Book Title: Prakrutanand
Author(s): Jinvijay
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 77
________________ पण्डित - रघुनाथ - कवि - विरचित भारेइ भरावेइ सुमरेइ सुमरावेइ । सारयति सारेइ सरावेइ । श्रावयति सुण्णेइ सुणावेइ । गमयति गामेइ गमावेइ । रोदयति रुवेइ रुवावेई । पारयति पारेइ पारावेइ । नर्त्तयति णचेइ णच्चावेइ । त्रासयति बजेइ वज्जावेइ । व्रीडयति वीलेइ वीलावेइ । शुष्यति सुसे सूसावेइ । क्रुध्यति झूरेइ झूरावेइ । चिनोति चिण्णेइ चिण्णावेइ । शक्नोति सक्केइ सक्कावेइ, तारेइ तरावेइ, चाएइ चआवेइ, तीरेइ तीरावेइ । घूर्णयति घोलेइ घोलावेइ । रुन्धयति रुंधेइ रुंधावेइ, रुम्भेइ रुम्भावेइ । कारयति कारेइ करावे, कुणेइ कुणावेइ । क्राययति किणेइ किणावेइ । इति हेतुमण्णिचूप्रकरणम् । यक ईअ- इज्जौ ॥ ४०३ ॥ ५० यको यक्षरावादेशौ स्याताम् । भूयते होईअइ होइज्जइ हुवीअइ हुविज्जइ । भाव - कर्मणोर्वश्च ॥ ४०४ ॥ श्रु हु जि लू धू एषामन्ते वः स्यात्, णश्च भावकर्मणोः । जीयते जिवइ जिणीअइ जिणिज्जइ । मादीनां द्वित्वं वा ॥ ४०५ ॥ एषां द्वित्वं वा स्याद् भावकर्मणोः । हस्यते हस्सइ हसीअइ हसिज्जइ । रम्यते रम्मइ रमीअइ रमिज्जइ । ह-कोहर-कीरौ ॥ ४०६ ॥ हृञ्-कृञोः क्रमाद् हीर कीर इत्येतौ स्यातां भाव-कर्मणोः । हियते हीरइ । श्रूयते सुवइ सुण्णीअइ सुणिज्जइ । गम्यते गम्मइ गमीअइ गमिज्जइ । दुहि-लिहि-वहां दुब्भ-लिब्भ-वब्भाः ॥ ४०७ ॥ एषां क्रमेण यक्षरा आदेशाः स्युः भाव-कर्मणोः । उद्यते वग्भइ । दुह्यते दुभ | लिह्यते लिब्भइ । हूयते हुवइ हुण्णीअर हुणिजइ । क्रियते कीरइ । लूयते लुवइ लुण्णीअइ लुणिज्जइ । धूयते धुवइ धुणी धुणिजइ । ज्ञो णज्ज - णौ वा ॥ ४०८ ॥ ज्ञाधातोः यक्षरावादेशौ वा स्यातां भावकर्मणोः । ज्ञायते णज्जइ ras | पक्षे जाणीअइ जाणिज्जइ, मुणीअइ मुणिज्जइ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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