Book Title: Prakrutanand Author(s): Jinvijay Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur View full book textPage 8
________________ [ २ ] श्रौर 'महाराष्ट्री' प्राकृत के नाम से विभक्त किया है। प्राचीन जैन आगमों की भाषा अर्द्धमागधी संमिश्रित है और बाकी का सारा साहित्य प्राय: 'महाराष्ट्री' और 'शौरसेनी' संमिश्रित है । जैन सम्प्रदाय का मौलिक वाङ्मय प्रायः सारा इसी प्रकार की प्राकृत भाषा का अपूर्व भंडार है । द्रविड़ जाति के भारतीय जन-समूहों की द्रविड़कुलीन भाषाओं के अतिरिक्त समग्र प्रार्य जातीय जन-समूह की जो विद्यमान भाषायें हैं उनकी उत्पत्ति इस मूल पुरातन प्राकृत से है । शाक्य भगवान् बुद्ध और ज्ञात पुत्र तीर्थंकर महावीर के समय से लेकर वर्तमान काल तक की श्रार्य-भाषाभाषी व भारतीय जनता की मातृ-भाषा प्राकृत के नाम से संबोधित की जाती रही है । वह प्राचीन प्राकृत अब अनेक उपभाषाओं और देश-विशेष की बोलियों में विभक्त हो गई है । जैसा कि ऊपर कहा गया है जैन संप्रदाय का सारा ही मौलिक साहित्य प्राकृत में है । कई ब्राह्मण विद्वानों ने भी प्राकृत भाषा में कुछ विशिष्ट ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें काव्य और नाटक ग्रंथ मुख्य हैं । गौडवहो, सेतुबन्ध, लीलावई, गाथा सत्तसई श्रादि उत्कृष्ट प्राकृत काव्यकृतियां हैं जो ब्राह्मण विद्वानों की देन हैं । इसी तरह कर्पूरमंजरी आदि अनेक नाटक कृतियां भी प्राकृत के प्रभाव को प्रकट करती हैं । जिस तरह संस्कृत भाषा का व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त करने के लिये पाणिनी आदि अनेक प्राचीन अर्वाचीन विद्वानों ने नाना प्रकार के व्याकरण-ग्रन्थों की रचनायें की हैं उसी तरह प्राकृत भाषा का व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से वररुचि आदि अनेक विद्वानों ने प्राकृत व्याकरण ग्रन्थों की रचनायें की हैं । यों तो प्राकृत भाषा के बीसों छोटे-बड़े व्याकरण-ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं पर उनमें वररुचि का 'प्राकृत प्रकाश' सब से प्राचीन ग्रन्थ समझा जाता है । प्राकृतभाषा का सर्वांग संपूर्ण व्याकरण ग्रन्थ हेमचन्द्र सूरि का है जो उनके महान् व्याकरण ग्रन्थ 'सिद्ध है मशब्दानुशासन' का अष्टम अध्याय स्वरूप है । इस महान् व्याकरण ग्रन्थ के सात अध्यायों में संस्कृत भाषा का परिपूर्ण व्याकरण ग्रथित है और अष्टम अध्याय में प्राकृत भाषा का परिपूर्ण व्याकरण है । इसमें प्राकृतोत्तरकालीन अपभ्रंश भाषा का भी विस्तृत व्याकरण है जो उनको मौलिक देन है । हेमचन्द्र सूरि के बाद अनेक छोटे-बड़े प्राकृत व्याकरण बनते रहे और उनमें से अनेक ग्रन्थ प्रकाशित भी हो गये हैं । Jain Education International वररुचिकृत 'प्राकृत प्रकाश' हेमचन्द्रसूरि के 'प्राकृत व्याकरण' की अपेक्षा संक्षिप्त और पूर्ण-सा है परन्तु प्राचीन होने के कारण उसका महत्त्व अवश्य है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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