्राप्त कर, कैलाश पर्वत पर ऋषभ जिनेन्द्र की पूजा कर वापस अयोध्या नगरी की ओर प्रस्थान किया।
अयोध्या नगरी में प्रवेश करते समय उनका चक्ररत्न गोपुरद्वार (मुख्य द्वार) में ही रुक गया, जिससे सबको आश्चर्य हुआ। चक्रवर्ती को निमित्तज्ञानी पुरोहित ने बताया कि अभी आपके भाइयों को वश में करना बाकी है। पुरोहित की सम्मति के अनुसार राजदूत भाइयों के पास जाते हैं, परन्तु सभी भाई भरत की आज्ञा में रहने की अपेक्षा ऋषभनाथ भगवान के पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर लेते
बाहुबली ने भी चक्रवर्ती भरत की अधीनता स्वीकार नहीं की, फलतः युद्ध के लिए दोनों ओर से सेना आगे बढ़ी। परन्तु बुद्धिमान मन्त्रियों ने सेना-युद्ध के स्थान पर दोनों भाइयों का परस्पर नेत्रयुद्ध, जलयुद्ध और मल्लयुद्ध निश्चित किया, तीनों ही युद्धों में जब बाहुबली विजयी हुए तब भरत ने कुपित होकर चक्ररत्न चला दिया। बाहुबली भरत के सगे भाई थे, इसलिए भरत का चक्र बाहुबली पर सफल नहीं हुआ, परन्तु भरत के इस व्यवहार से बाहुबली ने विरक्त होकर जंगल में जाकर दीक्षा ले ली।
दीक्षा लेते समय बाहुबली ने एक वर्ष का उपवास किया, उपवास पूर्ण होने पर भरत ने आकर उनकी पूजा की, भरत के पूजा करते ही बाहुबली का हृदय निश्चिन्त हो गया और उसी समय उन्हें अविनाशी उत्कृष्ट केवलज्ञान प्राप्त हो गया। भरत ने केवलज्ञान की पूजा की, बाहुबली भी केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त हुए।
चक्रवर्ती भरत ने अयोध्या में प्रजा को जन्म से लेकर दीक्षा तक के समस्त संस्कार, षोडश संस्कार, हवन के योग्य मन्त्रों, राजनीति और वर्णाश्रम आदि का उपदेश दिया।
मोक्ष कल्याणक माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के शुभ मुहूर्त और अभिजित नक्षत्र में भगवान वृषभदेव पूर्व दिशा की ओर मुँह कर अनेक मुनियों के साथ-साथ पर्यङ्कासन से विराजमान हुए और शरीर से मुक्त होकर सिद्ध पर्याय प्राप्त की।
उसी समय मोक्ष कल्याणक की पूजा करने की इच्छा से सभी देव आए,
28 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय