Book Title: Pramukh Jain Grantho Ka Parichay
Author(s): Veersagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ परिवर्तित कराया है। उनकी भावना को देखते हुए हमने इस कृति के अन्त में 'सरल - शब्दावली' भी दी है। इस कृति में हमने अभी विस्तारभय के कारण मात्र 25 प्रमुख ग्रन्थों का ही परिचय लिखा है, किन्तु अभी अनेकानेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ छूट गये हैं, जिनका परिचय हम अगले खंड में लिखने का प्रयास करेंगे। पाठक यहाँ ऐसा न समझें कि छूटे हुए ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण नहीं हैं । इस कृति में हमने चारों ही अनुयोगों से ग्रन्थों को चुना है और उन्हें इसी क्रम में यहाँ रखने का प्रयास किया है, परन्तु फिर भी इस विषय में भी बहुत सख्ती नहीं रखी है, क्योंकि सभी ग्रन्थ समान हैं, महान हैं । एक बार सभी ग्रन्थों को कालक्रमानुसार रखने का भी भाव मन में आया था, परन्तु उसकी भी उपेक्षा करनी पड़ी, क्योंकि उसमें भी सबसे पहले कषायपाहुड और षट्खंडागम का क्रम आता, जो सामान्य पाठक को कठिनाई के कारण विरक्त कर सकता था । सामान्य पाठकों को ध्यान में रखते हुए ही हमने यहाँ करणानुयोग के ग्रन्थों की विषय-वस्तु का परिचय विस्तार से नहीं दिया है, उसे बहुत ही संक्षिप्त कर दिया है । जिन्हें उनके विषय में विशेष जिज्ञासा होगी, उन्हें उन मूल ग्रन्थों का ही सहारा लेना होगा। कुल मिलाकर इस कृति को हमने सरल से सरल रखने पर ही विशेष ध्यान दिया है । यही कारण है कि अनेक स्थानों पर जैन शास्त्रों की पारिभाषिक शब्दावली से भी बचने का प्रयास किया है और उसकी जगह आज के सरलसुबोध शब्दों से ही काम चलाया है। यद्यपि शास्त्रीय शब्दों में जो भाव होता है वह दूसरे शब्दों में नहीं आ पाता है, पर सरलता के लिए ऐसा खतरा मोल ले लिया है। शास्त्रीय विद्वान क्षमा करें और मार्गदर्शन करने की कृपा करें, ताकि अगले संस्करण में गलती का सुधार किया जा सके। इस प्रकार यह कृति सामान्य पाठकों को तो जैन तत्त्वज्ञान से लाभान्वित करेगी ही, जैन विद्या के नवोदित लेखकों को भी यह प्रेरणा देगी कि आज के समय में जैन तत्त्वज्ञान को अत्यन्त सरल - सुबोध शैली में प्रस्तुत करने की बड़ी आवश्यकता है, अन्यथा भविष्य में जैन तत्त्वज्ञान का संरक्षण करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। जैन तत्त्वज्ञान सदा ही सरल-सुबोध भाषा-शैली में प्रस्तुत किया जाता रहा है, वह कभी भी एक ही भाषा-शैली की कट्टरता का पक्षधर नहीं रहा है। जब जैसी भाषा-शैली अधिकांश लोगों में प्रचलित रही, तब उसी भाषा - शैली में बारह

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