Book Title: Prakrutanand
Author(s): Jinvijay
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन गन्ममाला क प्रधान सम्पादक-पद्मश्री जिनविजय मुनि, पुरातत्त्वाचार्य [सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर] ग्रन्थाङ्क १० पण्डित रघुनाथकवि विरचित प्राकृतानन्द प्रकाश क राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR जोधपुर (राजस्थान) Jain Education Interational For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक - पद्मश्री जिनविजय मुनि, पुरातत्त्वाचार्य [सम्ममान्य सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, बोधपुर । ग्रन्थाङ्क १० पण्डित रघुनाथकवि विरचित प्राकृतानन्द प्रकाशक राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR - जोधपुर ( राजस्थान ) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला राजस्थान राज्य द्वारा प्रकाशित सामान्यत: अखिल भारतीय तथा विशेषतः राजस्थानदेशीय पुरातनकालीन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी आदि भाषानिबद्ध विविध वाङ्मयप्रकाशिनी विशिष्ट ग्रन्थावलि प्रधान सम्पादक पद्मश्री जिनविजय मुनि, पुरातत्त्वाचार्य सम्मान्य संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ऑनरेरि मेम्बर ऑफ जर्मन ओरिएन्टल सोसाइटी, जर्मनी; निवृत्त सम्मान्य नियामक (ऑनरेरि डायरेक्टर ), भारतीय विद्याभवन, बम्बई; प्रधान सम्पादक, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, इत्यादि ग्रन्थाङ्क १० पण्डित रघुनाथकवि विरचित प्राकृतानन्द प्रकाशक राजस्थान राज्याज्ञानुसार सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर ( राजस्थान ) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित रघुनाथकवि विरचित प्राकृतानन्द सम्पादक. पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजय प्रकाशनकर्ता राजस्थान राज्याज्ञानुसार सञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान.. जोधपुर ( राजस्थान । भारतराष्ट्रीय शकाब्द १८८३ । ख्रिस्ताब्द १९६२ विक्रमाब्द २०१८ र प्रथमावृत्ति ७५० मुद्रक-निर्णयसागर प्रेस, बम्बई मुख पृष्ठ आदि के मुद्रक-श्री हरिप्रसाद पारीक, साधना प्रेस, जोधपुर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य द्वारा सम्पादित ग्रन्थ १ त्रिपुराभारतो लघुस्तव - कर्ता-सिद्ध सारस्वत श्री लघुपण्डित २ कर्णामृतप्रपा - कर्ता-महाकवि ठक्कुर सोमेश्वर ३ बाल शिक्षा व्याकरण - कर्ता-ठक्कुर संग्रामसिंह ४ पदार्थरत्नमञ्जूषा - कर्ता-पं० कृष्ण मिश्र ५ शकुनप्रदीप - कर्ता-पं० लावण्य शर्मा ६ उक्तिरत्नाकर – कर्ता-पं० साधुसुन्दरगणी ७ प्राकृतानन्द - कर्ता-रघुनाथ कवि ८ हम्मीरमहाकाव्य - कर्ता-नयचन्द्र सूरि & राठौड़ारी वंशावली १० सचित्र राजस्थानी भाषा साहित्य ग्रन्थ सूची ११ मीरां वृहत् पदावली १२ रत्नपरीक्षादि सप्त ग्रन्थु संग्रह - कर्ता-ठक्कुर फेरू 999999999999999999999999999999999 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयविवरणम् -00-00 १-३ १३-१७ १-प्रास्ताविकं नक्तव्यम् । २-प्राकृतानन्दस्य सूत्रानुक्रमणिका ३-प्राकृतानन्द-प्राकृतप्रकाशयोः सूत्राणां भेदानुक्रमणिका प्रथमे परिच्छेदे ४-अजन्तपुंल्लिङ्गप्रकरणम् ५-अजन्तस्त्रीलिङ्गप्रकरणम् ६-अजन्तनपुंसकलिङ्गप्रकरणम् ७-हलन्तपुंलिङ्गप्रकरणम् ८-हलन्तस्त्रीलिङ्गप्रकरणम् ६-हलन्तनपुंसकलिङ्गप्रकरणम् १०-निपाताधिकारः द्वितीये परिच्छेदे ११-धातुप्रकरणम् परिशिष्टम् क-प्राकृतशब्दानुक्रमणिका १-१८ १६-२३ २३-२७ २७-३३ ३४ वां ३५-३७ ३८-५२ ५३-७६ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य प्रस्तुत 'प्राकृतानन्द' ग्रन्थ प्राकृत भाषा का एक संक्षिप्त व्याकरण है । इसकी रचना पंडित रघुनाथ ने की है जो कवि-कण्ठीरव के विरुद से अपने आपको उल्लिखित करते हैं । ये ज्योतिर्विद् सरस के पुत्र थे । इसके अतिरिक्त इनके समय और स्थान आदि के बारे में कुछ उल्लेख नहीं मिलता । इस ग्रंथ की एक पुरानी हस्तलिखित पोथी विद्वद्वर्य श्रागमप्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराज को शायद बीकानेर में मिली थी। जिस पर से उन्होंने स्वयं इसकी प्रतिलिपि की थी। यह प्रति जैसा कि इसके अन्त में लिखा मिलता है— संवत् १७२६ में लाभपुर अर्थात् लाहोर में लिखी गई थी । सन् १९५२ में जब मेरा बीकानेर जाना हुआ तो उन्होंने यह ग्रन्थ मुझे दिखलाया । मैंने इसे राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में प्रकट करने का अपना विचार प्रदर्शित किया तो उक्त सौजन्य - मूर्ति मुनिवर ने अपनी वह प्रतिलिपि बड़े आनन्द के साथ मुझे दे दी । मैंने उसको छपने के लिये बम्बई के निर्णय सागर प्रेस में दी । दीर्घकालावधि में यह ग्रन्थ प्रेस ने छाप कर पूरा किया। कुछ अन्यान्य कारणों से भी ग्रन्थ के प्रकाशन और अधिक विलम्ब होता रहा । इस तरह प्रतिलिपि के प्राप्त होने के बाद कोई १० वर्ष अनन्तर अब यह ग्रन्थ पाठकों के कर-कमलों में उपस्थित होने का अवसर प्राप्त कर रहा है । 'प्राकृतानन्द' प्राकृत भाषा का एक छोटा-सा व्याकरण है । ग्रन्थकार का कहना है कि जो पण्डित के कुल में पैदा हुआ है परन्तु अल्पबुद्धि है और कुछ साहित्य का रसास्वाद करना चाहता है उसके ज्ञान के लिये यह प्रयत्न किया गया है । संस्कृत की तरह प्राकृत भाषा में लिखित साहित्य-संपत्ति बहुत ही विशाल है | विविध विषय के हजारों ही ग्रंथ प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं । यद्यपि ब्राह्मण सम्प्रदाय में प्राकृत साहित्य का उतना अधिक संचय नहीं मिलता है, परन्तु जैन और बौद्ध संप्रदाय में प्राकृत भाषा ही का प्राधान्य रहा और इसलिये इन दोनों संप्रदायों में इस भाषा में लिखित साहित्य-संपत्ति की विशालता बहुत अधिक है। बौद्ध साहित्य की प्राकृत भाषा जो कि मूल रूप में ‘मागधी' भाषा कहलाती है, अब 'पाली' के नाम से प्रसिद्ध हो गई है । परन्तु जैन साहित्य-संपत्ति मुख्य रूप से प्राकृत के व्यापक नाम से ही प्रसिद्धि प्राप्त करती रही है । भाषाविदों ने जैन साहित्य की प्राकृत भाषा को 'अर्द्धमागधी' Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] श्रौर 'महाराष्ट्री' प्राकृत के नाम से विभक्त किया है। प्राचीन जैन आगमों की भाषा अर्द्धमागधी संमिश्रित है और बाकी का सारा साहित्य प्राय: 'महाराष्ट्री' और 'शौरसेनी' संमिश्रित है । जैन सम्प्रदाय का मौलिक वाङ्मय प्रायः सारा इसी प्रकार की प्राकृत भाषा का अपूर्व भंडार है । द्रविड़ जाति के भारतीय जन-समूहों की द्रविड़कुलीन भाषाओं के अतिरिक्त समग्र प्रार्य जातीय जन-समूह की जो विद्यमान भाषायें हैं उनकी उत्पत्ति इस मूल पुरातन प्राकृत से है । शाक्य भगवान् बुद्ध और ज्ञात पुत्र तीर्थंकर महावीर के समय से लेकर वर्तमान काल तक की श्रार्य-भाषाभाषी व भारतीय जनता की मातृ-भाषा प्राकृत के नाम से संबोधित की जाती रही है । वह प्राचीन प्राकृत अब अनेक उपभाषाओं और देश-विशेष की बोलियों में विभक्त हो गई है । जैसा कि ऊपर कहा गया है जैन संप्रदाय का सारा ही मौलिक साहित्य प्राकृत में है । कई ब्राह्मण विद्वानों ने भी प्राकृत भाषा में कुछ विशिष्ट ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें काव्य और नाटक ग्रंथ मुख्य हैं । गौडवहो, सेतुबन्ध, लीलावई, गाथा सत्तसई श्रादि उत्कृष्ट प्राकृत काव्यकृतियां हैं जो ब्राह्मण विद्वानों की देन हैं । इसी तरह कर्पूरमंजरी आदि अनेक नाटक कृतियां भी प्राकृत के प्रभाव को प्रकट करती हैं । जिस तरह संस्कृत भाषा का व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त करने के लिये पाणिनी आदि अनेक प्राचीन अर्वाचीन विद्वानों ने नाना प्रकार के व्याकरण-ग्रन्थों की रचनायें की हैं उसी तरह प्राकृत भाषा का व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से वररुचि आदि अनेक विद्वानों ने प्राकृत व्याकरण ग्रन्थों की रचनायें की हैं । यों तो प्राकृत भाषा के बीसों छोटे-बड़े व्याकरण-ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं पर उनमें वररुचि का 'प्राकृत प्रकाश' सब से प्राचीन ग्रन्थ समझा जाता है । प्राकृतभाषा का सर्वांग संपूर्ण व्याकरण ग्रन्थ हेमचन्द्र सूरि का है जो उनके महान् व्याकरण ग्रन्थ 'सिद्ध है मशब्दानुशासन' का अष्टम अध्याय स्वरूप है । इस महान् व्याकरण ग्रन्थ के सात अध्यायों में संस्कृत भाषा का परिपूर्ण व्याकरण ग्रथित है और अष्टम अध्याय में प्राकृत भाषा का परिपूर्ण व्याकरण है । इसमें प्राकृतोत्तरकालीन अपभ्रंश भाषा का भी विस्तृत व्याकरण है जो उनको मौलिक देन है । हेमचन्द्र सूरि के बाद अनेक छोटे-बड़े प्राकृत व्याकरण बनते रहे और उनमें से अनेक ग्रन्थ प्रकाशित भी हो गये हैं । वररुचिकृत 'प्राकृत प्रकाश' हेमचन्द्रसूरि के 'प्राकृत व्याकरण' की अपेक्षा संक्षिप्त और पूर्ण-सा है परन्तु प्राचीन होने के कारण उसका महत्त्व अवश्य है । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत 'प्राकृतानन्द' वररुचिकृत 'प्राकृत-प्रकाश' का हो एक प्रक्रियात्मक संकलन है । संस्कृत के लघुकौमुदी आदि प्रक्रियात्मक शैली के अनुकरण में रघुनाथ कवि ने 'प्राकृत-प्रकाश' को इस प्रकार प्रक्रियात्मक रूप देकर इस प्राकृतानन्द का संकलन किया है। इसमें कुल ४१६ सूत्र हैं, इससे मालूम देता है कि मूल 'प्राकृत-प्रकाश' के कुछ सूत्र छोड़ भी दिये हैं । पर, साथ में कुछ ऐसे भी सूत्र दिये हैं जो 'प्राकृत-प्रकाश की प्रसिद्ध पुस्तक में नहीं मिलते । चौखम्भाग्रन्थावलि में भामहकृत मनोरमाव्याख्या सहित जो प्राकृत प्रकाश छपा है उसमें कुल ४८७ सूत्र हैं जिनमें के ८७ सूत्र इस प्राकृतानन्द में नहीं हैं; और साथ में इसमें २१ सूत्र ऐसे हैं जो प्राकृत-प्रकाश में नहीं मिलते । तुलना की दृष्टि से दोनों ग्रन्थों की सूत्रसूचि इसके साथ दी जाती है । संशोधक विद्वानों को इसका कुछ उपयोग होगा। मुद्रित प्राकृत-प्रकाश के और प्राकृतानन्द के सूत्रों में कुछ पाठ-भेद भी दृष्टिगोचर होते हैं । लिपिकर्ताओं के कारण ऐसे पाठ-भेदों का होना स्वाभाविक है । यह ग्रंथ अभी तक कहीं प्रकाशित नहीं हुआ है। प्रॉफेट ने अवश्य ही इसका सूचन 'कॅटेलागस कॅटलॉगरम्' भा. १; पृ. ३६१ पर किया है । इस कृति का नाम सूचीकार को लाहोर के पण्डित राधाकृष्ण के 'पुस्तकानां सूचीपत्रम्' में मिला है, जो काश्मीर-निवासी पं० राजाराम शास्त्री ने लिखा था और एशियाटिक सोसाइटी बंगाल के प्रोसीडिंग्स्, जून १८८० ई. में इसका उल्लेख हुआ है। प्रस्तुत पुस्तक की प्रेस-कॉपी जिस प्रति से तैयार की गई है वह भी सं. १७२६ वि में लाहोर में ही लिखी गई थी। ___ सौजन्यमूर्ति विद्वद्रत्न मुनिवर श्री पुण्यविजयजी महाराज के प्रति हम अपना हार्दिक कृतज्ञभाव प्रकट करते हैं कि जिन्होंने स्वयं अपने हस्ताक्षरों में प्रस्तुत रचना की सुन्दर प्रेस कापी कर के हमको राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में प्रकट करने के लिये प्रदान की। प्रेस की कठिनाई के कारण इसके प्रूफादि संशोधन कार्य कार्यालय द्वारा ही किया गया अतः कुछ अशुद्धियां भी रह गई हैं। विद्वज्जन उसे स्वयं शुद्ध कर लेंगे, ऐसी विज्ञप्ति के साथ कवि रघुनाथ ने स्वयं ग्रन्थ के प्रारंभ में इस विषय में जो बहुत ही सुन्दर उक्ति प्रकट की है उसी को हम भी यहां पुनः उद्धृत कर देना चाहते हैं । दोषदुष्टमिदमित्यवज्ञया हातुमिच्छत न जातु साधवः । शैवलं किल विहाय केवलं निर्मलं किम् न पीयते जलम ।। जोधपुर दि० २५-६-६३ -मुनि जिनविजय Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्दस्य सूत्रानुक्रमणिका caroman सूत्राङ्क पृष्ठाङ्क ३५ २०० ११८ mr . २८१ ४५ क्रमाङ्क १ अइ घले सम्भाषणे २ अंकोठे ल्लः ___ अः क्षमा-इलाघयोः अक्ष्यादिषु छः ५ अचि मश्च अज्ज प्रामन्त्रणे अत प्रा मिपि वा अत ए से अत प्रोत् सोः १० अतोऽमः ११ अत् पथि-हरिद्रा-पृथिवीष १२ अदसो दो मुः १३ अदातो यथादिषु वा १४ अद् दुकूले वा लस्य द्वित्वम् १५ अधो म-न-याम् १६ अन्मुकुटादिषु १७ अन्त्यस्य हलः १८ अपौ व्विः १६ अमि ह्रस्वः २० .