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मणि के आसन पर विराजता था। आसन किसी को स्पष्ट नहीं दिखता था। सब लोग यही समझते थे कि राजा वसु धर्म के प्रभाव से अधर विराजते हैं। एक दिन नारद और पर्वत में 'अज' शब्द के अर्थ पर विवाद हो गया। वेद में आया था कि 'अज' से यज्ञ करना चाहिए। पर्वत ने इस वाक्य में आए हुए अज' शब्द का अर्थ 'अजा के पुत्र-पशु' किया। नारद ने इसे अनुचित सिद्ध किया। समुचित अर्थ के निर्णय के लिए दोनों राजा वसु की सभा में पहुँचे। राजा वसु ने सत्य अर्थ को जानते हुए भी, गुरुपत्नी को दिए वचन के निर्वाह करने के मोह में, भरी सभा में असत्य फैसला सुना दिया। इससे वह सिंहासन सहित धरती में धंस गया और मरकर सातवें नरक में पहुँचा। वसु के मरने के बाद उसका बड़ा पुत्र राजा बना, पर वह भी मर गया। इस प्रकार क्रम-क्रम से राजा वसु के आठ पुत्र राजा बनकर मर गये। नौवें-दसवें पुत्र सुवसु और वृहद्ध्वज मृत्यु से डरकर क्रमशः नागपुर
और मथुरा चले गये। दोनों के वंश अच्छी तरह चलते रहे। नागपुरवासी सुवसु के वंश में निहतशत्रु नाम का महान शत्रुविजेता राजा हुआ। उसके पुत्र ने राजगृह का राज्य किया। फिर उसके नवाँ प्रतिनारायण जरासन्ध हुआ जो रावण के समान त्रिखंडी था। जरासन्ध के कालिन्दसेना नाम की पटरानी, कालयवनादि पुत्र और अपराजित आदि भाई थे।
मथुरा वृहद्ध्वज के वंश में यदु नाम का राजा हुआ, जिसके वंशज यादव कहलाए। इन यादवों के वंश में आगे चलकर शूर और सुवीर नाम के दो पुत्र हुए। मथुरा का राज्य सुवीर ने किया और शूर ने शौरीपुर नाम का पृथक् नगर बसा लिया। शौरीपुर के राजा शूर के अन्धकवृष्टि आदि पुत्र हुए और मथुरा के राजा सुवीर के भोजकवृष्टि आदि पुत्र हुए। अन्धकवृष्टि के दस पुत्र हुए-समुद्रविजय, अक्षोभ, स्तिमितसागर, हिमवान, विजय, अचल, धारण, पूरण, अभिचन्द्र और वसुदेव। दो पुत्रियाँ हुईं-कुन्ती और माद्री। भोजकवृष्टि के तीन पुत्र हुएउग्रसेन, महासेन और देवसेन।
एक दिन अन्धकवृष्टि ने सुप्रतिष्ठित केवली से अपने और अपने दसों पुत्रों के पूर्वभव सुने और अपने ज्येष्ठ-पुत्र समुद्रविजय को राज्य सौंपकर निर्गन्थ दिगम्बर-जिनदीक्षा धारण कर ली। एक दिन राजा समुद्रविजय से उसके सबसे
छोटे भाई वसुदेव एक छोटी-सी बात पर नाराज हो गये और घर छोड़कर चले गये। यात्रा में उन्होंने अपने अद्भुत-पराक्रम और कला-कौशल से दुष्कृत्यों का निवारण किया, सुकृत्यों का सम्पादन किया और महासुन्दरी सैकड़ों कन्याएँ प्राप्त की। इसी दौरान एक बार वे घूमते-घूमते अरिष्टपुर पहुंचे। वहाँ राजा रुधिर की
हरिवंशपुराण :: 47