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में सिंहासन पर चार अंगुल के अन्तर से भगवान आदिनाथ विराजमान हुए, इन्द्रादि देव उनकी उपासना करते हैं और आकाश से देव पुष्पवृष्टि करते हैं। देवेन्द्र आदि देव बड़े वैभव के साथ समवशरण भूमि की तीन प्रदक्षिणा देकर प्रवेश करते हैं और आद्यजिनेन्द्र की पूजन तथा स्तुति करते हैं । भरत एक सौ आठ नामों द्वारा भगवान का स्तवन करते हैं।
भगवान आदिनाथ की दिव्यध्वनि में जीवाजीवादि तत्त्वों का तथा षद्रव्य का विस्तृत विवेचन होता है। दिव्यध्वनि से भरतादि राजा तथा अनेक भव्यजीव यथायोग्य विशुद्धि को प्राप्त होते हैं । वृषभसेन मुख्य गणधर, राजा सोमप्रभ तथा राजा श्रेयांस भी दीक्षित होकर गणधर हुए। ब्राह्मी और सुन्दरी ने भी दीक्षा लेकर गणिनीपद को प्राप्त किया। मरीचि को छोड़कर प्रायः सभी भ्रष्ट मुनि भगवान के समीप प्रायश्चित्त लेकर सच्चे मुनि हो गये। चक्रवर्ती भरत की दिग्विजय यात्रा भगवान आदिनाथ के केवलज्ञान महोत्सव के उपरान्त भरत सम्पूर्ण वैभव के साथ अपनी राजधानी में आकर विधिपूर्वक चक्ररत्न की पूजा करते हैं, फिर पुत्रोत्पत्ति का उत्सव मनाते हैं।
सूर्यमंडल के समान दैदीप्यमान, चारों ओर से देवों द्वारा घिरा हुआ जाज्वल्यमान चक्ररत्न आकाश में भरतेश्वर के आगे-आगे चल रहा था।
महाराज भरत ने दिग्विजय के लिए सबसे पहले पूर्वदिशा की ओर बढ़ते हुए गंगानदी पार करते हुए मागध देव की सभा में अपने नाम से चिह्नित बाण छोड़ा। चक्रवर्ती का नाम देख गर्वरहित होकर मागधदेव हार, सिंहासन और कुंडल लेकर चक्रवर्ती के स्वागत के लिए आए।
अनन्तर चक्रवर्ती ने दक्षिण दिशा की ओर बढ़ते हुए दक्षिण समुद्र के अधिपति व्यन्तरदेव को जीता। फिर पश्चिम दिशा में प्रवेश कर पश्चिम समुद्र के व्यन्तराधिपति प्रभास देव को वश में किया।
अनन्तर अठारह करोड़ घोड़ों के अधिपति भरत चक्रधर उत्तर की ओर प्रस्थान करते हुए विजयार्ध पर्वत पहुँचे, वहाँ विजयार्धदेव को जीत लेने से इनकी दिग्विजय का अर्धभाग पूर्ण हो गया।
उत्तर भारत क्षेत्र के चिलात और आवर्त नाम के राजा से चक्रवर्ती का सात दिनों तक लगातार युद्ध चलता रहा। जयकुमार के आग्नेय बाण से युद्ध समाप्त हुआ, और दोनों राजा भरत की शरण में आए। साठ हजार वर्ष तक चली
महापुराण (आदिपुराण और उत्तरपुराण) :: 27