अम्हे जस्-शसोः २१ अम्हेहितो अम्हेसुत्तोम्यसि २२ अम्हेहि भिसि २३ अम्हेसु सुपि २४ अयुक्तस्य रिः २५ अलाहि निवारणे २६ अवाद् गाहेर्वाहः २७ अव्वो अम्मो दुःखा-ऽऽक्षेप-विस्मापनेषु २८ अव्वो दुःख-सूचना-सम्भावनेषु २९ असेर्लोपः ३० अस्तेरासिः ३१ अस्थिनि orwarm. mx 22w.xxxxxxur, mar mmm १५८ २६७ २७४ २७२ २७८ २९६ Ar m २६८ ३७१ ३७३ २१७ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क सूत्राङ्क पृष्ठाङ्क २६५ २६६ २५६ २७० १७० १९७ १५५ २३२ २३६ १७४ mr mm my mrr wrr MrorMMXU४ 9 m mm mr U U ३२ अस्मदो हमहमहामं सौ ३३ अहम्मिरमि च ३४ प्राङि च ते दे ३५ प्राङि मे ममाई ३६ आङो ज्ञादेशस्य ३७ प्राच्य गौरवे ३८ आच्च सौ ३६ आ रपो-गमोरङसि ४० प्रात्मनो अप्पागो वा ४१ आदीतो बहुलम् ४२ प्रादेरतः ४३ आदेर्यो जः ४४ आपीडे म ४५ प्रामः एसि ४६ आमन्त्रणे वा बिन्दुः ४७ आमि सिं ४८ आमोणं अाम्र-ताम्रयोर्बः ५० पालाने न लोः ५१ आल्विल्लोल्लालवत्तेता मतपः ५२ आवे च ५३ प्रा समृद्ध यादिषु वा ५४ आहे इसा काले ५५ इग्रं भूते ५६ इच्च बहुषु ५७ इज्जस्-शसोर्दीर्घश्च ५८ इट्-मयोमिः ५६ इत एत् पिण्डसमेषु ६० इतेस्तः पदादेः ६१ इत् पुरुषे रोः ६२ इत् सैन्धवे ६३ इत्व-द्वित्ववर्ज राजवदनादेशे ६४ इदद्वित्वे ६५ इदम इमः ६६ इदम्-एतत्-कि-यत्-तद्भयष्टा इण। वा ३१४ ४०२ ४३ २५५ ३२६ ३२७ १८५ [ Ꮘ Ꮘ ,"'.92 : mrrow more euruv. ३२५ १२१ ३११ १६४ २४० २३७ २२६ २२० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क सूत्राङ्क पृष्ठाङ्क ३०८ mmmm ४१६ २२ ८६ ६७ इदीषत्-पक्व-स्वप्न-वेतस-व्यञ्जन-मृदङ्गाऽङ्गरेषु २८ ६८ इदुतोः शसो पो १४०० ६६ इद् ईतः पानीयादिषु ७० इद ऋष्यादिषु ४८ इभ्यः स्सा-से २८५ ७२ इर-किर-किला अनिश्चित्ताख्याने २६३ ७३ इवे व्वः ७४ ईअभूते ३२८ ७५ ईत् सिंह-जिह्वयोश्च ५० ७६ ईत् स्त्रियाम् ७७ ईदूतोह्रस्वः १७७ ७८ ईद् धैर्ये १९५ ७९ उत प्रोत् तुण्डरूपेषु ५५ उत्तमे स्सा हा च ३३५ ८१ उत्तरीया-ऽनीययोर्यस्य जो वा ८२ उत्समोलः ३४३ ८३ उत् सौन्दर्यादिषु उदुम्बरे दोर्लोपः २०६ ८५ उदूखले द्वा वा २८७ ८६ उद्तो मधूके १८८ ८७ उदो विजः ३७६ ८८ उद् ऋत्वादिषु २६ ८६ उद्दमो धूमा ३६३ ६० उपरि लोपः क-ग-ड-त-द-प-ष-साम् ६१ उ: पद्म-तन्वीसमेषु १७९ ६२ उर्जस्-शस्-टा-ङस्-सुप्सु वा १५३ ९३ उलूहले त्वा वा १८७A ६४ उ-सु-मु-विध्यादिष्वेकस्मिन ३३१ ६५ ऋत पारः सुपि १५२ ६६ ऋतोऽत् १२० ६७ ऋतोऽरः ३६५ १८ ऋत्वादिषु तो दः ९६ एकाचो ही १०० एच सुप्यङि-ङसोः १०१ एच्च क्त्वा तुमन-तव्य-भविष्यत्सु ३३४ Arm of muv" Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क सूत्राङ्क पृष्ठाङ्क ५२ १४३ १०२ एत इद् वेदना-देवरयोः १०३ एतदः सात्वोत्वं वा २४७ १०४ एत् नीडा-ऽपीड-कीदृगीदृशेषु १०५ एन्न पुरे १६० १०६ ए भ्यसि १०७ ए शय्यादिषु १०८ एषामामो ण्हं ११० ऐत एत् १११ एरावते च ८२ ११२ प्रो च द्विधा कृतः ३१२ ११३ प्रोतोऽद् वा प्रकोष्ठे कस्य वः ११४ अोदवा.ऽपयोः ३१० ११५ ओ बदरे देन ११६ अो सूचना-पश्चाताप-विकल्पेषु ११७ प्रौत्, प्रोत् ११८ क-ग-च-ज-त-प-य-वां प्रायो लोपः ११६ कबन्धे बो मः १२. कापणे १२१ कालायसे यस्य वा १२२ काशेर्वास : १२३ कि-यत्-तद्भ्यो ङस प्रासः २२२ १२४ किलो प्रश्ने २६७ १२५ किम : क: २१६ १२६ किराते च: १२७ कुब्जे ख: १२८ कृज: का भूत-भविष्यतोश्च ३६५ १२६ कृज: कुणो वा १३० कृ-दा-श्र-वचि-गमि-रुदि-शि-विदिरूपाणां काहं दाहं सोच्छं वोच्छं गच्छं रुच्छं दच्छ वेच्छं ३६७ १३१ - कृष्णे वा १३२ कैटभे व: १३३ कौशले वा १३४ क्ते ४१२ १३५ क्ते तुर: १३६ क्तेन दिण्णादय: ४१३ 91.00 9 m or. Mr YmroMMUS xx. १२४ २१० الله " x Wwwar ४११ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क सूत्राङ्क पृष्ठाङ्क ५१ ~ ४१५ १८१ S ३८५ २३ W ३५० " ३४० ५६ ३३६ ८४ ४०५ 9 . १३७ क्ते : १३८ क्त्व ऊरण: १३६ क्मस्य १४० क्रीज : किरण: १४१ क्रुधेझूर : क्लिष्ट-रिलष्ट-रत्न-क्रिया-शाङ्गेषु तत्स्व रवत् पूर्वस्य १४३ क्वचिद् असि ङयोर्लोपः १४४ क्वचिद् युक्तस्यापि १४५ क्वथेढः १४६ क्षमा-वक्ष-क्षणेषु वा १४७ क्षियोझिज्जः १४८ ख-घ-थ-ध-भां-ह: १४६ खादि-धाव्योः खा-धौ १५० गद्गदे रः १५१ गमादीनां द्वित्वं वा १५२ गतेंडः १५३ गभिते णः १५४ गहे घरोऽपतौ १५५ ग्रसेविसः १५६ ग्रहे दीर्घो वा १५७ ग्रहेर्गेण्हः १५८ घुणो घोल: १५६ घे क्त्वा-तुमुन् तव्येषु १६० असश्च द्वित्वं वाऽन्त्यलोपश्च १६१ डसा से १६२ ङसि तुमो-तुह-तुज्झ-तुम्ह-तुब्भा १६३ ङसेः प्रा-दो-दु-हयः १६४ ङसो वा १६५ ङसो वा १६६ ङसौ तत्तौ तइत्तो तुमादो तुमादु तुमाहि १६७ उ ए म्मी १६८ डेहि १६६ स्सि-म्मि-त्थाः १७० ङौ च मइ मए r u rm""m . . . .mom.r . २३६ २४५ : Ram २२ २२४ WW २७१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क १७१ डी तुमम्मि १७२ चतुरचतारो बतारि १७३ चतुर्थी चतुर्दश्यों स्तुना १७४ चतुष्यः षष्ठी १७५ चन्द्रिकायां मः चित्र चे श्रवधारणे चिजविवरणः चिन्हे धः वो ब्रज-नृत्योः चौर्य समेषु रियं वाह १८२ जल्पेलों मः १८३ जस् शस्-उसि प्रासु दीर्घः १८४ जस्- शस्- ङसो गो १८५ जस्-शसोर्लोपः १८६ जस ग्रोवो वाइएवं यूत्वं च १७६ १७७ १७ १७६ १८० १८१ १८७ जस ओश्च यूत्वम् १८८ जसो वा १५९ जिघ्रतेः पापासी १६० भो जंभा १६१ ज्ञो जारण- मुण १९२ शो गज्जब्बी या १९३ ज्यायामीत् १९४ ऋषि दुर्गाल १६५ टाऽऽमोर्णः ११६ टाइम् ङीनामिदेददातः १९७ टा ङयोस्तइ तए तुमए तुए १६८ टा पा LE टा पा २०० टो ड २०३ डस्य च २०४ २०५ [ ] गवरः केवले एवरि मानन्तयें सूत्राङ्क २६२ २१५ १७८ १८ १६७ २६१ ३८६ २०५ ३४१ २०२ १६५ ३४७ १३ २३१ १२ १६० २५५ १४१ २३५ 55 २०१ ठा भागांश्च वर्तमान भविष्यद् विध्याद्यकवचनेषु २६१ २२० ठो ढः १४० १३६ १५७ ३६२ ३४३ ३६८ ३०८ १७३ १६ १९६ == २६५ २६६ पृष्ठाङ्क ३२ २७ २२ ३ २० ax ४७ २५ ४१ २५ २० ४२ २. २८ २ १६ १६ १६ ४४ ४२ ૪T ५० २१ २ ३ १६ ३१ १७ २५ ११ ४३ २५ २५ ३५ ३५ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] क्रमाङ्क স্বত্ত্ব पृष्ठाङ्क ३०२ m"" ३८६ २६६ २५३ २४४ २४३ ३१३ २०७ १४४ २५२ २६४ Xxx २०६ गवि वैपरीत्ये २०७ णिच एदादेरत प्रात् २०८ गुदेलोणः २०६ णे शसि २१० तं वाऽमि २११ तद पोश्च २१२ तदेतदोः सः सावनपुंसके २१३ तल् त्वयोर्दा-तणो २१४ तालवृन्ते ण्ठः २१५ तिणि जस्-शस्भ्याम् २१६ तुझे तुम्हे जसि २१७ तुझेसु तुम्हेसु सुपि २१८ तुझेहिं तुम्हेहि तुब्भेहिं भिसि २१६ तुमाइ च २२. तुम्हाहितो तुम्हासुत्तो भ्यसि २२१ तूर्य धैर्य-सौन्दर्या-ऽऽश्चर्य-पर्यन्तेषु रः २२२ तृन इर: शीले २२३ तपस्थिम्पः २२४ ते तिपोरिदेतौ २२५ तो ङसेः २२६ तो-त्थयोस्तो लोपः २२७ तो दो से: २२८ त्य-थ्य-द्यां च्च-च्छ-ज्जा: २२६ बसेर्वज्जः २३० त्रस्ती २३१ त्वरस्तुवरः २३२ थास सिपो: सि से २३३ दशादिषु हः २३४ दाढादयो बहुलम् २३५ दिक्-प्र वृषोः सः २३६ दिवसे सस्य २३७ दुहि-लिहि-वहां दुब्भ-लिब्भ-वभा २३८ दूङो दूमः २३६ शेः पुलअ-रिणअक्क-प्रवक्खा: २४. दैत्यादिष्वइः mmar Arr wrrm H MmrtmnA OU.. ४१७ ३६१ ३१७ २४८ २४६ २२१ ३८० or mar २१५ "MMMM. २८० १०३ ४०७ ३८१ ३६८ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमाङ्क २४१ देवे वा २४२ दोला- दण्ड- दशनेषु ङः २४३ दोहदे ः २४४ द्र रो वा २४५ द्विवचनस्य बहुवचनम् २४६ दुवे दोणि वा २४७ हे २४८ २४९ २५० २५१ धातोर्भविष्यति हिः ध्य- ह्योर्भः न डि-इस्योरेदाती नत्रो हलि २५२ न त्थ: २५३ न तदिषु २५४ न नपुंसके २५५ नपुंसके स्वमोरिदमिणमिणमो २५६ न बिन्दु परे २५७ न रन्हो २५८ न विद्युति २.६ न शिरो नभसी २६० २६१ २६२ नातो दालो २६३ नाऽऽमन्ये सावोत्व-दीर्घत्व बिन्दवः २६४ नानेकाचः न सन्ति प्रावृ-शरदः पुसि न स्तम्बे २६५ निपाताः २६६ निरो माङो मारणः [] २६७ नीडादिषु च २६८ नो : सर्वत्र २६ नोत्सुकोरवयोः २७० त माणौ शतृ-शानचो २७१ न्ति- हेल्या मो-मु-मा बहुषु २७२ न्तु ह मो बहुषु २७३ न्मो म्मः २७४ पटे: फल: २७५ पलने सूत्राक १६२ ६४ ६७ १०४ ११ १४६ १४७ १०७ १४२ २२६ ११६ २१६ २८७ १३० ११४ २८६ २०८ २४२ ફ્ १६१ २५ ३२२ २८९ ३७७ १६३ E १२६ ४१५ ३२३ ३३२ ६ ३४५ २०४ पृष्ठाङ्क २४ ११ ११ १२ २ १७ १७ ४१ १२ १७ १ २८ १३ २६ ३४ १५ १३ २४ ३४ २६ १३ १६ ३५ ४६ २४ २ ५२ ३८ ३९ ११ ४२ २५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ३८२ २०३ १५४ १५६ 9 mr m w USAY ३४६ ९१ २७६ पदस्य २७७ पदः पाल: २७८ परुष-परिघ-परिखासु फः २७६ पर्यस्त-पर्याण-सौकुमार्येषु ल्लः २८० पितृ-भ्रातृ-जामातृणामरः २८१ पृष्ठा-ऽक्षि प्रश्नाः स्त्रियां दा २८२ पो वः २५३ पौरादिष्वउः २८४ प्रतिसर-वेतस-पताकासु : २८५ प्रथम-शिथिल-निषधेष ढः २८६ प्रदीप्त-कदम्ब-दोहदेषु दोल: ८७ प्रादेर्भव: २८८ प्रादेर्मील: २८९ को भ २६० बाष्पेऽश्रुणि हः २६१ बिसिन्यां भः २६२ बुड-खुप्पो मस्जे: २६३ बृहस्पती ब-होर्भ-ौ २६४ ब्रह्माद्या आत्मवत् २६५ भाव-कर्मणोर्वश्च २६६ भिदि-च्छिदोरन्तस्य न्दः २६७ भिन्दिपाले ण्ड: २६८ भियो भा-बीही २६४ भिसो हिं ३०० भुजादीनां क्त्वा-तुमुन्-तव्येषु लोपः ३०१ भुवो हो-हुवौ ३०२ भ्यसो हितो सुत्तो ३०३ में मम ३०४ मज्भगो अम्हं अम्हारणं अम्हे प्रामि ३०५ मत्तो मइत्तो ममादो ममादु ममाहि सौ ३०६ मध्यान्हें हस्य ३०७ मध्ये च ३०८ मन्मथे वः ३०६ ममम्मि डौ ३१० मयूर-मयूख-योर्वा वा ३११ मलिले लिनोरिलो वा ३१२ मांसादिषु वा १२३ १८० ३६० १४५ २४१ -6GK00.. ३६३ १२८ १७ ४१४ ३१६ २१ २६८ २७६ xmmmm or २७३ १०६ ३२१ ६५ २७७ - ४२ २११ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० । क्रमाङ्क सूत्राङ्क पृष्ठाङ्क १८२ ३७२ ३७४ ३६६ २७५ ३३७ ० - १२७ ३०५ m xamw . १३४ ३१३ मातुरात् २१४. मिना स्सं वा ३१५. मि-मो-मु-मानामधो हश्च ३१६, मृजेलुंभ-पुसौ ३१७, मृदो ल: ३१८. मे मम मह मज्झ ङसि ३१६, मो बिन्दुः ३२०, मो-मु मैहि-स्सा-हित्था ३२१ म्न-ज्ञ-पञ्चाशत पञ्चदशेषु णः ३२२ म्मिव-मिग्र-विमा इवार्थ ३२३, म्ल वा-वामी ३२४. यक ई-इज्जो ३२५, यमुनाया मस्य ३२६ यष्टयां लः ३२७ मावदादिषु वस्या ३२८, युक्तस्य ३२६ युधि-बुध्योः ३३० युष्मदस्तं तुम ३३१ राज्ञश्च ३३२. रुदेवः ३३३ रुधेध-म्मो ३३४ रुषादीनां दीर्घः ३३५ रे अरे हिरे सम्भाषण-रतिकलहा-ऽऽक्षेपेषु ३३६ रोरा ३३७ तस्य टः ३३८ र्य-शय्या-ऽभिमन्युषु जः ३३६ लवण-नवमल्लिकयोर्वेन ३४० लादेशे वा । ३४१, लाहल लाङ्गल-लाङ्ग लेषु वा रण: ३४२. लतः क्लुप्त इलि ३४३, लोपोऽरण्ये ३४४, वादिषु ३४५ वर्गेषु युजः पूर्वः ३४६ वर्तमान-भविष्यदनद्यतनयोजः ज्जा वा ३४७ वसति-भरतयोहः १४' विद्युत्-पीताभ्यां वा लः ३८३ २५१ २३० ३७५ ३६२ ३८४ ३०४ २८४ ११५ ११२ GNMKM MMKGA. 6 १६४ ३१६ १८ १६१ १८३ ३२० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० १२६ ३५५ २१३ ३५४ الله الله ३९७ ३४२ २५४ २६३ ३८७ الله ३८८ ३५७ २७६ २३४ ३०७ ३४६ विप्रकर्षः ३५० विह्वले म्भ हो वा ३५१ वृक्षे वेन रुर्वा ३५२ वृधेः ३५३ वृन्दे वो रः ३५४ वृश्चिके छः ३५५ वृष-कृष-मृष-हृषा ३५६ वेः ककेच ३५७ वेष्टेश्च ३५८ वो च शसि ३५६ वो भे तुज्झारणं तुम्हारणमामि ३६० शकादीनां द्वित्वम् ३६१ शकेस्तर-च-तीराः ३६२ शतृ-पत्योर्ड: ३६३ शरदो दः ३६४ शषोः सः ३६५ शस एत् ३६६ शेषः संस्कृतात् ३६७ शेष -ऽदेशयोद्वित्वमनादौ ३६६ शेषारणामदन्तता ३६६ शेषोऽदन्तवत् ३७० श्च-त्स-प्सां छः ३७१ श्मश्रुमशानयोरादेः ३७२ श्रदो धो दहः ३७३ श्रु-हु-जि-लू-धुवां गणोऽन्त्येह्रस्व: ३७४ श्वादीनां त्रिष्वप्यनुस्वारवज हिलोपश्च वा ३७५ षट्-शावक-सप्तपर्णानां छः ३७६ क-स्क-क्षां क्खः ३७७ ष्टस्य ठः २७८ ष्ठा-ध्या-गानां ठा-माअ-गामा: ३७६ पस्य फ: ३८० ष्म-यक्ष-विस्मयेषु म्हः ३८१ संख्यायां च ३८२ संज्ञायां वा ३८३ सटा-शकट-कैटभेषु ढः ३५४ सन्धावचामलोपविशेषा बहुलम् ३८५ समासे वा ३५ ३६६ १३७ १२५ २०१ ३७८ ३५० ९९ ५६ १७५ ३६० २०६ ११६ १०१ १० - ३१ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२ । क्रमाङ्क सूत्राङ्क पष्ठाङ्क ३४ १३५ ७६ १३६ ३०३ ११३ १३२ १८४ . nMMG RNMo०ीका ५७ Wm mor M ३८६ सर्वज्ञतुल्येषु अस्य ३८७. सर्वत्र लबराम् ३८८ सर्वादेर्जस एत्वम् ३८९ सीकरे भः ३६० सुपः सुः .. ३६१. सु-भिस् सुप्सु दीर्घः ३६२ सू कुत्सायाम् ३६३. सूर्ये वा ३६४ सेवादिषु ३६५ सोबिन्दुर्नपुंसके ३६६. स्तम्भे खः ३९७ स्तस्य थः ३६८. स्त्रियां शस उदोतो ३६६ स्त्रियामात्.. ४०० स्त्रियामात एत् ४०१. स्थाणावहरे ४०२. स्नुषायां हः ४०३ स्नेहे वा ४०४ स्पस्य सर्वत्र स्थितस्य ४०५ स्फटिक-चिकुर-निकषेषु कस्य हः ४०६ स्फटिके लः । ४०७ स्फुटि-चल्यो ४०८ स्फोटके ४०६ स्मरतेभर-सुमरी .४१० स्स-स्सिमोरद् वा ४११ स्सो सः ४१२ हन्तेर्मः ४१३ हरिद्रादीनां रो लः ४१४ हश्च सौ ४१५ हुं दान-पच्छा-निर्धारणे .४१६ ह-क्खू निश्चय-वितर्क-सम्भावनेष ४१७ ह-क्रो-र-कीरौ ४१८ ह नः-स्नःष्ण-क्ष्ण-श्नां ण्हः ४१६ हन-ल-ह्मषु न-ल-मां स्थिति-रूर्वम् १६६ ३८ १२२ ७७ ७८ ३४४ १११ ~ ~ * २२७ ३७० W.CMWWW. AMAU Kा ४०६ . ४६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्दप्राकृतप्रकाशयोः सूत्राणां भेदानुक्रमणिका प्राकृतानन्दस्य सूत्राणि सूत्राङ्क क. प्राकृतप्रकाशस्य सूत्राणि सत्राङ्क अंकोठे ल्लः २०० X अंकोले ल्ल: २।२५ - १ अत इदेतो लुक् च ११११. २ अदीर्घः सम्बुद्धौ ३ अनादावयुजोस्तथयोदधौ १२। ३ X X . १ अपौ व्वि ३०६ अम्हेहितो अम्हेसुत्तो म्यसि २७४ अम्हाहिन्तो अम्हासुन्तोभ्यसि ६।४६ ४ अस्मदः सौ हके हगे महके ११९ ५ अस्मदोजसावयं च १२।२५ ६ अयुक्तस्यानादौ २।१ २ अव्वो अम्मो दुःखाऽऽक्षेपविस्मापनेषु असेर्लोपः ३०१ २६६ अस्तेर्लोपः ७ अस्तेरच्छ ७।६ १२।१६ २१७ ३ अस्थिनि आङो ज्ञादेशस्य पाच्च सौ १७० १५५ ५१३५ Xx प्राम: एसि २२३ प्रामि सिं २४६ प्राल्विल्लोल्लालवत्तेत्ता मतुपः ३१४ आङो ज्ञस्य ३१५५ पाच सो ८ आत्मनि पः ३।४८ ६ आनन्तर्ये गवरि पाम एसि ६४ प्रामासि ६।१२ प्राल्विल्लोलवन्तेन्तामतुपः ४।२५ १० प्रावि:क्त कर्मभावेषु वा ७।२८ ११ आश्चर्यस्याच्चरिश्र १२।३० X X ४ इनं भूते ३२६ X इट् मयोमिः ३२५ X १२ इ गध्रसमेषु १२।६ इड् मिपोमिः ७१३ १३ इत्सदादिषु ११११ १४ इ: श्रीह्रीक्रीतक्लान्तक्लेशम्ला नस्वप्नस्पर्शहहिंगहेंषु ३।६२ १५ इवस्य पिव: १०१४ १६ इवस विध १२।२४ X X X Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १४ । क. प्राकृतानन्दस्य सूत्राणि सूत्राङ्क क्र. प्राकृतप्रकाशस्य सूत्राणि सूत्राङ्क ५ इवे व्व ३०८ ईत् स्त्रियाम् ४१६ उत्तरीया-ऽनीययोर्यस्य जो वा ८६ उद्ध्मो धूमा ६ उदूखले द्वा वा १८७ उलूहले ल्वा वा १८७ A ईच स्त्रियाम् उत्तरीयाऽऽनीययोों वा उद्ध्म उद्घमा ७।११ २०१७ ८.३२ X X एच्च क्त्वातुमुन् तव्यभविष्यत्सु प्रोत् प्रोत् ७३ धेर्पूरः x xxx xxx x ३८५ उलूरवखेल्वा वा १२१ १७ ऋरीति १.३० १८ लतः क्लुप्तः इलिः १२३३ एच क्त्वातुमुन् तव्यभविष्यत्सु ७।३३ १६ एवस्य जेब्व १२२३ प्रात प्रोत् १.४१ २० कन्यायां न्यस्य १०।१० २१ करेण्वां रणोः स्थितिपरिवतिः ४।२८ २२ कृगङ्गमा क्तस्य डः ११०१५ क्रुधेर्जूरः ८.६४ २३ क्त्व इमः १२। २४ क्त्व स्तूनम् १०।१३ २५ क्तान्तादुश्च २६ क्त्वो दारिणः ११११६ __क्वचित्पृक्तस्यापि २७ क्षस्य स्क: ११८ २८ खिदेविसूरः ८।६३ २६ गर्दभसंभदवितदिविच्छदिषु दस्य ३।२६ घेत् क्त्वा तुमुन् तव्येषु ८.१६ X ङसि तुमो तुह तुज्भ तुम्ह तुम्हाः ६।३१ क्वचिद् युक्तम्यापि XX ४१६ घे क्त्वा-तुमुन्तव्येषु ७ ङसा से ङसि तुमो-तुह-तुज्झ-तुम्ह तुब्भा ८ असो वा x के ए-म्मी XXX.X ३० ङसो हो वा दीर्घत्वञ्च 3 रेम्मी ३१ उर्दैन हः ३२ चर्चेश्चम्पः ३३ चवर्गस्य स्पष्टतया तथोच्चारणः ११०१२ ५६ ६.१६ ८.६५ १११५ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क. प्राकृतानन्दस्य सूत्राणि 18 चिन चेअ अवधारणे [ १५ ] सूत्राङ्क क. प्राकृतप्रकाशस्य सूत्राणि __ सत्राङ्क २६१ ३४ चिट्ठस्य चिष्ट: ११।१४ १४० ३५ जश्शस्ङसां गो. ५१३८ १३६ जसश्च प्रो यूत्वम् ५।१६ जश्शस्ङसां गो ५१३८ ३६ जोयः ११४ १० जस ओ वो वाऽत्वं यूत्वं च जस अोश्च यूत्वम् जस्-शस्-ङसो णो x ११ ज्ञो गज्ज-रणव्वौ वा ४०८ ३७ ज्ञस्य जः ३८ ज च्च १०६ १०।११ X १२ झयि तद्वर्गान्तः टा-ङस् ङीनामिदे ददातः टा उचोस्तइ तए तुमए तुए १६० २५५ टाङसिङस्डीनामिदेददातः ५२२ टाड्योस्तइ तएतुमए तुमे ६।३० ३९ टामोर्णः ५।४ ४० डुकृञः करः १२।१५ १३ गवरि प्रानन्तनयें २६६ रणुदेर्लोरणः णे शसि ३८६ २६६ ४१ णिजश्शसोर्वा क्लीबे स्वरदीर्घश्च रणुदो गोल्ल गो शसि ४२ गो नः ४३ ततिपो रिदेतो ४४ तिपाथि तु चामि तुझेहिं तुम्हेहि भिसि तृणइरः शीले १२।११ ८७ ६.४४ १०.५ ७११ १२१२० XXX तं वाऽमि २५३ तुझेहिं तुम्हेहिं तुन्भेहि भिसि २५८ तनइरः शीले १४ ते-तिपोरिदेतो वस्ती ४१७ ४।२४ १५० त्रस्ति ४५ ददातेर्दे दइस्स लटि ६५५ १२।१४ १५ दुहि-लिहि-वहां दुब्भ-लिब्भ वब्भा Y०७ ४६ दशे: पेक्खः १२१८ १६ दोहदे णः ४७ धातोर्भावकर्तृकर्मसु परस्मैपदम् १२।२७ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X ७६ X X XXXXX [१६ ] क. प्राकृतानन्दस्य सूत्राणि सूत्राङ्क | क्र. प्राकृतप्रकाशस्य सूत्राणि सूत्राङ्क x ४८ न लुटि १२।१३ नपुंसके स्वमोरिदमिणमिणमो २८७ नपुंसके स्वमोदिदमिणमिणमो ६।१८ नाऽऽमन्त्रणे सावोत्व-दीर्घत्व नामन्त्रणे सावोत्वबिन्दव दीर्घबिन्दवः ५।२७ ४६ नान्त्यद्वित्वे ५० नैदावे ७।२६ पदः पाल: २८३ पदेः पालः ८.१० ५१ पनसेऽपि २०३७ परुष-परिघपरिखासु फ: परुषपलितपरिखासु फ: २०३६ ५२ पुत्रेऽपि क्वचित् १२१५ ५३ पैशाची १०११ ५४ प्रकृतिः शौरसेनी १०१२ ५५ प्रकृतिः संस्कृतम् १२।२ ५६ प्रकृत्या दोलादण्डदशनेषु १२१३१ १७ बाष्पेऽश्रुरिण हः १२३ १८ बृहस्पतौ ब-होर्भ-ौ १४५ ५७ ब्रह्मण्यविज्ञकन्यकानां ण्यझन्यानां जो वा १२७ ५८ भविष्यति मिपास्सं वा स्वरदीर्घत्वञ्च १२।२१ ५६ भाजने जस्य ३।४ १६ भियो-भा: बी ६० भोभुवस्तिङि १२।१२ भ्यसो हिंतो सुत्तो भ्यसो हिन्तो सुन्तो ५७ ६१ मागधी ११११ ६२ मिपो लोटि च १२।२६ मृजेलुभ-पुसौ ___ मृजेर्नुभसुपौ ८।६७ ६३ ययि तद्वर्गान्तः ४।१७ यावदादिषु वस्य याबादादिषु वस्य ६४ राज्ञो राचि टाङसिङस्ङिषु वा १०११२ रुषादीनां दीर्घः रुषादीनां दीर्घता ८।४६ ६५ र्यस्य रिपः १०1८ ६६ र्ययोर्य ११७ XX X X X X X X X ४१५ X Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] क्र. प्राकृतानन्दस्य सूत्राणि सूत्राङ्क | क्र. प्राकृतप्रकाशस्य सूत्राणि लाहल-लाङ्गल-लाङ्ग लेषु वा णः ९८ लाहले गः ६७ लिहेलिज्झ सूत्राङ्क २।४० ८।४६ २० तृतः क्लुप्तः इलि X X X X X X वे क्के च ३६७ X शकेस्तर-च-तीराः X X ६८ वर्गाणां तृतीयचतुर्थयोर युजोरनाद्योराद्यौ १०॥३ ६६ वाष्पेऽश्रुरिण हः ७० विप्रवेष अवधारणे ६३ ७१ A विसिन्यां भः २।३८ ७१ B बृहस्पती वहेर्भाऔ ४।३० वेक्वे च ८।३१ ७२ व्यापृते डः १२।४ शकेस्तरव अतीरा: ८७० ७३ शीकरे भः २५ ७४ शृगालशब्दस्य शिवाला शिपाले शिबालकाः ११.१७ ७५ शेषं महाराष्ट्रीवत् १२।३२ ७६ शौरसेनी १२।१ षट्शावकसप्तपर्णानां हः २।४१ ७७ षसोः सः ११३ ७८ ष्टस्य सटः १०१६ ष्टाध्यागानांठाअभाअभाप्राः ८.२५ सर्वज्ञतुल्येषु नः ७६ सर्व ङ्गितज्ञयोग १२।८ ८० सर्वनाम्नां 3 सित्वा १२।२६ ८१ सिच ३।३७ X X षट्-शावकसप्तपर्णानां छः ६९ X ष्ठा-ध्या-गाना-ठा-झा-गावाः ३६६ सर्वज्ञतुल्येषु अस्य १०५ ३१५ २१ सीकरे भः ७६ XXXXXXXX ८२ स्तम्बे ३।१३ ८३ स्थश्चिट्ठः १२।१६ ८४ स्मरतेः सुमर १२।१७ ८५ स्त्रियामित्थी १२।२२ ८६ स्नस्य सनः १०७ हुदानपृच्छानिर्धारणेषु २ ८७ हृदयस्य हितकम् १०.१४ ८८ हृदयस्य हडक्क: ११११६ ह्रह्लह्मषु नलमां स्थितिरूवम् ३१८ ह्रस्रष्क्ष्णश्नां ण्हः हुंदानपृच्छानिर्धारणेषु २६० X ह न-ल-ह्मषुनलमां स्थितिरूवम् १०८ हनः स्न: ष्णक्षणश्नां ण्हः ४६ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा द्विधा संस्कृता च प्राकृता चेति भेदतः । कौमारपाणिनीयादिसंस्कृता संस्कृता भवेत् ॥ १ इयं तु देवतादीनां मुनीनां नायकस्य च विप्रक्षत्रियविट्शूद्र मन्त्रिकञ्चुकिनामपि ।। २ गार्ग्यगालवशाकल्यपाणिन्याद्या यथर्षयः । शब्दराशेः संस्कृतस्य व्याकर्त्तारो महत्तमाः ॥ ३ तथैव प्राकृतादीनां षड्भाषाणां महामुनिः । श्रादिकाव्यकृदाचार्यो व्याकर्त्ता लोकविश्रुतः ॥ ४ यथैव रामचरितं संस्कृतं तेन निर्मितम् । तथैव प्राकृतेनापि निर्मितं हि सतां मुदे ॥ ५ पाणिन्याद्यैः शिक्षितत्त्वात्संस्कृती स्याद्यथोत्तमा । प्राचेतसव्याकृतत्वात्प्राकृत्यपि तथोत्तमा ।। ६ --mmmm Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ -कवि-विरचित प्राकृतानन्द प्रेङ्खन्नखच्छविमिथश्छुरितेन यस्मिन् , रक्ताचलग्रथनकौतुकमन्वकारि । खेदोद्गमद्विगुणदानजलः स भूयान् , भूयात् करग्रहविधिः शिवयोः शिवाय ॥१॥ रचयति नृसिंहरत्यै रघुनाथः सरसदैववित्तनयः। रसिकानन्दनिमित्तं सानन्दं प्राकृतानन्दम् ॥ २॥ दोषदुष्टमिदमित्यवज्ञया हातुमिच्छत न जातु साधवः ।। शैवलं किल विहाय केवलं निर्मलं किमु न पीयते जलम् ? ॥३॥ ये पण्डितकुलोत्पन्ना रसवन्तोऽल्पबुद्धयः। तदर्थमयमारम्भः किमज्ञातं मनीषिणाम् ? ॥४॥ सन्धावचामज्लोपविशेषा बहुलम् ॥ १॥ अचां सन्धावविशेषा लोपश्च वा स्युः । नदीस्रोतः णहसोक्तो राम ओ इति स्थिते रामो, अकारलोपः। मो बिन्दुः॥२॥ मस्य अनुखारः स्यात् । कण्ह अम् इति स्थिते कण्हं। अचि मश्च ॥ ३॥ अचि परे मस्य म एव स्यात् । अनुस्वारापवादः । धणम् ओहरइ इति स्थिते धणमोहरइ । 'अनचि मो बिन्दुः' इत्येव सूत्रयितुमुचितम् । नञो हलि ॥ ४ ॥ मकार-अकारयोः अनुखारः स्याद् हलि । अन्सः अंसो, अन्न नस्य अनुखारः। वञ्चितः वंचिओ, अत्र अस्य । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कवि-विरचित वक्रादिषु ॥ ५॥ एषु अनुखारागम: स्यात् । वकं वक। वक्र व्यस्त हख अश्रु श्मश्रु गृष्टि मूर्द्धन मनखिनी दर्शन स्पर्श वर्ण प्रतिश्रुत् अश्व अभिमुक्त वक्रादिः। मांसादिषु वा ॥ ६॥ एषु वा बिन्दुः स्यात् । संयोगेऽणो हख इति वाच्यम् । मांसं मंसं मासं । आकृतिगणोऽयम् । झयि तद्वर्गान्तः ॥७॥ तद्वर्गान्तोऽनुखारो वा स्याद् झयि । शङ्का संका सङ्का । ॥ इति सन्धिः ॥ __अत ओत् सोः ॥ ८॥ अकारान्तात् परस्य सोः ओत् स्यात् ॥ नो णः सर्वत्र ॥ ९॥ यत्र कचित् स्थितस्य नस्य णः स्यात् । क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लोपः ॥ १० ॥ कादीनां नवानामयुक्तानामनादिवर्तिनां प्रायो लोप: स्यात् । नारायणः णाराअणो । अयुक्तानामिति किम् ? शक्रः सको इत्यादि । अनादिवर्तिनामिति किम् ? कृष्णः कण्हो इत्यादि । द्विवचनस्य बहुवचनम् ॥ ११॥ सुपां तिङां च द्विवचनस्य बहुवचनं स्यात् । जस्-शसोर्लोपः ॥ १२ ॥ अकारान्तात् परयोः जसू-शसोः लोप: स्यात् । __जसू-शसू-ङसि-आमसु दीर्घः ॥ १३ ॥ एषु अतो दीर्घः स्यात् । ए च सुप्यङि-ङसोः ॥ १४ ॥ अकारस्य एत्वं स्यात् सुपि, न तु डि-ङसोः। चाद् दीर्घोऽपि । नारायणी नारायणाः णाराअणे णाराअणा। अडि-उसोरिति किम् ? नारायणे णाराअणम्मि, नारायणस्य णाराअणस्स। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द अतोऽमः ॥ १५ ॥ अकारान्तात् परस्य अमः अकारस्य लोपः स्यात् । नारायणं नाराअणं । ननु 'सन्धावचाम् ० ' (१) इति अलोपेनैव भाव्यम् इति चेत्, न, तत्र बहुलग्रहणात् क्वचिदप्रवृत्तेरपि सम्भावनीयत्वात् । नारायणान् णाराअणा णाराअणे । टा-ऽऽमोर्णः ॥ १६ ॥ अकारान्तात् परयोः टा-ऽऽमोः णः स्यात् । नारायणेन णाराअणेण । नारायणानां णाराअणाणं । भिसो हिं ॥ १७ ॥ अकारान्तात् परस्य भिसो हिं इत्यादेशः स्यात् । नारायणैः णाराअणेहिं । चतुर्थ्याः षष्ठी ॥ १८ ॥ स्यात् । तथा हि । स्सो ङसः ॥ १९॥ अकारान्तात् परस्य उसः स्स इत्यादेशः स्यात् । नारायणाय णाराअणस्स । नारायणेभ्यः णाराअणाणं । ङसेः : आ-दो-दु-हयः ॥ २० ॥ अदन्तात् परस्य ङसेः आ दो दु हि इति प्रत्येकं चत्वार आदेशाः स्युः । नारायणात् णाराअणा णाराअणादो णाराअणादु णारायणाहि । 'जस्-शस्०' (१३) इति दीर्घः । यसो हिंतो सुत्तो ॥ २१ ॥ अदन्ताद् भ्यसो हिंतो मुत्तो इत्येतौ आदेशौ स्याताम् । नारापणेभ्यः णाराअणाहिंतो णाराअणासुत्तो । नारायणस्य णाराअणस्स ङः ए-म्मी ॥ २२ ॥ अदन्ताद् ङि इति सप्तम्येकवचनस्य ए म्मि इत्येतौ स्याताम् । कचिदू ङसि ङयोर्लोपः ॥ २३ ॥ ङसिङयोः परयोः कचिदतो लोपः स्यात् । नारायणे णाराअणे णारा अणम्मि । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कवि-विरचित सुपः सुः॥२४॥ अदन्तात् परस्य सुपः सु इत्यादेशः स्यात् । ओत्वापवादः । नारायणेषु णाराअणेसु । 'ए च०' (१४) इति एत्वम् । नाऽऽमन्त्रणे सावोत्व-दीर्घत्व-बिन्दवः ॥ २५ ॥ सम्बोधने ओत्व-दीर्घत्वा-ऽनुखारा न स्युः। अन्त्यस्य हलः ॥ २६ ॥ [अन्त्यस्य हलः] लोपः स्यात् । हे नारायण हे णाराअण । रागः राओ। 'क-ग' (१०) इति गलोपः। रागाः राआ राए, 'जस्-शसोः०' (१२) इति लोपः, 'जस्-शस्०' (१३) इति दीर्घः। सम्पम् राअं। रागान् राआ राए । रागेण राएण । रागैः राएहिं । रागाय राअस्स । रागेभ्यः राआणं । रागात् राआ राआदो राआदु राआहि । रागेभ्यः राआहितो राआसुत्तो। रागस्य राअस्स । रागाणाम् राआणं । रागे राए राअम्मि । रागेषु राएसु। आदेरतः ॥ २७ ॥ -इत्यधिकृत्य। इदीषत्-पक्क-स्वप्न-वेतस-व्यजन-मृदङ्गा-ऽङ्गारेषु ॥ २८ ॥ एषु सप्तसु मध्ये आदेः अतः इः स्यात् । उद् ऋत्वादिषु ॥ २९ ॥ एषु ऋतः उः स्यात् । मृदङ्गः मुइंगो। ऋतु मृणाल पृथिवी वृन्दावन प्राट् प्रवृत्ति विवृत संवृत निवृत वृत्तान्त परभृत मातृक जामातृक मृदङ्ग इत्यादि ऋत्वादिः। विप्रकर्षः ॥ ३० ॥ -इत्यधिकृत्य । युक्तस्य ॥ ३१ ॥ -इत्यधिकृत्य। इः श्री-ही-क्रीत-क्लान्त-क्लेश-म्लान-खान-स्पर्श-हर्षा-ऽर्ह-गर्थेषु ॥ ३२ ॥ एषु एकादशसु युक्तस्य विप्रकर्षः स्यात्, पूर्वस्य इत्वम्, तत्वरता च । 'नो या:०' (९) इति णः । खमः सिविणो इत्यादि । 'उपरि० (३६) इति वक्ष्यमाणेन पलोपः। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द प्रतिसर-वेतस-पताकासु डः ॥ ३३ ॥ एषु तस्य डः स्यात् । प्रतिसरः पडिसरो । 'सर्वत्र' (३४) इति वक्ष्यमाणेन रलोपः। ननु पडिवआ पडिसिद्धि इत्यादौ तस्य डः केन ? इति चेत्, उच्यते, प्रतिसर इत्यत्र प्रतिना सरति प्रतिपूर्वक इति यावद् इति व्याख्यानात्, 'प्रतिसर'शब्दस्यापि प्रतिनैव सरत्वादिति । वेतसः वेडिसो। सर्वत्र लबराम् ॥ ३४ ॥ संयुक्तस्य उपर्यधःस्थितानां लकार-बकार-रेफाणां लोपः स्यात् । शेषा-ऽऽदेशयोदित्वमनादौ ॥ ३५ ॥ युक्तस्य लोपे जाते यः शेषः आदेशश्च तयोः अनादौ वर्तमानयोर्द्वित्वं स्यात् । पक्कः पिक्को। उपरि लोपः क-ग-ड-त-द-प-ष-साम् ॥ ३६ ॥ ___ कादीनामष्टानां युक्तस्य उपरिस्थितानां लोपः स्यात् । भक्तः भत्तो। वर्गेषु युजः पूर्वः॥ ३७॥ __ 'शेषा०' (३५) इति यस्य द्वित्वं क्रियते स द्वितीयः चतुर्थो वा चेत् तत्पूर्वः प्रथमः तृतीयो वा स्यात् । मुग्धः मुद्धो । खगः खग्गो। उत्पीतः उप्पीओ। सद्गमः सग्गमो । आप्तः अत्तो। वसिष्ठः वसिहो। स्नेहे वा ॥ ३८ ॥ अत्र युक्तस्य विप्रकर्षों वा स्यात्, पूर्वस्य अत्वं च । लेहः सणेहो हो। आदेर्यो जः ॥ ३९ ॥ शब्दस्य आदिभूतयकारस्य ज-आदेशः स्यात् । अधो म-न-याम् ॥ ४०॥ युक्तस्य अधःस्थितानामेषां लोप: स्यात् । योग्यः जोग्गो। ए शय्यादिषु ॥४१॥ एषु आदेः अकारस्य एत्वं स्यात् । उत्करः उक्केरो । शय्या सौन्दर्य उत्कर त्रयोदश आश्चर्य पर्यन्त बल्ली शय्यादिः । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कवि-विरचित मयूर-मयूख-योर्खा वा ॥ ४२ ॥ अनयोः यूशब्देन सह आदेः अत ओत्वं वा स्यात् मयूरः मोरो। मयूखः मोहो । पक्षे 'क-ग०' (१०) इति यलोपः, मऊरो मऊहो । आ समृयादिषु वा ॥ ४३ ॥ अविभक्तिको निर्देशः । 'सविसर्गः पाठः' इति केचित् । एषु आदेः अकारस्य आकारो वा स्यात् । समृद्धि प्रकट अभिजाति मनखिनी प्रतिपत् सदृक्ष प्रतिस्पर्द्धि प्रसुप्त प्रसिद्धि अश्व । आकृतिगणोऽयम् । __ शषोः सः॥४४॥ सर्वत्र शस्य षस्य च सः स्यात् । अश्वः आसो अस्सो। अदातो यथादिषु वा ॥ ४५ ॥ एषु आतः स्थाने वा अत् स्यात् । प्रहारः पहरो पहारो 'सर्वत्र' (३४) इति रलोपः । हालिकः हलिओ हालिओ। यथा तथा प्राकृत तालवृन्त उत्खात चामर प्रहार चाटु दावाग्नि खादित संस्थापित मृगाङ्क हालिक यथादिः। उद् इक्षु-वृश्चिकयोः॥ ४६ ॥ अनयोः इत उत् स्यात् । वृश्चिके छः॥४७॥ युक्तस्य स्यात् । वक्ष्यमाणश्च-त्स-प्सां छः' (१२४) इति च्छत्वापवादः। इद् ऋष्यादिषु ॥ ४८॥ एषु ऋकारस्य इत् स्यात् । वृश्चिकः विञ्छुओ। ऋषि वृषी गृष्टि सृष्टि दृष्टि शृङ्गार मृगाङ्क भृङ्ग भृङ्गार हृदय वितृष्ण बृंहित कृशरा कृत्या वृश्चिक कृपा शृगाल कृति कृत्ति कृषि ऋष्यादिः । शृङ्गारः सिंगारो । मृगाङ्क: मिअंको, यथादित्वाद् आत अः। भृङ्गः भिंगो । भृङ्गारः भिंगारो। ह्न-स्त्र-ष्ण-क्षण-श्नां ण्हः॥ ४९ ॥ एषां ण्हादेशः स्यात् । वितृष्णः वितिण्हो। शृगालः सिआलो। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द ईत सिंह-जिह्वयोश्च ॥ ५० ॥ अनयोः इत ईत् स्यात् । सिंहः सीहो । इद् ईतः पानीयादिषु ॥ ५१ ॥ एषु ईत इत् स्यात् । करीषः करिसो । पानीय अलीक वीडित व्यलीक गृहीत तदानीम् करीष द्वितीय तृतीय गभीर पानीयादिः । एत् नीडा-ऽऽपीड-कीडगीदृशेषु ॥ ५२ ॥ एषु ईत एत् स्यात् । आपीडे मः ॥ ५३ ॥ पस्य मः स्यात् । लोपं बाधित्वा प्राप्तस्य 'पो वः' (८५) इति वक्ष्यमाण-व-त्वस्यापवादः । आपीडः आमेलो। क्वचिद् युक्तस्यापि ॥ ५४॥ वर्णान्तरेण युक्तस्यापि ऋकारस्य कचिद् रिः स्यात् । 'क-ग' (१०) इति द-लोपः । कीदृशः केरिसो। ईदृशः एरिसो। . उत ओत् तुण्डरूपेषु ॥ ५५ ॥ संयुक्तवर्णपरोकारेषु उत ओत् स्यात् । क-स्क-क्षां क्खः ॥ ५६ ॥ एषां क्खादेशः स्यात् । पुष्करः पोक्खरो। स्तस्य थः ॥ ५७ ॥ स्यात् । 'उपरि लोप:०' (३६) इत्यस्यापवादः। पुस्तकः पोत्थओ। लुब्धकः लोओ।'उत ओत्' (५५) इत्यस्य प्रायिकत्वात् लुद्धओ। अत्र 'सर्वत्र' (३४) इति ब-वयोरैक्याद् लोपे शेषस्य धस्य 'शेषा' (३५) इति द्वित्वे दपूर्वो धकारः। अन्मुकुटादिषु ॥ ५८ ॥ एषु आदेः उतः अत् स्यात् । मुकुट मुकुल गुरु गुर्वी युधिष्ठिर सौकुमार्य मुकुटादिः । 'आदेखें जः' (३९) इति जः, 'उपरि०' (३६) इति षलोपः, 'शेषा' (३५) इति द्वित्वम् । ख-घ-थ-ध-भां हः ॥ ५९॥ एषां पश्चानामयुक्तानामनादिवर्तिनां हादेशः स्यात् । ... Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित रघुनाथ-कधि-विरचित हरिद्रादीनां रो लः॥६॥ एषामयुक्तस्य रेफस्य लादेशः स्यात् । युधिष्ठिरः जहिढिलो । हरिद्रा चरण मुखर युधिष्ठिर करुण अङ्गुरी अङ्गार किरात परिखा परिघ हरिद्रादिः । चरणः चलणो । मुखर मुहलो । अङ्गारः इंगालो, 'इद ईषत्' (२८) इति इत्वम् । किराते चः॥६१ ॥ अत्र आदेः चः स्यात् । ऋत्वादिषु तो दः ॥ ६२ ॥ एषु तस्य दः स्यात् । किरातः चिलादो। ऋतु रजत आगत निवृति आकृति संवृति सुकृति हत संयत विवृत सञ्जात सम्प्रति प्रतिपत्ति ऋत्वादिः। ___ परुष-परिघ-परिखासु फः ॥ ६३ ॥ एषु आदेः फः स्यात् । परुषः फरुसो । परिघः फलिहो । आगतः आअदो। हतः हदो । संयतः संजदो, 'आदेो जः' (३९) इति जः। सम उपसर्गत्वाद् यत इति यकारस्य आदिस्थत्वम् । इत् पुरुषे रोः ॥६४॥ अत्र रोः उत इत् स्यात् । पुरुषः पुरिसो। रोरिति किम् ? पकाराद् उकारस्य मा भूत् ।। अयुक्तस्य रिः ॥६५॥ वर्णान्तरेण अयुक्तस्य ऋकारस्य रिः इत्यादेशः स्यात् । ऋद्धः रिद्धी। वृक्षे वेन रुवा ॥ ६६ ॥ ___ वृक्षशब्दे वशब्देन सह ऋकारस्य रुः वा स्यात् । व्यवस्थितविभाषेयम् , तेन च्छत्वपक्षे न भवति, खत्वपक्षे तु स्यादेव । क्षमा-वृक्ष-क्षणेषु वा ॥ ६७॥ एषु क्षस्य वा च्छः । पक्षे 'ष्क-स्क०' (५६) इति खा, 'ऋतोऽत्' (१२०) इति वक्ष्यमाणेन अकारः । वृक्षः वच्छो रुक्खो। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द एत इद् वेदना-देवरयोः ॥ ६८ ॥ अनयोः आदेः एत इर्वा स्यात् । देवरः दिअरो देअरो, 'क-ग' (१०) इति वलोपः। ऐत एत् ॥ ६९ ॥ आदेः ऐतः ए: स्यात् । शैलः सेलो । कैलासः केलासो। दैत्यादिष्वइः ॥ ७० ॥ दैत्यादिषु ऐकारस्य अइः इत्यादेशः स्यात् ॥ त्य-थ्य-द्यां च्च-च्छ-जाः॥ ७१ ॥ त्रयाणां क्रमेण त्रयः स्युः। दैत्यः दइच्चो । चैत्रः चइत्तो, 'सर्वत्रः' (३४) इति रलोपः। भैरवः भइरवो । वैदेशः वइदेसो । वैदेहः वहदेहो। कैतवः कइअवो । वैशाखः वइसाहो, 'ख-घ०' (५९) इति हः। वैशिकः वइसिओ । वैशम्पायनः वइसंपाअणो । दैत्य चैत्र भैरव खैर वैर वैदेश वैदेह कैतव वैशाख वैशिक वैशम्पायन दैत्यादिः। ओतोऽद् वा प्रकोष्ठे कस्य वः ॥ ७२ ॥ प्रकोष्ठशब्दे ओतः अद् वा स्यात्, कस्य च वः स्यात् । प्रकोष्ठः पवट्ठो, 'सर्वत्रः' (३२) इति रलोपः, 'उपरि०' (३६) इति षलोपः, 'शेषा०' (३५) इति द्वित्वम् । पक्षे पओहो, 'क-ग' (१०) इति कलोपः। औत ओत् ॥ ७३ ॥ ... आदेः औकारस्य ओत् स्यात् । पौत्रः पोत्तो। पौरादिष्वउः ॥ ७४ ॥ एषु औकारस्य अउः इत्यादेशः स्यात् । ओत्वापवादः । पौरः पउरो। कौरवः कउरवो। कौशले वा ॥ ७५ ॥ कउसलो कोसलो । आकृतिगणोऽयम् । उत् सौन्दर्यादिषु ॥ ७६ ॥ एषु औकारस्य उत् स्यात् । मौञ्जायनः मुंजाअणो। शौण्डः सुंडो। कौक्षेयकः कुक्खेअओ, 'वर्गेषु०' (३१) इति कः, 'कग' (१०) इति य-कोर्लोपः । सौन्दर्य मौञ्जायन शौण्ड कौक्षेयक दौवारिकादयः सौन्दर्यादिः । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कवि-विरचित स्फटिक-चिकुर-निकषेषु कस्य हः ॥ ७७ ॥ एषु ककारस्य हादेशः स्यात् । 'कग' (१०) इति कलोपापवादः । स्फटिके लः ॥ ७८ ॥ अत्र टस्य लः स्यात् । 'टो डः' (८८) इति वक्ष्यमाणस्यापवादः। 'उपरि०' (३६) इति सलोपः, स्फटिकः फलिहो । चिकुरः चिहुरो । निकषः णिहसो, 'नो णः०' (९) इति णत्वम्, 'शषोः०' (४४) इति सः। सीकरे भः ॥ ७९ ॥ अत्र कस्य भः स्यात् । 'कग' (१०) इत्यस्यापवादः । सीकरः सीभरो। गर्भिते णः ॥ ८॥ तस्य णः स्यात् । गर्भितः गम्भिणो । वसति-भरतयोहः॥ ८१ ॥ अनयोः तस्य हः स्यात् । लोपापवादः । भरतः भरहो। ऐरावते च ॥ ८२ ॥ अत्र तस्य णः स्यात् । लोपापवादः । ऐरावतः एरावणो, 'ऐत एत्' (६९) इति एत् । प्रदीप्त-कदम्ब-दोहदेषु दोलः ॥ ८३॥ एषु अनादिभूतस्य दस्य लः स्यात् । कदम्बः कलंबो। दोहदः णोहलो। अनेति (अनादीति) किम् ? आद्यस्य मा भूत् । 'दोहदे णः' (९७) इति वक्ष्यमाणेन णः । गद्गदे रः॥ ८४ ॥ अत्र अयुक्तस्य दस्य रः स्यात् । 'उपरि०' (३६) इति दलोपः, गद्गदः गग्गरो। पो वः ॥ ८५॥ पस्य अयुक्तस्य अनादिभूतस्य वा स्यात् । शपथः सवहो, 'ख-घ' (५९) इति हः। ननु पस्य लोपोक्तः कथं पस्य वविधिः? इति चेत्, उच्यते, लोपविधौ ‘प्रायः' (सू० १०) इत्युक्तेः यत्र लोपाभावस्तत्रैव अस्य प्रवृत्तिः । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द उत्तरीया-ऽनीययोर्यस्य जो वा ॥ ८६ ॥ उत्तरीयशब्दस्य अनीयप्रत्ययस्य च यो यकारः तस्य जो वा स्यात् रमणीयः रमणिजो। कबन्धे बो मः ॥ ८७ ॥ अत्र बस्य मः स्यात् । लोपापवादः । कबन्धः कमंधो। टो डः ॥ ८८ ॥ टस्य अयुक्तस्य अनादिभूतस्य डः स्यात् । विटपः विडवो । सटा-शकट-कैटभेषु ढः॥ ८९ ॥ एषु टस्य ढः स्यात् । डापवादः । शकटं सअढो। _कैटभे वः ॥ ९ ॥ भस्य वः स्यात् । कैटभः केढवो, 'ऐत एत्' (६९) इति एत् । फो भः ॥ ९१ ॥ स्यात् । सफलः सभलो। प्रथम-शिथिल-निषधेषु ढः ॥ ९२ ॥ एषु थ-धयोः ढादेशः स्यात् । हापवादः । प्रथमः पढमो । शिथिल: सिढिलो । निषधः णिसढो। कुब्जेः खः ॥ ९३ ॥ अत्र आदेः वर्णस्य खादेशः स्यात् । कुनः खुज्जो। दोला-दण्ड-दशनेषु डः ॥ ९४ ॥ एषां आदेः डः स्यात् । दण्डः डंडो । दशनः डसणो। मन्मथे वः ॥ ९५ ॥ अत्र आदेः वः स्यात् । न्मो म्मः ॥ ९६ ॥ स्यात् । मन्मथः वम्महो, 'ख-घ' (५९) इति हः। दोहदे णः ॥ ९७ ॥ अत्र आदेः णः स्यात् । दोहदः णोहलो। लाहल-लाङ्गल-लाङ्गुलेषु वा णः॥ ९८ ॥ एतेषु शब्देषु आदेर्वर्णस्य णो वा स्यात् । लाहलः णाहलो। लाङ्गलः णांगलो। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित रघुनाथ - कवि - विरचित षटू - शावक - सप्तपर्णानां छः ॥ ९९ ॥ एषु आदेः छः स्यात् । षण्मुखः छम्मुहो । शावकः छावओ । सप्तपर्णः छत्तवण्णो, 'पो वः' (८५) इति वत्वम्, 'सर्वत्र ० ' ( ३४ ) इति रलोपः । १२ दशादिषु हः ॥ १०० ॥ एषु शस्य हः स्यात् । सङ्ख्यायां च ॥ १०१ ॥ सङ्ख्यावाचिशब्दसम्बन्धिदकारस्य रः स्यात् । एकादशः एआरहो । द्वादशः बारहो । त्रयोदशः तेरहो, शय्यादित्वाद् एत् । संज्ञायां वा ॥ १०२ ॥ संज्ञायां दशादेः शस्य हो वा स्यात् । दशमुखः दहमुहो दसमुहो । दशरथः दहरहो दसरहो । दिवसे सस्य ॥ १०३॥ हः स्याद् वा । दिवसः दिअहो दिअसो । द्वे रो वा ॥ १०४ ॥ द्रशब्दे रेफस्य लोपो वा स्यात् । इंद्रः इंदो इंद्रो । द्रुतः दुओ द्रुओ । सर्वज्ञतुल्येषु अस्य ॥ १०५ ॥ सर्वज्ञ इत्येवमाकृतिषु अस्य लोपः स्यात् । सर्वज्ञः सवज्जो | अत्र ज्ञे जकारञकारयोर्मध्ये कारलोपे 'शेषा०' (३५) इति द्वित्वम् । जानातेर्यानि सोपपदानि रूपाणि तत्रायं लोपः । मध्याह्ने हस्य ॥ १०६ ॥ लोपः स्यात् । वक्ष्यमाणोर्द्धस्थितेः (१०८) अपवादः ॥ ध्य-ह्योर्झः ॥ १०७ ॥ स्यात्। मध्याह्नः मज्झण्णो । ह्र-ह्र-ह्मेषु न-ल-मां स्थितिरूर्वम् ॥ १०८ ॥ एषु त्रिषु अधः स्थितानां नकार-लकार-मकाराणां त्रिभ्य उपरि स्थितिः स्यात् । प्रह्लादः पल्हादो । अत्र ग्रहणं चिन्त्यम्, 'ह्र- स्न-ष्ण०' (४९) इति ण्हादेशे नस्य स्वयमेव उपरिष्टाद् (१०६) भूतत्वात् कौस्तुभः कोत्थुहो, 'औत ओत्' (७३) 'स्तस्य थः' (५७) 'ख-घ०' (५९) इति हः । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द न स्तम्बे ॥१.९॥ स्तस्य थो न स्यात् । 'उपरि०' (३६) इति सलोपः । तः इति पाठान्तरम् । स्तम्बः तंबो। स्तम्भे खः ॥ ११० ॥ स्तस्य खः स्यात् । थापवादः । स्तम्भः खंभो। स्फोटके ॥ १११॥ अत्र युक्तस्य खः स्यात् । स्फोटकः खोडओ, 'टो ड' (८८) इति डः। र्य-शय्या-ऽभिमन्युषु जः॥ ११२ ॥ ____ यं इत्येतस्य शय्या-ऽभिमन्युशब्दयोश्च युक्तस्य जः स्यात् । कार्यः कजो। सूर्ये वा ॥ ११३॥ सूर्यशब्दे युक्तस्य र-जौ वा स्याताम् । न र-होः ॥ ११४ ॥ रेफ-हकारयोर्द्वित्वं न स्यात् । सूर्यः सूरो सुज्जो । तस्य टः ॥ ११५ ॥ स्पष्टम् । कैवतः केवट्टो, 'ऐत एत्' (६९) इति एत् । न धूर्त्तादिषु ॥ ११६ ॥ एषु तस्य टो न स्यात् । धूर्तः धुत्तो, 'सर्वत्र' (३४) इति रलोपः। आवतः आवत्तो । संवतः संवत्तो। निवर्तः णिवत्तो। आतः अत्तो। धूर्त कीर्ति वर्तमान वर्त्त आवर्त संवर्त निवर्त्त वर्तिका आर्त्त कर्तरी मूर्ति धूर्तीदिः। गर्ने डः ॥ ११७ ॥ तस्य डः स्यात् । गतः गड्डो। १ अन्रायमाशयः -- यथा “न स्तम्बे" इति सूत्रपाठो दृश्यते तथा प्रत्यन्तरेषु "तः स्तम्बे" इत्यपि सूत्रपाठो दृश्यत इति । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित रघुनाथ-कवि-विरचित अक्ष्यादिषु छः॥ ११८ ॥ एषु क्षस्य छः स्यात् । क्षुब्धः छुद्धो । उत्क्षिप्तः उच्छित्तो। 'उपरि०' (३६) इति पलोपः। सहक्षः सरिच्छो, 'क-ग०' (१०) इति दलोपः, ऋ रिः। ऋक्षः रिच्छो । अक्षि लक्ष्मी क्षुण्ण क्षीर क्षुब्ध उत्क्षिप्त सहक्ष इक्षु उक्षा क्षार ऋक्ष मक्षिका क्षुर क्षुत क्षेत्र वक्ष उदक्ष कुक्षि कक्षा रक्षा अक्ष्यादिः । क्षणः छणो खणो। . म-यक्ष्म-विस्मयेषु म्हः ॥ ११९ ॥ ष्म इत्यस्य यक्ष्म-विस्मययोश्च युक्तस्य म्हादेशः स्यात् । विस्मयः विम्हओ । स्नातः पहाओ, 'ह-ल० (४९) इति ण्हादेशः। ऋतोऽत् ॥ १२०॥ ऋत आदेः अत् स्यात् । कृष्णः कण्हो । प्रश्नः पण्हो। इत एत् पिण्डसमेषु ॥ १२१॥ एषु इकारस्य एत्वं स्यात् । समग्रहणं संयोगपरमुपलक्षयति । विश्नः वेण्हो। __ स्पस्य सर्वत्र स्थितस्य ॥ १२२ ॥ फः स्यात् । स्पन्दः फंदो। निस्पन्दः णिफंदो। बाष्पेऽश्रुणि हः ॥ १२३ ॥ बाष्पशब्दे ष्पस्य हः स्यात् , अश्रुणि वाच्ये । बाष्पः बाहो, 'न र-हो' (११४) इति द्वित्वनिषेधः । अश्रुणि किम् ? बाष्पः बाफो ऊष्मा, वक्ष्यमाणः 'पस्य फः' (२०६)। कार्षापणे ॥ १२४ ॥ युक्तस्य हादेशः स्यात् । कार्षापणः कहावणो, 'पो वः' (८५) इति वः। श्व-त्स-प्सां छः ॥ १२५ ॥ त्रयाणां छः स्यात् । पाश्चात्यः पच्छत्तो । वत्सः वच्छो । ईप्सितः इच्छिओ। नोत्सुकोत्सवयोः ॥ १२६ ॥ अनयोः त्सस्य छादेशो न स्यात् । उत्सुकः ऊसुओ । उत्सवः ऊसवो। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द म्न-ज्ञ-पञ्चाशत् पञ्चदशेषु णः ॥ १२७ ॥ न-ज्ञ इत्येतयोः पञ्चाशत्-पञ्चदशशब्दयोश्च युक्तस्य णः स्यात् । प्रद्युम्नः पज्जुण्णो, 'त्य ध्य०' (७१) इति ज्जः । यज्ञः जण्णो । भिन्दिपाले ण्डः ॥ १२८ ॥ १५ युक्तस्य ण्डः स्यात् । भिन्दिपाल: भिंडिवालो, 'पो वः' (८५) इति वः । विह्वले म्भ-हौ वा ॥ १२९ ॥ युक्तस्य एतौ वा स्याताम् । विह्वलः विंभलो विहलो । न बिन्दुपरे ॥ १३० ॥ अनुखारात् परस्य द्वित्वं न स्यात् । सङ्क्रान्तः संकंतो । समासे वा ॥ १३१ ॥ समासे शेषा-ssदेशयोर्वा द्वित्वं स्यात् । 'शेषा०' (३५) इत्यत्र 'अनादी' इत्युक्तेः अप्राप्तविभाषेयम्, अन्तर्वर्त्तिनीं विभक्तिमाश्रित्य पदादित्वात् । छायाग्रामः छायाग्गामो छाहागामो, 'छायायां ह: ' ( १६८) इति वक्ष्यमाणेन हः । सेवादिषु ॥ १३२ ॥ एषु अनादौ स्थितस्य हलो द्वित्वं वा स्यात् । निहितः णिहित्तो णिहिओ, 'न र-हो:' ( ११४ ) इति निषेधाद् न हस्य द्वित्वम् । तूष्णीकः तुहिक्को तुहिओ, 'ह-ल०' (४९) इति ण्हः । दुःखितः दुक्खिओ, पक्षे 'ख घ० ' (५९) इति हः, दुहिओ । द्वित्वपक्षे 'वर्गेषु' ( ३९ ) इति कः । विश्रामः वसामो विसामो । निःश्वासः णिस्सासो णीसासो । पुष्यः पुस्सी पूसो । सेवा एक नख दैव अशिव त्रैलोक्य निहित तूष्णीक कर्णिकार दीर्घरात्रि दुःखित अश्व ईश्वर विश्राम निःश्वास रश्मि मित्र पुष्य सेवादिः । उभयत्र विभाषेयम्, सेवादीनामप्राप्ते दीर्घादीनां 'शेषा०' (३५) इति प्राप्ते । कृष्णे वा ॥ १३३ ॥ अत्र युक्तस्य विप्रकर्षो वा स्यात्, पूर्वस्य तदचूकता च । कृष्णः किसणो कण्हो । व्यवस्थितविभाषेयम्, तेन वर्णवाचके विप्रकर्षः, भगवति न इति । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कविविरचित यावदादिषु वस्य ॥ १३४ ॥ __ लोपः। अनुवर्तमानः अणुअत्तमाणो। यावत् तावत् पारावत अनुवर्तमान जीवित एवं एव अवट देवकुल यावदादिः। आकृतिगणोऽयम् । सर्वः सबो। ___ सर्वादेर्जस एत्वम् ॥ १३५ ॥ स्पष्टम् । सर्वे सवे । सर्व सवं । सर्वान् सवा । सर्वेण सवेण । सर्वैः सवेहिं । सर्वस्मै सबस्स । सर्वेभ्यः सवाणं । सर्वस्मात् सवा सवादो सवादु सबाहि, 'ङसेः०' (२०) इत्यादेशाः। सर्वेभ्यः सबाहिंतो सवासुत्तो । सर्वस्य सवस्स । सर्वेषाम् सवाणं । स्सि-म्मि-त्थाः ॥ १३६ ॥ सर्वादेः परस्य : इति सप्तम्येकवचनस्य स्सि म्मि स्थ इति त्रय आदेशाः स्युः। सर्वस्मिन् सबस्सि सबम्मि सवत्थ । सर्वेषु सवेसु । विश्व: विस्सो। उभौ उहे । उभशब्दस्य द्विवचनान्तत्वाद् द्विवचनस्य बहुवचनादेशः। संस्कृते प्रसिद्धः सर्वादिः॥ शेषोऽदन्तवत् ॥ १३७ ॥ शेषस्तु विधिः अदन्तवत् स्यात् । तेन आकारान्तादपि 'अत ओत सोः' (८) इत्यादि विधिः प्रवर्त्तते । विश्वपाः विस्सवो इत्यादि । सु-भिसू-सुप्सु दीर्घः ॥ १३८ ॥ इदुदन्तयोः दीर्घः स्याद् एषु परेषु । 'अन्त्यस्य हलः' (२६) इति सोर्लोपः, अग्निः अग्गी । 'अधो०' (४०) इति न लोपः। जस ओश्च यूत्वम् ॥ १३९ ॥ इदुदन्तयोः परस्य जस ओ इत्यादेशः स्याद् णो च, पूर्वस्य ईकारोकारौ च स्याताम् । अग्नयः अग्गीओ अग्गीणो। पाठान्तरे तु __ जस ओ वो वाऽत्वं यूत्वं च ॥ १४० ॥ इदुदन्तयोः शब्दयोर्जसः ओ वो इत्येतावादेशौ स्याताम् , अत्वम् ईत्वम् ऊत्वं च विकल्पेन स्यात् णो च । पक्षे अदन्तवत् । अग्नयः अग्गीओ अग्गीवो अग्गीणो अग्गओ अग्गवो अग्गी। हे अग्ने हे अग्गि। अग्निं अग्गिं । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द इदुतोः शसो णो ॥ १४०० ॥ इदुदन्तयोः शसो णो स्यात् । अग्नीन् अग्गियो । टा णा ॥ १४१ ॥ इदुदन्तयोः टाया णा इत्यादेशः स्यात् । अग्निना अग्गिणा। न ङि-ङस्योरेदातौ ॥ १४२ ॥ इदुदन्तयोः परयोः डि-ङस्योः एत् आत् इत्येतौ न स्याताम् । अग्नेः अग्गीदो अग्गीदु अग्गीहि । ङि-ङस्योरिति किम् ? समृद्ध्या समिद्धीए समिद्धीआ। 'टा-ङसू-डीनाम्' (१६०) इति एत्-आतौ। ए भ्यसि ॥१४३ ॥ इदुदन्तयोः भ्यसि एत्वं न स्यात् । अग्निभ्यः अग्गीहितो अग्गीसुत्तो। ङसो वा ॥ १४४ ॥ - इदुदन्तयोः उसो णो वा स्यात् । पक्षे 'शेषो.' (१३७) इत्यतिदेशात् 'ङसः स्स' (१९) इति स्सः । अग्नेः अग्गीणो [अग्गिस्स]। अग्नीनाम् अग्गीणं । अग्नौ अग्गिम्मि । अग्निषु अग्गीसु । ऋषिः इसी, 'इद् ऋष्यादिषु' (४८) इति इत्वम् । . बृहस्पती ब-होर्भ-औ॥ १४५ ॥ अत्र बकार-हकारयोः क्रमेण भकाराकारौ स्याताम् । बृहस्पतिः भअप्पई, 'उपरि०' (३६) इति सलोपः, 'शेषा०' (३५) इति द्वित्वम्, 'क-ग' (१०) इति तलोपः, 'सु-भिस' (१३८) इति दीर्घः । गृहपतिः, गहवई, 'पो वः' (८५) इति वः ॥ द्विशब्दो नित्यं द्विवचनान्तः। द्वेर्दुवे दोणि वा ॥ १४६ ॥ द्विशब्दस्य जसा शसा च सह दुवे दोणि इत्येतावादेशौ स्याताम् । द्वौ दुवे दोणि। द्वेर्दो ॥ १४७ ॥ द्विशब्दस्य दो अयमादेशः स्यात् सुपि । द्वाभ्याम् दोहिं । द्वाभ्याम् दोहितो दोसुत्तो। एषामामो ण्हं ॥ १४८ ॥ द्वि-त्रि-चतुरामामो ण्हं इत्यादेशः स्यात् । णापवादः। द्वयोः दोण्हं। द्वयोः दोसु। त्रिशब्दो नित्यं बहुवचनान्तः। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कवि-विरचित तिण्णि जस-शस्भ्याम् ॥ १४९ ॥ जसा शसा च सह त्रिशब्दस्य तिणि इत्यादेशः स्यात् । त्रयः तिण्णि। त्रेस्ती ॥१५॥ त्रिशब्दस्य ती इत्यादेशः स्यात् सुपि । त्रिभिः तीहिं । त्रिभ्यः तीहितो तीसुत्तो। त्रयाणाम् तीण्हं त्रिषु तीसु । सखा सही । सखायः सहीओ सहीणो। हे सहि । सखायम् सहिं । सखीन् सहिणो इत्यादि। पतिः पई । 'इत एत्' (१२१) इति एत्, विष्णुः वेण्हू । जहुः जण्हू । इक्षुः उच्छ्, 'उद् इक्षु०' (४६) इति उत्वम्, अक्ष्यादित्वात् छः । ऋतुः उदू, 'उद् ऋत्वादिषु' (२९) इति उत्वम्, 'ऋत्वादिषु' (६२) इति दः। स्थाणावहरे ॥ १५१ ॥ युक्तस्य खादेशः स्यात्, न तु हरे अभिधेये । स्थाणुः खाणू । हरवाचके तु थाणू, 'उपरि०' (३६) इति सलोपः, विष्णुवत् । 'य-शय्या' (११२) इति जा, अभिमन्युः अहिमज्जु । करेणुः सूर्यः करेणू सुज्जो। ऋत आरः सुपि ॥ १५२ ॥ ऋकारस्य आरः स्यात् सुपि । भर्ता भत्तारो॥ उर्जस्-शस्-टा-ङस्-सुप्सु वा ॥ १५३ ॥ जसि शसि टायां उसि सुपि च ऋकारस्य स्थाने उर्वा स्यात् । आरापवादः। भर्तारः भत्तारा भत्तूओ भत्तुणो, 'जस ओ०' (१३९) इति ओत्वं णो च । हे भर्तः हे भत्तारा । भर्तृन् भत्तुणो, 'इदुतोः०' (१४०) इति णो । भर्ना भत्तुणा भत्तारेण । भर्तृभिः भत्तारेहिं । भर्तुः भत्तुस्स भत्तारस्स । भर्तृणां भत्ताराणं । भर्तरि भत्तारम्मि । भर्तृषु भत्तुसु भत्तारेसु। पितृ-भ्रातृ-जामातृणामरः॥ १५४ ॥ एषाम् ऋत अरः स्यात् सुपि । आरापवादः। आच सौ ॥१५५ ॥ पित्रादीनाम् आत स्यात् सौ परे। पिता पिआ पिअरो इत्यादि । भ्राता भाआ भाअरो। जामाता जामाआ जामाअरो इत्यादि। इत्यजन्ताः पुंल्लिङ्गाः ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द पृष्ठा-ऽक्षि प्रश्नाः स्त्रियां वा ॥ १५६ ॥ पक्षे यथालिङ्गम् । प्रश्नः पण्हा । शय्या सेजा, “ए शय्यादिषु' (४१) इति एत्वम् , 'र्य शय्या०' (११२) इति जः। जसो वा ॥ १५७ ॥ स्त्रियां तिष्ठतो जस उ ओ इत्येतावादेशौ वा स्याताम् । शय्याः सेज्जाउ सेजाओ सेजा। अमि हखः॥ १५८ ॥ स्त्रीवाचकस्य हवः स्याद् अमि परे । शय्याम् सेजं । स्त्रियां शस उदोतौ ॥ १५९ ॥ स्त्रीलिङ्गे वर्तमानस्य शस उत् ओत् इत्येतावादेशौ स्याताम्।शय्याः सेज्जाउ सेजाओ। टा-ङस्-डीनामिदेददातः॥ १६० ॥ स्त्रीवाचकात् परेषां टा उस ङि इत्येतेषां इत् एत् अत् आत् एते आदेशाः स्युः । इति चतुर्ध्वपि प्राप्तेषु - नाऽऽतोऽदातौ ॥ १६१ ॥ स्त्रीवाचकादाकारान्तात् शब्दात् परेषां टा-ङसू-ङीनाम् अत्-आतौ न स्याताम् । शय्यया सेज्जाइ सेज्जाए। शय्याभिः सेजाहिं। शय्यायाः सेना सेजादो सेज्जादु सेजाहि । शय्याभ्यः सेजाहिंतो सेजासुत्तो। ङसो वा ॥ १६२ ॥ उसःस्त्रियाम् उ ओ इत्येतावादेशौ वा स्याताम् । शय्यायाः सेन्जाउ सेन्जाओ सेजस्स (?) सेन्जाइ सेज्जाए। शय्यानाम् सेज्जाणं । शय्यायाम् सेन्जाइ सेजाए । शय्यासु सेज्जासु। स्त्रियामात एत् ॥ १६३ ॥ सम्बुद्धौ स्त्रियाम् आत एत्वं स्यात् सौ। हे शय्ये हे सेज्जे, 'अन्त्यस्य.' (२६) इति सोर्लोपः। लवण-नवमल्लिकयोर्वेन ॥ १६४ ॥ लवण-नवमल्लिकयोः आदेः अतो वकारेण सह ओकारः स्यात् । नवमल्लिका णोमल्लिआ । मल्लिका इत्येतदुपलक्षणम् , तेन नवफलिका Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ -कवि-विरचित णोभलिआ इति सिद्धम् । निद्रा णेद्दा णेद्रा, 'द्रे रो वा' (१०४) इति वा रलोपः, 'इत एत्' (१२१) इति एत्वम् । हे णेद्दे इत्यादि। अत् पथि-हरिद्रा-पृथिवीषु ॥ १६५ ॥ एषु इतो अत् स्यात् । हरिद्रा हलद्दा हलद्रा, 'हरिद्रादीनां' (६०) इति रेफस्य लः । जिह्वा जीहा, 'ईत् सिंह' (५०) इति ईत्वम्, "सर्वत्र ” (३४) इति वलोपः। मुक्ता मोत्ता, 'उत ओत्' (५६) इति ओत्वम् । घृणा घणा, 'ऋतोऽत्' (१२०) इति अत् । कृशरा किसरा । कृत्या किच्चा, 'त्य-थ्य' (७१) इति चः। कृपा किवा, ‘पो वः' (८५) इति वः। त्रिष्वपि 'ऋतोऽत्' (१२०) इति अत्वे प्राप्ते ऋष्यादित्वाद् इत्वम् । वेदना विअणा वेअणा, 'क-ग' (१०) इति दलोपः, 'नो णः' (९) इति णः । यमुनाया मस्य ॥ १६६ ॥ लोपः स्यात् । यमुना जउणा, 'आदेर्यो जा' (३९) इति जः । चन्द्रिकायां मः॥ १६७ ॥ कस्य मः स्यात् । चन्द्रिका चन्दिमा, 'सर्वत्र' (३४) इति रलोपः। पताका पडाआ, 'प्रतिसर०' (३३) इति तस्य डः, 'क-ग' (१०) इति कलोपः। छायायां हः ॥ १६८ ॥ यस्य हः स्यात् छाया छाहा । रमणीया रमणिजा, 'उत्तरीया' (८६) इति जः, 'शेषादेशः' (३५) इति द्वित्वम् । सटा सढा । राधा राहा । सभा सहा । शोभा सोहा । परिखा फलिहा, हरिद्रादित्वाद् ला, 'परुष' (६३) इति फा, 'ख-घ०' (५९) इति हः । दोला डोला, 'दोला-दण्ड०' (९४) इति डः। निशा णिसा। स्नुषायां ग्रहः ॥ १६९ ॥ षस्य ण्हः स्यात् । स्नुषा सोण्हा, तुण्डरूपत्वाद् उत ओत्वम् । उल्का उक्का, 'सर्वत्र' (३४) इति ललोपः। वार्ता वत्ता, 'तस्य टः' (११५) इति प्राप्ते धूर्तादित्वान्न । वर्तिका वत्तिआ, पूर्ववत् । सन्ध्या संझा, 'ध्य-ह्योझः' (१०७) इति झः । सत्या सचा, 'त्य-थ्य' (७१) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ प्राकृतानन्द इति चः। मिथ्या मिच्छा । विद्या विजा । क्षुणा छुणा । उक्षा उच्छा । मक्षिका मच्छिआ। कक्षा कच्छा। रक्षा रच्छा। पञ्चवपि अक्ष्यादित्वात् छः 'वर्गेषु०' (३७) इति चः। क्षमा छमा खमा, 'क्षमा-वृक्ष' (६७) इति छत्ववैकल्प्यात् पक्षे 'ष्क-स्क०' (५६) इति खः । "श्च-त्स-प्सा च्छः' (१२३) पश्चिमा पच्छिमा। विवत्सा विइच्छा (?)। लिप्सा लिच्छा। जुगुप्सा जुउच्छा, 'प्रायः' (१०) इत्युक्तेर्लोपाभावपक्षे जुगुच्छा । मूच्छों मुच्छा, “वर्गेषु०” (३७) इति चः। आङो ज्ञादेशस्य ॥ १७ ॥ 'न-ज्ञ०' (१२७) इति जातो यो णादेशः तस्य आङः परस्य द्वित्वं न स्यात् । आज्ञा आणा। सेवा सेव्वा सेवा, 'सेवादिषु' (१३२) इति द्वित्वम्। क्लिष्ट-श्लिष्ट-रत्न-क्रिया-शाङ्गेषु तत्स्वरवत् पूर्वस्य ॥ १७१ ॥ एषु युक्तस्य विप्रकर्षः स्यात् । विप्रकर्षितव्यस्य विप्रकर्षे जाते यः पूर्वो वर्णो निरर्थकस्तस्य विप्रकर्षितव्यस्वरता स्यात् । क्रिया किरिआ। अः क्ष्मा-श्लाघयोः ॥ १७२ ॥ युक्तस्य विप्रकर्षः स्यात्, पूर्वस्याकारः तत्स्वरता च । क्षमा खमा । विप्रकर्षितव्यस्य दीर्घत्वादीर्घत्वे प्राप्त हखो अकारो विधीयते । 'ष्क स्क०' (५६) इति खः । श्लाघा सलाहा, 'श-षोः०' (४४) इति सः, 'ख-घ.' (५९) इति हः। ज्यायामीत् ॥ १७३ ॥ ___युक्तस्य विप्रकर्षः स्यात्, पूर्वस्य ईकारः।ज्या जीआ अत्राप्याकारे प्राप्ते ईकारो विधीयते । ज्येत्यत्र विप्रकर्षकरणात् पूर्वम् 'अधो म-न-याम्' (४०) इति यलोपः, ततो घचेत् ‘कग०' (१०) इति । माला माला। शाला साला। आदीतौ बहुलम् ॥ १७४ ॥ स्त्रियामकारान्तादातः स्थाने आत् ईत् इत्येतौ बहुलं स्तः। सहमाना सहमाणा सहमाणी । वेपमाना वेवमाणा वेवमाणी । हरिद्रा हलद्रा(हा) हलद्दी । सूर्पनखा सुप्पणहा सुप्पणही । छाया छाहा छाही । का की। जा जी। ता ती। प्रश्नः पण्ही । समृद्धिः समिद्धी सामिद्धी, 'आ समृद्ध्या०' (४३) इति वा आकारः, ऋष्यादित्वाद् इः, 'सु-भिसू०' (१३८) इति दीर्घः । अभिजातिः आहिआई अहिआई, 'ख-ग' (५९) इति हः, 'कग०' (१०) इति जलोपः। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कवि-विरचित, ष्टस्य ठः ॥ १७५ ॥ ष्ट इत्यस्य ठकारः स्यात् । गृष्टिः गिट्ठी । दृष्टिः दिट्ठी । सृष्टिः सिट्ठी। चतुर्वपि ऋष्यादित्वाद् इत्वम् । आकृतिः आइदी; ऋष्यादित्वाद् इ., आउदी, ऋत्वादित्वाद् उः। सुकृतिः सुइदी, ऋष्यादौ कृतिशब्दपाठात् । संवृतिः संवुदी । प्रतिपत्तिः पदिवत्ती, 'प्रतिसर०' (३३) इति तु न, ऋत्वादिपाठेन बाधात् । वसतिः वसही, 'वसति-भरत०' (८१) इति हः। यष्टयां लः॥ १७६ ॥ ' आदेलः स्यात् । 'आदेखें जः' (३९) इति जापवादः । यष्टिः लट्ठी। कीर्तिः कित्ती, 'तस्य टः' (११५) इति टे प्राप्ते धूर्तादित्वाद् न । मूर्तिः मुत्ती । वितर्दिः विअड्डी । विच्छर्दिः विच्छड्डी । उभयत्रापि 'गर्दभ०' (१) इति डः, 'शेषा-ऽऽदेश' (३५) इति द्वित्वम् । कुक्षिः कुच्छी, अक्ष्यादित्वात् छः। स्थितिः थिई। मनस्विनी मणंसिणी, समृद्ध्यादित्वाद् वा आकारः, वक्रादित्वादनुखारः। ईदूतोहखः॥ १७७ ॥ .. सम्बुद्धौ । [हे मनखिनि] हे माणंसिणि । मनखिनीम् माणंसिणिं, 'अमि हसः' (१५८) इति हखः । वल्ली वेल्ली, शय्यादित्वाद् एकारः । - चतुर्थी-चतुर्दश्योस्तुना ॥ १७८ ॥ अनयोस्तुशब्देन सह आदेः अतः ओत्वं वा स्यात् । चतुर्थी चोत्थी चउत्थी । चतुर्दशी चोदही चउद्दही । 'दशादिषु०' (१००) इति हः । पृथिवी पुहवी, ऋत्वादित्वाद् उः, 'अत् पथि०' (१६५) इति । उः पद्म-तन्वीसमेषु ॥ १७९ ॥ . - पद्मशब्दे तन्वी इत्येवंरूपेषु च युक्तस्य विप्रकर्षः स्यात्, पूर्वस्य उकारः । गुर्वी गरुई, मुकुटादित्वाद् अः। शफरी सभरी, 'श-षोः सः' (४४) 'फो भः' (९१) । अङ्गुरी अङ्गुली, "हरिद्रादीनां०' (६०) इति रेफस्य लः। बिसिन्यां भः ॥ १८० ॥ आदेः। बिसिनी भिसिणी । स्त्रीलिङ्गनिर्देशः किम् ? बिसं । षष्ठी छट्ठी, 'षट्-शावक०' (९९) इति छः । सप्तमी सत्तमी । कर्तरी कत्तरी, "तस्य टः"(११५) इति प्राप्ते धूर्त्तादित्वाद् न । लक्ष्मी लच्छी, अक्ष्या दित्वात् छः। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्मस्य ॥ १८९ ॥ पः स्यात् । रुक्मिणी रुप्पिणी । श्रीः सिरी । हीः हिरी, 'इ: श्री - ही ० ' (३२) इति विप्रकर्ष - यौ । लघ्वी लहुई, 'ख घ०' (५९) इति हः, 'उः पद्म०' (१७९) इति विप्रकर्षः । तन्वी तणुई । नदी नई । हे नइ । पृष्ठं पुट्ठी । अक्षि अच्छी । वधूः वहू । हे वहु इत्यादि । इत्यादि । प्राकृतानन्द मातुरात् ॥ १८२ ॥ मातृशब्दसम्बन्धिन ऋकारस्य आत् स्यात् । माता माआ । हे माए ॥ इति अजन्ताः स्त्रीलिङ्गाः ॥ लोपोऽरण्ये ॥ १८३॥ सोर्बिन्दुर्नपुंसके ॥ १८४ ॥ नपुंसके तिष्ठतः सोः अनुखारः स्यात् । अरण्यं रण्णं । इज्ज - शसोर्दीर्घव ॥ १८५ ॥ आदेरतः । २३ नपुंसके वर्त्तमानयोः जस्-शसोः इदादेशः स्यात्, पूर्वस्य दीर्घ । अरण्यानि रण्णाई । अरण्यं रण्णं । अरण्यानि रण्णाई । अरण्येन रण्णेण । पुंवत् । हे अरण्य हे रण्ण, 'नाऽऽमन्त्रणे ० ' (२५) इति निषेधाद् बिन्दुर्न, किन्तु 'अन्त्यस्य ० ' (२६) इति सोर्लोपः । ओ बदरे देन ॥ १८६॥ अत्र दकारेण सह आदेरत ओत्वं स्यात् । बदरं बोरं इत्यादि । उदूखले द्वा वा ॥ १८७ ॥ अत्र दूशब्देन सह आदेः ओद् वा स्यात् । उदूखलं ओखलं उदूहलं । उलूहले ल्वा वा ॥ १८७ ॥ उलूहलशब्दे लू शब्देन सह आदेः उकारस्य ओकारो वा स्यात् । उलूहलंओहलं । इति पाठान्तरम् । उतो मधूके ॥ १८८ ॥ अत्र मधूकशब्दे ऊकारस्य उत् स्यात् । मधूकं महुअं । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कवि-विरचित अद् दुकूले वा लस्य द्वित्वम् ॥ १८९ ॥ दुकूलशब्दे ऊकारस्य अकारो वा स्यात्, तत्सन्नियोगेन च लस्य द्वित्वम् । दुकुलं दुअल्लं दुऊलं। एन्नूपुरे ॥ १९० ॥ नूपुरशब्दे ऊकारस्य एत् स्यात् । अत्र 'आदेः' इति प्रयोजनाभावाद् नानुवर्तते । नूपुरं णेउरं । ऋणं रिणं, 'ऋ रि:' (?) इति रि । हृदयं हिअयं, ऋष्यादित्वाद् इः। वृन्दावनं बुंदावणं, 'ऋतोऽत्' (१२०) इति प्राप्ते ऋत्वादित्वाद् उः। लतः क्लुप्त इलि ॥ १९१ ॥ क्लप्तशब्दे लकारस्य इलिः स्यात् । क्लुप्तं किलित्तं । त्रैलोक्यं तेल्लोक, 'ऐत् एत्' (६९) इति एत्, सेवादित्वात् द्वित्वम् , द्वित्ववैकल्प्यात् पक्षे तेलोकं । शैत्यं सेत्तं । खैरं सइरं। वैरं वइरं। द्वयोरप्यैकारस्य 'दैत्यादिषु०' (६८) इति अइः। दैवे वा ॥ १९२॥ दैवशब्दे ऐकारस्य अइरित्यादेशो वा स्यात् । नीडादिषु च ॥ १९३ ॥ एषु अनादौ तिष्ठतो हलो वा द्वित्वम् । दैवं देवं देवं दइवं । नीड स्रोत प्रेम व्याहृत जनक यौवन दैव इत्यादयः नीडादिः। __ इत् सैन्धवे ॥ १९४ ॥ अत्र एकारस्य इकारः स्यात् । एत्वापवादः । सैन्धवं सिन्धवं । ईद धैर्ये ॥ १९५ ॥ अत्र एकारस्य ईत् स्यात् । एत्वापवादः। तूर्य-धैर्य-सौन्दर्या-ऽऽश्चर्य-पर्यन्तेषु ः॥ १९६ ॥ एषु यस्य रः । धैर्य धीरं । तूर्य तूरं । सौन्दर्य सुन्दरं, 'उत् सौन्दर्यादिषु' (७६) इति उः। आश्चर्य अच्छेरं, 'श्व-त्स.' (१२५) इति छः। पर्यन्तं पेरंतं । त्रिष्वपि शय्यादित्वाद् एत्वम् । यौवनं जोवणं, 'औत ओत्' (७३) इति ओत्, 'आदेर्यो जः' (३९) इति जः, नीडादित्वात् द्वित्वम् , 'नो ण:०' (९) इति णः। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201८1f "आच गौरवे ॥ १९७ ॥ गौरवशब्दे आ अउ ओ इत्येते स्युः। गौरवं गारवं गउरवं गोरवं इत्यादि । गर्भितं गम्भिणं, 'गर्भिते णः' (८०) इति णः। डस्य च ॥ १९८ ॥ डकारस्यायुक्तस्य अनादिभूतस्य लः स्यात् । दाडिमं दालिमं । 'प्रायः' इत्यनुवृत्तेः कचिद् दाडिमं इत्यपि । ठो ढः ॥ १९९ ॥ अयुक्तस्य अनादिभूतस्य ठस्य ढः स्यात् । जठरं जढरं । कठोरं कढोरं। __अंकोठे लः॥ २०॥ अत्र ठस्य ल्लः स्यात् । अंकोठं अंकोल्लं । सफलं सभलं, 'फो भः' (९१) इति भः। सुखं सुहं, 'ख-ग' (५९) इति हः । करुणं कलुणं, हरिद्रादित्वाद् रेफस्य लः। श्मश्रु-श्मशानयोरादेः ॥ २०१॥ अनयोरादेर्वर्णस्य लोपः स्यात् । श्मशानं मसाणं । चौर्यसमेषु रिअं ॥ २०२ ॥ एषु यस्य रिअं इत्यादेशः स्यात् । चौर्य चोरिअं । शौर्य सोरिअं। 'औत ओत् (७३) इति ओत् । वीर्य वीरिअं। पर्यस्त-पर्याण-सौकुमार्येषु लः ॥ २०३ ॥ . एषु यस्य ल्लः स्यात् । पर्यस्तं पल्लत्थं, 'स्तस्य थ' (५७) इति था, 'शेषादेश' (३५) इति द्वित्वम् । पर्याणं पल्लाणं । सौकुमार्य सोअमल्लं, मुकुटादित्वाद् अ। पत्तने ॥ २०४॥ युक्तस्य दः । पत्तनं पट्टणं । क्षीरं छीरं, अक्ष्यादित्वात् छः । श्लक्ष्णं सण्हं । तीक्ष्णं तिण्हं । 'ह-ल.' (४९) इति बहादेशः। चिह्ने धः॥ २०५॥ युक्तस्य धः स्यात् । ण्हापवादः । चिहं चिन्धं, प्रायिकमेतत् , चिण्हं । ष्पस्य फः ॥ २०६॥ स्पष्टम् । पुष्पं पुष्पं । शष्पं सफं। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कवि-विरचित तालवृन्ते ण्ठः ॥ २०७॥ युक्तस्य ण्ठः स्यात् । तालवृन्तकं तालवेण्ठ तलवेण्ठअं। आम्र-ताम्रयोर्बः ॥ २०८ ॥ अनयोरनादेः वः स्यात् । आनं अंबं । तानं तंबं । क्लिष्टं किंलिहूं। रत्नं रअणं । 'क्लिष्ट-श्लिष्ट' (१७१) इति विप्रकर्षः तत्स्वरता च । उदुम्बरे दोर्लोपः ॥ २०९ ॥ अत्र दु इत्यस्य लोपः स्यात् । उदुम्बरं उंबरं । __ कालायसे यस्य वा ॥ २१०॥ अत्र यस्य वा लोप: स्यात् । य इति विशिष्टग्रहणम् । कालायसं कालासं कालाअसं, लोपाभावपक्षे 'क-ग' (१०) इति यकारमात्रलोपः। मलिने लिनोरिलौ वा ॥ २११ ॥ मलिनशब्दे लि इत्यस्य इ. स्यात्, न इत्यस्य लः स्याद् वा । मलिनं मइलं मलिणं। - गृहे घरोऽपतौ ॥ २१२ ॥ गृहशब्दस्य घर इत्ययमादेशः स्यात्, न तु पतौ परे । गृहं घरं । अपताविति किम् ? गृहपतिः गहवई । पीतं पी। धनं धणं । वृन्दे वो रः ॥ २१३ ॥ वृन्देशब्दे वात् परः स्वार्थे रो वा स्यात् । बंदं वंदं । . आलाने न-लोः॥ २१४ ॥ अत्र नकार-लकारयोः स्थितिपरिवृत्तिः स्यात् । आलानं आणालं । दाढादयो बहुलम् ॥ २१५ ॥ दाढा इत्यादयः शब्दाः बहुलं निपात्यन्ते । चातुर्य चाउलिअं । पृष्टं पुढें । इदानीं एहि । दुहिता दिद्धी। मण्डूकः मण्ड्ररो। कमलं कंदोहो। गोदावरी गोला । ललाटं लडालं णिडालं। आकृतिगणोऽयम् । 'सु-भिसू०' (१३८) इति दीर्घ प्राप्ते न नपुंसके ॥ २१६ ॥ क्लीवे प्रथमैकवचने दी? न । वारि वारिं । वारीणि वारीइं । पुनस्तद्वत् । शेषं पुंषत् । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द अस्थिनि ॥ २१७ ॥ युक्तस्य ठः स्यात् । अस्थि अहिं । सक्थि सत्थिं । अक्षि अच्छि । गुरु गरअं, मुकुटादित्वाद् अ । श्मश्रुः मंसू, 'श्मश्रु-श्मशानयोः०' (२०१) इति शकारलोपः अश्रु अंसू, वक्रादित्वाद् अनुस्वारः। मधु महुं। ॥ इत्यजन्ता नपुंसकलिङ्गाः ॥ अनड्वान् अणडुओ, विष्णुवत् । चतुशब्दो नित्यं बहुवचनान्तः । चतुरश्चत्तारो चत्तारि ॥ २१८ ॥ चतुःशब्दस्य जसा शसा च सह एतावादेशौ स्याताम् । चत्वारः चत्तारो चत्तारि । चतुरः चत्तारो चत्तारि । चतुर्भिः चऊहिं । चतुर्व्यः चऊहिंतो चऊसुत्तो। चतुर्णा चउण्हं । चतुर्यु चऊसु। किमः कः ॥२१९॥ स्पष्टम् । कः को । के के, 'सर्वादेः' (१३५) इति एत्वम् । इदम्-एतत्-कि-यत्-तद्यष्टा इणा वा ॥ २२० ॥ एभ्यः परः टा इणा इति वा स्यात् । केन कइणा केण । - त्तो दो ङसेः॥ २२१ ॥ किं-यत-तद्ब्रयो उसेः त्तो दो इत्येतावादेशौ वा स्याताम् । कस्मात् कत्तो कदो का कादो कादु काहि । केभ्यः काहिंतो कासुत्तो। किं-यत्-तद्भयो ङस आसः ॥ २२२ ॥ एभ्यः परस्य ङस आस इत्यादेशो वा स्यात् । कस्य कास कस्स । आम एसिं ॥ २२३ ॥ इदम् एतत्-कि-यत्-तद्भ्यः परस्य आम एसिं इत्यादेशो वा स्यात् । केषां केसि काणं। डेहि ॥ २२४ ॥ किं-यत्-तट्यो ः सप्तम्येकवचनस्य हिं इत्यादेशो वा स्यात् । कस्मिन् कहिं कस्सि कम्मि कत्थ । ___ आहे इआ काले ॥ २२५ ॥ किं-यत्-तद्व्यः परस्य : काले वाच्ये आहे इआ इत्येतावादेशौ वा स्याताम् । कदा काहे कइआ कहिं कस्सि कम्मि कत्थ । केषु केसु। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित रघुनाथ-कवि-विरचित इदम इमः ॥ २२६ ॥ इदम्शब्दस्य इम इत्यादेशः स्यात् सुपि । अयं इमो । इमे इमे । इमं इमं । इमान् इमा। अनेन इमेण इमिणा, 'इदमेतत्' (२२०) इति इणादेशः। एभिः इमेहिं । अस्मात् इमादो इमादु इमाहि । एभ्यः इमाहिंतो इमासुत्तो। स्स-स्सिमोर वा ॥ २२७ ॥ इदम्शब्दस्य अ इत्यादेशो वा स्यात् स्से स्सिमि च । अस्य अस्स इमस्स । एषां इमेसिं इमाणं । ङेदन हः ॥ २२८ ॥ इदम्शब्दस्य दकारेण : ह इत्यादेशो वा स्यात् । पक्षे यथाप्राप्तम् । न त्थः ॥ २२९ ॥ इदमः परस्य : त्थ इत्यादेशो न स्यात् । अस्मिन् अस्सि इमस्सि इह इमम्मि । एषु इमेसु । राज्ञश्च ॥ २३०॥ राजन्शब्दस्य आ इत्ययमादेशः स्यात् सौ । राजा राआ, 'अन्त्यस्य' (२६) इति सोर्लोपः। जस्-शसू-ङसो णो ॥ २३१ ॥ राज्ञः परेषामेषां णो इत्यादेशः स्यात् । आ णो-णमोरङसि ॥ २३२ ॥ णो-णमोः परयोः राज्ञो जस्य आ स्यात् । राजानः राआणो। आमन्त्रणे वा बिन्दुः॥ २३३ ॥ राजनशब्दस्यामन्त्रणेऽनुखारो वा स्यात् सौ। हे राजन् हे राअं हे राअ । राजानं राअं। शेषो०' (१३७) इति अदन्तवद्भावः । शस एत् ॥ २३४॥ राज्ञः परस्य शस ए इत्यादेशः स्यात् । राज्ञः राए राआणो । टा णा ॥ २३५॥ राज्ञः परस्य तृतीयैकवचनस्य णा इत्यादेशः स्यात् । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द ङसश्च द्वित्वं वाऽन्त्यलोपश्च ॥ २३६ ॥ राज्ञः परस्य सादेशस्य टादेशस्य च द्वित्वं वा स्यात् अन्त्यस्य च लोपः। राज्ञा रण्णा । पक्षे इदद्वित्वे ॥ २३७ ॥ उसादेशस्य टादेशस्य च द्वित्वाभावपक्षे राज्ञ इत्वं स्यात् । राइणा। राजभिः राएहिं 'शेषो०' (१३७) इत्यदन्तवद्भावः । राज्ञः राआ राआदो राआदु राआहि । राजभ्यः राआहिंतो राआसुत्तो। राज्ञः रण्णो राइणो। आमो णं ॥ २३८॥ राज्ञ उत्तरस्य आमः णं इत्यादेशः स्यात् । राज्ञां राआणं । राज्ञि राअम्मि राए । राजसु राएसु । आत्मनो अप्पाणो वा ॥ २३९ ॥ आत्मनः अप्पाण इत्ययमादेशो वा स्यात् । इत्व-द्वित्ववर्ज राजवदनादेशे ॥ २४० ॥ आत्मनः अनादेशे राजवत् कार्य स्यात्, [इत्व-द्वित्वे वर्जयित्वा]। आत्मा अप्पाणो अप्पा । 'राज्ञश्च' (२३०) इति आकार उक्तः सोऽनापि स्यात्। आत्मनः अप्पाणो। आत्मानं अप्पं । आत्मनः अप्पणो । आत्मना अप्पणा । आत्मभिः अप्पेहिं । आत्मनः अप्पा अप्पादो अप्पादु अप्पाहि । आत्मभ्यः अप्पाहिंतो अप्पासुत्तो। आत्मनः अप्पणो। आत्मनां अप्पाणं । आत्मभिः (त्मनि?) अप्पे अप्पम्मि । आत्मसु अप्पेसु। ब्रह्माद्या आत्मवत् ॥ २४१ ॥ ब्रह्मन् युवन् इत्यादयः शब्दाः आत्मवत् साधवः स्युः। ब्रह्मा बह्मा बह्माणो । युवा जुवा जुवाणो । अध्वा अद्धा अद्धाणो । एवमादयो लक्ष्यानुसारतो ज्ञेयाः। _न-सान्त-प्रावृट-शरदः पुंसि ॥ २४२ ॥ नश्च सश्च न-सौ अन्ते यस्य इति विग्रहः । एते पुंसि प्रयोक्तव्याः । कर्म कम्मो । जन्म जम्मो । चर्म चम्मो । आत्मयुक अप्पजू । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कषि-विरचित तदेतदोः सः सावनपुंसके ॥ २४३ ॥ अनयोर्यः तकारः तस्य सकारः स्यात् सौ । सः सो। ते ते । तं तं । तान् ता । तेन तहणा तेण । तैः तेहिं । तद ओश्च ॥ २४४ ॥ तदः परस्य उसेः ओ इत्ययमादेशो वा स्यात् । तस्मात् तओ तत्तो तदो तादो तादु ताहि । तेभ्यः ताहिंतो तासुत्तो। ङसा से ॥ २४५॥ तदो ङसा सह से इत्यादेशो वा स्यात् । तस्य से तास तस्स । आमि सिं ॥ २४६॥ तद आमा सह सिं इत्यादेशो वा स्यात् । तेषां सिं तेसिं ताणं । तस्मिन् तहिं तस्सिं तम्मि तत्थ। तदा तहे तइआ । तेषु तेसु। एवं यः जो। एतदः सावोत्वं वा ॥ २४७ ॥ एतद ओत्वं वा स्यात् सौ। एषः एसो एस, नित्यप्राप्तविभाषेयम् । एते एते । एतं एतं । एतान् एता । एतेन एदिणा एदेण । एतैः एदेहिं। _ तो उसेः ॥ २४८ ॥ एतदः परस्य ङसेः त्तो इत्ययमादेशो वा स्यात् । - त्तो-त्थयोस्तो लोपः ॥ २४९ ॥ एतच्छब्दस्य तकारस्य लोपः स्यात् त्तो-त्थयोः परयोः। एतस्मात् एत्तो एदादो एदादु एदाहि । एतस्मिन् एत्थ एतस्सिं एतम्मि । पदस्य ॥ २५०॥ - इत्यधिकृत्य । युष्मदस्तं तुमं ॥ २५१ ॥ युष्मदः पदस्य तं तुम इत्यादेशौ स्यातां सावा सह । त्वं तं तुमं । तुज्झे तुम्हे जसि ॥ २५२ ॥ युष्मदः पदस्य तुज्झे तुम्हे इत्येतावादेशौ वा स्तः जसा सह । यूयं तुज्झे तुम्हे। त्तं वाऽमि ॥ २५३ ॥ युष्मदः पदस्य तं इत्यादेशो वा स्यात् अमा सह । त्वाम् तं तुम। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द वो च शसि ॥ २५४ ॥ युष्मदः पदस्य वो तुझे तुम्हे इत्येते आदेशाः स्युः शसा सह । युष्मान वो तुझे तुम्हे ॥ - ङोस्त तर तुमए तु ॥ २५५ ॥ युष्मदुत्तरयोः टाङि इत्येतयोः तइ तर तुमए तुए इत्येते आदेशाः स्युः प्रकृत्या सह । त्वया तइ तए तुमए तुए । आङि च ते दे ॥ २५६ ॥ युष्मदः पदस्य आङा सह ते दे इत्येतावादेशौ स्तः । आङ्ग इति टासंज्ञा प्राचाम् । तुमाइ च ॥ २५७ ॥ अयमपि स्यात् । ते दे तुमाइ । ३१ तुझेहिं तुम्हेहिं तुब्भेहिं भिसि ॥ २५८ ॥ युष्मदः पदस्य एते आदेशाः स्युः भिसा सह । युष्माभिः तुज्झेहिं तुम्हहिं तुम्भेहिं । अत्र 'तुझे तुम्हे तुम्भे' इति सुवचम् 'शिषोο' (१३७ ) इत्यनेन 'भिसो हिं' ( १७ ) इति हिमादेशस्यातिदिष्टत्वात् । ङसौ ततो तो तुमादो तुमादु तुमाहि ॥ २५९ ॥ युष्मद एते आदेशाः स्युः ङस्या सह । त्वत् तत्तो तत्तो तुमादो तुमादु तुमाह । तुम्हाहिंतो तुम्हासुत्तो भ्यसि ॥ २६० ॥ युष्मद एतौ आदेशौ स्यातां पञ्चमीबहुवचनेन सह । युष्मत् तुम्हार्हितो तुम्हासुत्तो। अत्रापि 'तुम्हा भ्यसि' इत्येव सुवचम् । एवम[ स्मत् ] शब्देऽपि ज्ञेयम् । ङसि तुमो-तुह-तुझ- तुम्ह-तुब्भाः ॥ २६९ ॥ युष्मद एते आदेशाः स्युः ङसा सह । तव तुमो तुह तुज्झ तुम्ह तुम्भ । वो भे तुज्झाणं तुम्हाणमामि ॥ २६२ ॥ युष्मद एते स्युरामा सह । युष्माकम् वो भे तुज्झाणं तुम्हाणं । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित - रघुनाथ - कवि - विरचित ङौ तुमम्मि ॥ २६३ ॥ युष्मदः तुमम्मि इत्यादेशः स्यात् ङ्या सह । त्वयि तुमम्मि तइ तए तुम तुए । ३२ तुज्झेसु तुम्हेसु सुपि ॥ २६४ ॥ युष्मद् एतौ स्यातां सुपा सह । युष्मासु तुज्झेसु तुम्हे । अस्मदो हमहमह सौ ॥ २६५ ॥ स्युः प्रथमैकवचनेन सह । अहम् हं अहं अहअं । अहम्मिरमि च ॥ २६६ ॥ अस्मदः प्रथमैकवचन द्वितीयैकवचनाभ्यां सह आदेशः स्यात् । अहं अहम्मि । अस्मद एते अम्हे जस- शसोः ॥ २६७ ॥ अस्मदः अयमादेशः स्याद् जसा शसा च सह । वयं अम्हे । मं ममं ॥ २६८ ॥ अस्मद एतावादेशौ स्याताम् । माम् अहम्मि मं ममं । 'अहम्मिरमि च' (२६६ ) इत्यतो 'अमि' इत्यनुवर्त्तते । 'चानुकृष्टं नोत्तरत्र' इति परिभाषया चानुकृष्टानां हं-आदीनां नानुवर्तनम् । णे शसि ॥ २६९ ॥ अस्मदो णे इत्यादेशः स्यात् शसा सह । अस्मान् अम्हे णे । आङ मे ममाइ ॥ २७० ॥ अस्मदः एतौ स्तः टया सह । मया मे ममाइ । ङौ च मइ मए ॥ २७१ ॥ अस्मदः एतौ स्तः डि-टाभ्यां सह । मया मइ मए । अम्हेहिं भिसि ॥ २७२ ॥ अस्मदः अयं स्याद् भिसा सह । अस्माभिः अम्हेहिं । तो मतो ममादो ममादु ममाहि ङसौ ॥ २७३ ॥ अस्मद एते स्युः ङस्या सह । मत् मत्तो महत्तो ममादो ममादु ममाहि । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ प्राकृतानन्द अम्हेहिंतो अम्हेसुत्तो भ्यसि ॥ २७४ ॥ अस्मद एतौ स्यातां भ्यसा मह । अस्मत् अम्हेहिंतो अम्हेसुत्तो। मे मम मह मज्झ ङसि ॥ २७५ ॥ अस्मद एते स्युः ङसा सह । मम मे मम मह मज्झ । झस्य धत्वमपीच्छन्ति केचित् , मद्ध। मज्झणो अम्हं अम्हाणं अम्हे आमि ॥ २७६ ॥ अस्मद एते स्युरामा सह । अस्माकम् मज्झणो अम्हं अम्हाणं अम्हे । ममम्मि ङौ ॥ २७७ ॥ अस्मदः अयं स्याद् ङया सह । मयि ममम्मि मइ मए । अम्हेसु सुपि ॥ २७८ ॥ अस्मदः अयं स्यात् सुपा सह । अस्मासु अम्हेसु । शरदो दः ॥ २७९ ॥ अत्रान्त्यहलो दः स्यात् । लोपापवादः। शरत् सरदो, 'नसान्त०' (२४२) इति पुंवद्भावः। दिक्-प्रावृषोः सः ॥ २८० ॥ अनयोरन्त्यस्य सः स्यात् । लोपापवादः । प्रावृट् पाउसो । रत्नमुट् रअणम्। अदसो दो मुः ॥ २८१ ॥ अदसो दकारस्य मु इत्यादेशः स्यात् सुपि । हश्च सौ ॥ २८२॥ अदसो दस्य हः स्यात् सौ । असौ अह अमू । हादेशोऽयं ओत्वआत्व-बिन्दून् परत्वाद् बाधते । अमी अमुए अमुणो । अमुम् अमुं। अमून् अमूओ। अमुना अमुणा। अमीभिः अमूहिं । अमुष्मात् अमूदो अमूदु अमूहि । अमीभ्यः अमूहिंतो अमूसुत्तो । अमुष्य अमुस्स । अमीषाम् अमुणं । अमुष्मिन् अमुस्सि अमुम्मि अमुत्थ । अमीषु अमूसु । तपः तवो । यशः जसो । सरः सरो। । ॥ इति हलन्ताः पुंलिङ्गाः ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कवि-विरचित स्त्रियामात् ॥ २८३ ॥ स्त्रियां वर्तमानस्य अन्त्यस्य हल: आत् स्यात्। उपानत् उवाणआ। द्यौः दिआ। रो रा ॥ २८४ ॥ स्त्रियामन्त्यस्य रेफस्य रा इत्ययमादेशः स्यात्।धूः धुरा। गीः गिरा। चतस्रः चत्तारो चत्तारि । का काआ की। इद्भयः स्सा-से ॥ २८५ ॥ इकारान्तेभ्यः किं-यत्-तद्भ्यो उसः स्सा से इत्येतावादेशौ वा स्याताम् । कस्याः किस्सा कीसे । पक्षे कीइ कीए की कीआ, 'टाङसू' (१६०) इति आदेशाः। "आदीतौ०' (१७४) इति आकारपक्षे काइ काए । इयं इमा। युष्मदस्मदोर्लिङ्गत्रये सदृशं रूपम् । या जा जी । याः जाउ जाओ जा। यस्याः जिस्सा जीसे जीइ जीए जीअ जीआ जाइ जाए। वाक वाआ। न विद्युति ॥ २८६ ॥ अन्त्यस्य हल आकारो न स्यात् । विद्युत् विजू। दिक दिसा, 'दिमावृषोः०' (२८०) इति सः । असौ दिक अम् दिसा। अम्: अओ। मशेषमूकारस्त्रीलिङ्गवत् । ॥ इति हलन्ताः स्त्रीलिङ्गाः ॥ नपुंसके स्वमोरिदमिणमिणमो ॥ २८७ ॥ क्लीबे सविभक्तिकस्येदमः इदं इणं इणमो इत्यादेशाः स्युः खमोः परयोः । इदम् इदं इणं इणमो । इमानि इमाई । पुनस्तद्वत् । शेष पुंवत् । किम् किं । कानि काई । पुनरपि । शेषं पुंवत् । तत् तं, 'अनपुंसके' (२४३) इत्युक्ते न सादेशः। तानि ताई। एतत् एदं । यत् जं। यानि जाई। अद: अह अमुं। अमूनि अमूई । 'न सान्त०' (२४२) इति प्राप्ते ___न शिरो-नभसी ॥ २८८ ॥ ___ एतौ पुंसि न स्याताम् । शिरः सिरं, 'अन्त्यस्यः' इति सोर्लोपः। ॥ इति हलन्ता नपुंसकलिङ्गाः ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द निपाताः ॥ २८९॥ अधिकारोऽयम्। हुं दान-पृच्छा-निर्धारणे ॥ २९० ॥ हुमित्ययं निपातसंज्ञः स्याद् दाने पृच्छायां निर्धारणे च । चिअ चेअ अवधारणे ॥ २९१ ॥ चिअ चेअ इत्येतौ निपातसंज्ञौ स्तः निश्चये। ओ सूचना-पश्चात्ताप-विकल्पेषु ॥ २९२ ॥ ओ इत्ययं निपातः सूचनायां पश्चात्तापे विकल्पे च । ___ इर-किर-किला अनिश्चिताख्याने ॥ २९३ ॥ त्रयो निपाताः संशयाख्याने । हु-क्खु निश्चय-वितर्क-सम्भावनेषु ॥ २९४ ॥ हु क्खु इत्येतौ निपातौ निश्चये वितर्के सम्भावनायां च । णवरः केवले ॥ २९५ ॥ निपातः केवलेऽर्थे । णवरि आनन्तर्ये ॥ २९६ ॥ णवरि इति आनन्तर्ये निपातः। किणो प्रश्॥ २९७ ॥ किणो इत्ययं पृच्छायां निपातः। अबो दुःख-सूचना-सम्भावनेषु ॥ २९८ ॥ अव्वो इत्ययं निपातः दुःखे सूचनायां सम्भावनायां च । अलाहि निवारणे ॥ २९९ ॥ अलाहि इत्ययं निपातः निषेधे। अइ वले सम्भाषणे ॥ ३०० ॥ अइ वले एतौ निपातौ वचने । अबो अम्मो दुःखा-ऽऽक्षेप-विस्मापनेषु ॥ ३०१॥ एतौ निपातौ दुःखे आक्षेपे विस्मापने च । अत्र 'अव्यो दुःख-सूचमा-सम्भावनेषु' 'अम्मो च दुःखाऽऽक्षेप-विस्मापनेषु' इति सूत्रयितुं युक्तमिति केचित् । वयं तु तत्रापरसूत्रे 'दुःख' शब्दमपि त्यजामा, पूर्वसूत्रे दुःखशन्दस्य खरितत्वेनानुवर्तनात्, 'खरितेनाधिकार' इति पाणिनीये wwwwwwwwww Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कवि-विरचित परिभाषितत्वात् समस्तपदादेकदेशानुवृत्तिस्तु 'क्ङिति च' इत्यत्र 'न धातुलोपः' - इत्यतो धातुग्रहणानुवृत्तिवत् । णवि वैपरीत्ये ॥ ३०२ ॥ अयं वैपरीत्ये निपातः। __ सू कुत्सायाम् ॥ ३०३ ॥ सू इत्ययं निपातो निन्दायाम् । रे अरे हिरे सम्भाषण-रतिकलहा-ऽऽक्षेपेषु ॥ ३०४ ॥ रे अरे हिरे इति त्रयः क्रमेण सम्भाषणे रतिकलहे आक्षेपे च निपाताः । अत्र च 'यथासंख्यमनुदेशः समानाम्' इत्युक्तत्वाद् यथासंख्यम् । म्मिव-मिअ-विआ इवार्थे ॥ ३०५ ॥ मिव मिअ विअ इत्येते इवार्थे निपातसंज्ञकाः। अज्ज आमत्रणे ॥ ३०६॥ अज्ज इत्ययं निपातः आमन्त्रणेऽर्थे, सम्बोधने इत्यर्थः । शेषः संस्कृतात् ॥ ३०७ ॥ उक्तादन्यः संस्कृतादवगन्तव्यः। इवे वः ॥ ३०८ ॥ इवशब्दे व्व इति निपात्यते । स इवायम् सो व्व इमो। विअ इति वक्तव्यम् , सो विअ इमो। अपौ विः ॥ ३०९ ॥ अपिशब्दे व्विः इति निपात्यते । सोऽपि देव इव सो व्यि देवो व्व। ओदवा-ऽपयोः ॥ ३१० ॥ अव अप इत्येतयोः ओ इत्यादेशो वा स्यात् । अवगाहः ओगाहो अवगाहो । अपनयः ओणओ अवणओ, 'पो वः' (८५) इति वः। __इतेस्तः पदादेः ॥ ३११ ॥ पदादेः इतिशब्दस्य यः तकारः ततः परस्य इकारस्य अ इत्यादेशः स्यात् । इति विलपन् इअ विलअंतो। त इति किम् ? आदेरिकारस्य मा भूत् । पदादेरिति किम् ? इलेलिरिति वक्तव्यम् (?)। प्रिय इति हसति पिओ त्ति हसइ। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द ओ च द्विधाकृञः ॥ ३१२ ॥ कृपरो यो द्विधाशब्दः तस्य आदेः इकारस्य ओकारः स्याद् उश्च । विधाकृतम् दोहाइअं दुहाइअं। एवम् एअं एवं, एव एअ एव, यावदादित्वाद् वा वलोपः। __ तल्-त्वयोर्दा-त्तणौ ॥ ३१३ ॥ पाणिनीये भावार्थे [यौ] तल्- त्वौ विहितौ तयोः क्रमेण दा त्तण इत्येतावादेशौ स्याताम् । कृष्णता कण्हदा, "तलन्तं स्त्रियाम्' ( ) इति लिङ्गानुशासनबलात् स्त्रीत्वम् । कृष्णत्वम् कण्हत्तणं, 'त्वान्तं क्लीबम्' ( ) इति षण्डत्वम् । आल्विल्लोल्लालवत्तेत्ता मतुपः ॥ ३१४ ॥ तदस्यास्त्यस्मिन्नित्यर्थे विहितो मतुप तस्य आलु इल्ल उल्ल आल वत्त इत्त इति षडादेशाः स्युः। निद्रावान् णिद्दालू । मालावान् मालाइल्लो। विकारवत् विआरुलं। धनवान् धणालो। गुणवान् गुणवत्तो। मानवान् माणइत्तो, 'सन्धावचा०' (१)। विद्युत्-पीताभ्यां वा लः ॥ ३१५ ॥ आभ्यां लप्रत्ययः स्यात् । विद्युत् विजुली, विद्युच्छब्दस्य स्त्रीलिङ्गत्वात् स्त्रीत्वम्, पक्षे विजू । पीतं पीअलं पीअं। ॥ इति श्रीज्योतिर्वित्सरसात्मजरघुनाथकविकण्ठीरवविरचिते प्राकृतानन्दे प्रथमः परिच्छेदः ॥१॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अथ द्वितीयः परिच्छेदः।] भू सत्तायाम्। भुवो हो-हुवौ ॥ ३१६ ॥ भूधातोः हो हुव इत्येतावादेशौ स्याताम् । ते-तिपोरिदेतौ ॥ ३१७ ॥ धातोः परयोः ते तिप् इत्येतयोरिदेतौ स्याताम् । यथासंख्यं नेष्यते । । अत ए से ॥ ३१८ ॥ नियमार्थ वचनम् । त-तिपोः सिप्-थासो? ए से इत्येतावादेशी विहितौ तावकारान्तादेव स्याताम्, नान्यस्मात् । लादेशे वा ॥ ३१९ ॥ लकारादेशे परे अत एत्वं वा स्यात् । भवति होइ हुवइ हुवए हुवेइ हुए। वर्तमान-भविष्यदनद्यतनयोज ज्जा वा ॥ ३२० ॥ तमाने भविष्यदनद्यतने च विध्यादिषु चोत्पन्नस्य प्रत्ययस्य न जा इत्येतावादेशौ वा स्याताम् । होज होजा। लि-लो-लुट् - लड़े विध्यादयः। मध्ये च ॥ ३२१ ॥ वर्तमान-भविष्यदनद्यतनयोर्विध्यादिषु च धातु-प्रत्यययोर्मध्ये न ज्जा इत्येतावादेशौ वा स्याताम् । भवति- होजइ होज्जेइ होजाइ, पक्षे पूर्वमुक्तम् । नानेकाचः ॥ ३२२ ॥ वर्तमान-भविष्यदनद्यतनयोर्विध्यादिषु चानेकाचो धातोः परतो मध्ये ज जा इत्येतावादेशौ न स्याताम्। भवति हुवज हुवेज हुवजा हुवेजा। एवमग्रेऽपि पूर्वोक्तलेषुप्रथम-द्वितीय-तृतीयेषु पुरुषेषु एकवचन-द्विवचनबहुवचनादावस्यवगन्तव्यम् । न्ति-हेत्था-मो-मु-मा बहुषु ॥ ३२३ ॥ तिङो बहुवचनानामेते आदेशाः स्युः। प्रथमपुरुषबहुवचनस्य न्ति, मध्यमस्य ह इत्था एतौ, उत्तमस्य मो मु म एते इति विवेकः। भवतः भवन्ति =होन्ति हुवन्ति हुवेन्ति हुवज हुवेज हुवजा हुवेजा होज होजा होजन्ति होजेन्ति होजान्ति। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द थासू-सिपोः सि से ॥ ३२४ ॥ धातोः परयोः थास्-सिपोः सि से इत्येतावादेशौ स्याताम् । यथासंख्यं न । भवसि = होसि हुवसि हुवेसि हुवसे हुवेसे । भवथः भवथहोह होइत्था हुवह हुवेह हुवइत्था हुवेइत्था हुवित्था, 'सन्धा०' (१) इत्यकारलोपो वा। इट्-मयोर्मिः ॥ ३२५ ॥ इट मि इत्येतयोः मिः स्यात्। । अत आ मिपि वा ॥ ३२६ ॥ अकारस्य आकारो वा स्याद् मिपि परे। भवामि = होमि हुवामि हुवेमि हुवमि। इच्च बहुषु ॥ ३२७ ॥ मिपो बहुवचने परे अत इः स्याद् आ च । भवावः भवामः होमो होम होम हुवामो हुविमो हुवेमो हुवमो हुवामु हुविमु हुवेमु हुवमु हुवाम हुविम हुवेम हुवम । इति लट् । अथ लिट् ईअ भूते ॥ ३२८ ॥ भूते काले धातोः परस्य प्रत्ययस्य ईअ इत्यादेशः स्यात् । बभूव इअं भृते ॥ ३२९ ॥ भूते काले धातोः परस्य प्रत्ययस्य इअं इत्यादेशः स्यात् । बभूवहुवि। . एकाचो हीअ ॥ ३३० ॥ भूते काले एकाचो धातोः परस्य प्रत्ययस्य हीअ इत्यादेशः स्यात् । बभूव =होहीअ। त्रीण्यपि रूपाणि प्रथम-मध्यमोत्तमैकवचन-द्विवचनबहुवचनेष्ववगन्तव्यानि । उ सु मु विध्यादिष्वेकस्मिन् ॥ ३३१ ॥ विध्यादेरेकवचनस्य क्रमेण उ सु मु इत्येते आदेशाः स्युः। बभूव होउ हुवेउ हुवउ। न्तु ह मो बहुषु ॥ ३३२ ॥ विध्यादेबहुवचनस्य क्रमेण न्तु ह मो इत्येते आदेशाः स्युः। बभूवुः रोन्यु हुवेन्तु हुषन्तु । बभूषिय = होसु हुबेसु हुवसु-बभूव - होइ हुबेह हुवी। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित रघुनाथ-कवि-विरचित हुवह, हविधानं इत्थ(स्था)बाधनार्थम् । बभूव- होम हुवेमु हुवमु । बभूविम= होमो हुवेमो हुवमो। मोविधानं मु-मयोर्वाधार्थम् । इति लिट् । अथ लुट् धातोर्भविष्यति हिः॥ ३३३ ॥ भविष्यति काले धातोः परे हिः स्यात्। भविता=होहिइ हुवेहिइ हुवहिइ। एच्च क्त्वा-तुमन्-तव्य-भविष्यत्सु ॥ ३३४ ॥ एषु अत एत्वं स्यात्, चादिश्च । हुविहिइ हुवेहिए हुवहिए हुविहिए होज होजा हुवेज हुवज हुवजा होजहिइ होजेहिइ होजाहिइ होउ हुवेउ हुवउ । भवितारः होहिं ति हुवेहिंति हुविहिंति हुवर्हिति होन्तु हुवेन्तु हुवन्तु । भवितासि-होहिसि हुवेहिसि हुवहिसि हुवेहिसे हुवहिसे होसु हुवेसु हुवसु । भवितास्थ- होहिहा हुवेहिह हुवहिह होह हुवेह हुबह । उत्तमे स्सा हा च ॥ ३३५ ॥ भविष्यत्युत्तमे परे धातोः परौ स्सा हा इत्येतौ स्याताम् । चात् हिः। मिना स्सं वा ॥ ३३६ ॥ भविष्यति मिना सह धातोः परः स्सं वा स्यात् । भविष्यामि होस्सामि हुवेस्सामि हुवस्सामि होहामि हुवेहामि हुवहामि हुवाहामि होहिमि हुवेहिमि हुवाहिमि हुवहिमि होस्सं हुवेस्सं हुवस्सं होमु हुवेमु हुवामु हुवमु। मो-मु-मैहि-स्सा-हित्था ॥ ३३७ ॥ भविष्यति मो-मु-मैः सह हिस्सा हित्था इत्येतावादेशौ वा स्याताम् । भवितास्मः= होहिस्सा हुवेहिस्सा हुविहिस्सा हुवाहिस्सा हुवहिस्सा होहित्था हुवेहित्था हुविहित्था हुवाहित्था हुवहित्था होस्सामो हुवेस्सामो हुविस्सामो हुवस्सामो होहामो हुवेहामो हुविहामो हुवाहामो हुवहामो होहिमो हुवेहिमो हुविहिमो हुवाहिमो हुवहिमो होमो हुवेमो हुविमो हुवामो हुवमो । इति लुट् । __ अथ लट् । भविष्यति होहिइ हुवेहिइ हुवहिय हुवेहिए हुवहिए। भविष्यन्ति = होहिन्ति हुवेहिन्ति हुवहिन्ति । भविष्यसिहोहिसि हुवेहिसि हुवहिसि हुवेहिसे हुवहिसे । भविष्यथ = होहिह हुवेहिहहुवहिह होहित्थ हुवइत्थ हुवित्थ । भविष्यामि होस्सामि हुवेस्सामि हुवस्सामि होहामि हुवेहामि हुघाहामि हुवहामि होहिमि हुवेहिमि Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द हुवाहिमि हुवहिमि होस्सं हुवेस्सं हुवस्सं। भविष्यामः = होहिस्सा हुवेहिस्सा हुविहिस्सा हुवाहिस्सा हुवहिस्सा होहित्था हुवेहित्था हुविहित्था हुवाहित्था हुवाहित्था होस्सामोहुवेस्सामो हुविस्सामो हुवस्सामो होहामो हुवेहामो हुविहामो हुवाहामो हुवहामो होहिमो हुवेहिमो हुविहिमो हुवाहिमो हुवहिमो होस्सामु हुवेस्सामु हुविस्सामु हुवस्सामु होहामु हुवेहामु हुविहामु हुवाहामु हुवहामु होहिमु हुवेहिमु हुविहिमु हुवाहिमु हुवहिमु होस्साम हुवेस्साम हुविस्साम हुवस्साम होहाम हुवेहाम हुविहाम हुवाहाम हुवहाम होहिम हुवेहिम हुविहिम हुवाहिम हुवहिम । इति लट् । ___अथ लोट- भवतु = होउ हुवेउ हुवउ। भवन्तु = होंतु हुवेन्तु हुवन्तु। भव= होसु हुवेसु हुवसु। भवत=होह हुवेह हुवह । भवानि = होम हुवेमु हुवामु हुवमु । भवाम= होमो हुवेमो हुवामो हुविमो हुवमो। इति लोट् । लोट्वद् लङ्-लिङाशीर्लिङः। अथ लङ्-अभूत् हुवीअ हुविअं होहीअ, एवं पुरुष-वचनेषु । ल लट्वत् । प्रादेर्भवः ॥ ३३८॥ प्रादेः परस्य भुवो भव इत्यादेशः स्यात् । प्रभवति =पभवइ पभवए पभवेइ पभवेए । उद्भवति उन्भवइ । प्रतिभवइ पडिभवइ, 'प्रतिसर' (३३) इति तस्य डः। खाह भक्षणे। खादि-धाव्योः खा-धौ ॥ ३३९ ॥ अनयोः खा धा इत्येतो क्रमेण स्यातां वर्तमाने भविष्यति विध्यादीनामेकवचनेषु च । खादति खाइ । चखाद खाहीअ । खादिता खाहिइ । खादिष्यति खाहिइ । खादतु खाउ । एवं लङ्-लिङाशीर्लिङः । अखादीत् खादीअं खादीअ । लङ् लड्वत्। क्षियो झिजः॥ ३४० ॥ 'क्षि क्षये अस्य झिज्ज इत्यादेशः स्यात् । क्षयति झिज्जइ झिजए । छिन्न-भिजावप्येके । ब्रज गतौ । चो व्रज-नृत्योः ॥ ३४१॥ अनयोरन्तस्य चः स्यात् । व्रजति वच्चइ वच्चेइ वचए । ब्रजिता वच्चहिइ वच्चहिए। वेष्ट वेष्टने । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-राय-कवि-विरचित वेदेव ॥ ३४२॥ .. अन्तस्य ढः स्यात् । ठापवादः । वेष्टते वेढइ वेढए वेढेइ वेढेए । 'कथे:' (३५८) इति पूर्वसूत्रान्तर्गतं न कृतम् , 'उत्समोल'. (३४३) इत्युत्तरसूत्रेऽनुवृत्त्यर्थम् , अन्यथा कथिरपिल्लविधानेऽनुवर्तेत । उत्समोलः ॥ ३४३ ॥ - एतयोः परस्य वेष्टेरन्तस्य ल्लः स्यात् । उद्वेष्टते उवेल्लइ । संवेष्टते संविल्लइ । स्फुट विकसने।। - स्फुटि-चल्योर्वा ॥ ३४४ ॥ ___अनयोरन्तस्य द्वित्वं वा स्यात् । स्फोटते फुट्टइ फुटइ, भौवादिकतौदादिको गृह्यते स्फुटि-चली इह । पट गतौ । पटेः फलः ॥ ३४५ ॥ स्पष्टम् । पटति फलइ । जुभि गात्रविनामे । जुभो जंभाअ ॥ ३४६ ॥ जुभि इत्यस्य जंभाअ इत्यादेशः स्यात् । जम्भतेजंभाअइ जंभाएइ जंभाअए जंभाएए । जम्भिता=जंभाअहिइ जंभाएहिइ जंभाअहिए जंभाएहिए । जल्प व्यक्तायां वाचि। जल्पेर्लो मः॥ ३४७ ॥ जल्पेलस्य मः स्यात् । जल्पति जंपइ । घुण भ्रमणे । धुणो घोलः ॥ ३४८ ॥ घुणे?ल इत्यादेशः स्यात् । घूर्णति घोलइ घोलए, भ्वादि तुदादि। मील निमेषणे। प्रादेमीलः ॥ ३४९॥ प्रादेः परस्य मीलो लस्य द्वित्वं वा स्यात् । प्रमीलति= पमिल्लह पमीलइ पमिल्लए पमीलए पमिल्लेइ पमीलेइ पमील्लेए पमीलेए । जि जये। श्रु-हु-जि-लू-धुवां गणोऽन्ये हवः ॥ ३५० ॥ . एषामन्त्ये पणः स्यात्, दीर्घस्य हखश्च स्यात् । जयति जिण्णइ । जिगाय जिण्णी। __धावु गति-शुध्यो । धावति धावते धाइ । दधाव वधावे धाहीअ । धाविता धाहिइ । धाक्तु धावतां धाउ। कास् शब्दकुत्सायाम्। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द . ..... काशेर्वासः ॥ ३५१॥... अवात् परस्य कार्वास इत्यादेशः स्यात् । अवकासते ओवासइ । अवादिति किम् ? कासते कासह । ग्रसु पलमु अदने । ग्रसेर्विसः ॥ ३५२ ॥ अस्य विस इत्यादेशः स्यात् । असते विसइ । गाहू विलोडने । - अवाद् गाहेर्वाहः॥ ३५३ ॥ अवात् परस्य गाहेर्वाह इत्यादेशः स्यात् । अवगाहते ओवाहइ । अवादिति किम् ? गाहते गाहइ । वृषु मृषु सेचने। वृष-कृष-मृष-हषामृतोऽरिः॥ ३५४ ॥ एषां ऋतः अरिः इत्ययमादेशः स्यात् । वर्षति परिसइ । मर्षति मरिसइ । कृषि विलेखने इति भौवादिकस्यैव ग्रहणम् , न तौदादिकस्य, वृषादिसाहचर्यात् । हूषु अलीके । हर्षति हरिसइ । वृधु वृद्धौ । . वृधेः ॥ ३५५ ॥ अन्तस्य स्यात् । वर्धते वडइ, 'ऋतोऽद्' (१२०) इत्यकारः। भित्वरा सम्भ्रमे। त्वरस्तुवरः॥ ३५६ ॥ स्पष्टम् । त्वरते तुवरइ तुवरए । चल कम्पने । चलति चल्लइ चलइ, 'स्फुटि-चल्योर्वा' (३४४) इति वा द्वित्वम् । पत्ल गती। . शद्ल-पत्योः ॥ ३५७ ॥ अनयोरन्तस्य डः स्यात् । पतति पडइ। शदूल शातने । शीयते सडइ । कथे निष्पाके। कथेः ॥ ३५८ ॥ अन्तस्य स्यात्। कथति कढइ । मलै हर्षक्षये। म्लै वा-वाऔ ॥ ३५९ ॥ अस्य वा वाअ इत्येतावादेशौ स्याताम् । म्लायति वाइ वाअइ । ध्यै चिन्तायाम् । ष्ठा-ध्या-गानां ठाअ-झाअ-गाआः ॥ ३६० ॥ एषामेते क्रमेण स्युः। ठा-झा-गाश्च वर्तमान-भविष्यद्-विध्यायेकवचनेषु ॥ ३६१ ॥ ....एषु ठा-ध्या-गानांठा झा गा इत्येते आदेशाः स्युः। चात् पूर्वोक्ताः। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कवि-विरचित ध्यायति-झाअइ झाइ । दध्यौ-झाइअं झाही। ध्याता-झाअहिइ झाहिइ। एवं लट् । ध्यायतुझाअउ झाउ । अध्यासीत् = झाइअं झाईअ । अत्र "ठाझा-गाश्चालङि' इत्येव सूत्रयितुं युक्तम् । गै शब्दे । गायति गाअइ गाइ, पूर्ववत् । घा गन्धोपादाने । जिघ्रतेः पा-पाऔ ॥ ३६२ ॥ अस्य पा पाअ एतौ स्याताम् । जिघ्रति पाइ पाअइ । जघ्रौ पाहीअ पाईअ पाइअं। ध्मा शब्दा-ऽग्निसंयोगयोः। उद्ध्मो धूमा ॥ ३६३ ॥ उदः परस्य धमतेः धूमा इत्यादेशः स्यात् । उद्धमति उद्भूमाइ । ष्ठा गतिनिवृत्तौ । तिष्ठति ठाअइ ठाइ, ध्यावत् । स्मृ चिन्तायाम् । व स्मरतेर्भर-सुमरौ ॥ ३६४ ॥ अस्य भर सुमर इत्येतौ स्याताम् । स्मरति भरइ सुमरइ । मृ गतौ। ऋतोऽरः॥ ३६५॥ धात्वन्तऋकारस्य अरः स्यात् । सरति सरइ । श्रु श्रवणे । शृणोति सुण्णइ । शुश्राव सुण्णीअ सुपिणअं। वादीनां त्रिष्वप्यनुवारवब्रू हिलोपश्च वा ॥ ३६६ ॥ श्रु वचि नमि रुदि दृशि विदि इत्येतेषां प्रथम-मध्यम-उत्तमपुरुषेषु परेषु सोच्छं वोच्छं गच्छं रुच्छं दच्छं वेच्छं इति क्रमेण आदेशाः स्युः, अनुखारवज हिलोपश्च वा । श्रोता सोच्छिहिइ सोच्छिइ सोच्छइ सोच्छहिइ सोच्छेहिइ सोच्छेइ सोच्छिहिए सोच्छिए सोच्छए सोच्छहिए सोच्छेहिए सोच्छेए। श्रोतारः = सोच्छहिंति सोच्छिति सोच्छति सोच्छिहिंति सोच्छेहिंति सोच्छेति । श्रोतासि सोच्छिसि सोच्छिहिसि सोच्छेसि सोच्छेहिसि सोच्छसि सोच्छहिसि सोच्छिसे सोच्छिहिसे सोच्छेसे सोच्छेहिसे सोच्छसे सोच्छहिसे । श्रोतास्थ=सोच्छिहिह सोच्छेहिह सोच्छहिह सोच्छिह सोच्छेह सोच्छह । कृ-दा-श्रु-वचि-गमि-रुदि-दृशि-विदिरूपाणां काहं दाहं सोच्छं वोच्छं गच्छं रुच्छं दच्छं वेच्छं ॥ ३६७ ॥ एषामेते क्रमेण स्युः भविष्यत्युत्तमैकवचने । श्रोतास्मि =सोच्छं सोच्छिस्सामि सोच्छेस्सामि सोच्छस्सामि सोच्छिहामि सोच्छेहामि सोच्छाहामि सोच्छहामि सोच्छहिमि सोच्छिमि सोच्छेहिमि सोच्छेमि Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द सोच्छाहामि सोच्छामि सोच्छहिमि सोच्छमि सोच्छेस्सं सोच्छस्सं । श्रोतास्मः सोच्छिहिस्सा सोच्छेहिस्सा सोच्छाहिस्सा सोच्छिहित्था सोच्छेहित्था सोच्छाहित्था सोच्छहित्था सोच्छिस्सामो सोच्छेस्सामो सोच्छस्सामोसोच्छिहामो सोच्छेहामो सोच्छाहामोसोच्छहामो सोच्छि हिमो सोच्छिमो साच्छेहिमो सोच्छेमो सोच्छाहिमो सोच्छामो सोच्छहिमो सोच्छमो। श्रोष्यति सोच्छिहिइ इत्यादि । प्रथमे मध्यमस्यैकवचने च लुड्वत् । बहुवचने तु श्रोष्यथ =सोच्छिहिह सोच्छिह सोच्छेहिह सोच्छेह सोच्छहिह सोच्छह सोच्छिहित्थ सोच्छित्थ सोच्छेहित्थ सोच्छेइत्थ सोच्छहित्थ सोच्छइत्थ । मिपि लुट्वत्, मवि च । मुमयोस्तु यत्र मो इति तत्र मु-मौ प्रत्येकं प्रयोज्यौ । शृणोतु सुण्णउ । श्रृण्वन्तु सुणंतु । शृणु सुणसु । शृणुत सुणह । शृणोमि सुणमु । शृण्मः सुणमो । दृशिर प्रेक्षणे । इर् इत् । दृशेः पुलअ-णिअक्क-अवक्खाः ॥ ३६८ ॥ ज्यक्षरा आदेशाः स्युः । पश्यति पुलअइ णिअकइ अवक्खइ । दद्रष्ट पुलईअ णिअक्क(क्की?)अ अवक्खीअ । द्रष्टा दच्छिहिइ इत्यादि वोच्छवत् । कृषि विलेखने । कर्षति करिसइ । गम्ल गतौ गच्छति गमइ । गन्तास्मि गच्छं इत्यादि । इति भ्वादिः। अद भक्षणे। शेषाणामदन्तता ॥ ३६९ ॥ लुप्तानुबन्धानां शेषाणामकारान्तत्वं स्यात् । अत्ति अअइ । हन हिंसा-गत्योः। हन्तेमः ॥ ३७० ॥ हन्तेर्नस्य म्मः स्यात् । हन्ति हम्मइ । वच परिभाषणे । वक्ति वअइ। वक्ष्यामि वोच्छं इत्यादि सोच्छवत् । विद ज्ञाने । वेत्ति वेद वेअइ । वेत्स्यामि वेच्छं । अस भुवि । अस्ति अस्थि । सन्ति असन्ति । असेलॊपः ॥ ३७१ ॥ असो लोप: स्यात् थास्-सिपोः परयो । असि सि । थासोऽनुवृत्तिर्भाव-कर्मणोः सफला । स्थ त्थ । मि-मो-मु-मानामधो हश्च ॥ ३७२ ॥ . अस्तेः परेषां मि-मो-मु-मानामधो हः स्यात्, अस्तेश्च लोपः। अस्मि म्हि । स्मः म्हो म्ह म्हु । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कवि-विरचित अस्तेरासिः ॥ ३७३ ॥ भूते निपातः । बभूव आसि । मृजूष शुद्धौ। - मृजेलभ-पुसौ ॥ ३७४ ॥ ध्यक्षरौ स्याताम् । मार्टि लुभइ पुसइ 'सुप' इति पाठे सुपइ। रुदिर अश्रुविमोचने। रुदेवः ॥ ३७५॥ रुदेर्दस्य वा स्यात् । रोदिति रुवइ । रुदिष्यामि रुच्छं, वोच्छवत् । इत्यदादयः। हु दानादनयोः । जुहोति हुण्णइ, 'श्रु-हु-जि०' (३५०) इति पणः। भी भये। . भियो भा-बीहौ ॥ ३७६ ॥ भा बीह इत्येतावादेशौ स्याताम् । बिभेति भाइ बीहइ । पृ पालनपूरणयोः। पिपर्ति परइ । डुभृञ् धारण-पोषणयोः। बिभर्ति भरइ । माङ् माने । . निरो माङो माणः ॥ ३७७ ॥ निरः परस्य माङो माण इत्यादेशः स्यात् । निर्मिमीते णिम्माणइ । निरः किम् ? मिमीते माइ । डुदाञ् दाने । ददाति दाइ । दातास्मि दाहं । डुधाञ् धारण-पोषणयोः। श्रदो धो दहः ॥ ३७८ ॥ श्रदः परस्य धो दह इत्यादेशः स्यात् । श्रद्दधाति सद्दहइ । श्रद इति किम् ? धाइ । विजिर पृथग्भावे । उदो विजः ॥ ३७९ ॥ उदः परस्य विजेजस्य वः स्यात् । उद्वेविक्ते उद्वेवेक्ति उव्विव्वइ । ऋ सृ गतौ । इयर्ति अरइ । ससर्ति सरइ । इति ह्रादयः। दिवु क्रीडा-विजिगीषा-व्यवहारद्युति-स्मृति-मोद-मद-खम-कान्तिगतिषु । दीव्यति दिवइ । नृती गात्रविनामे । नृत्यति णच्चइ । त्रसि उद्वेगे। ... त्रसेर्वजः ॥ ३८० ॥ स्पष्टम् । त्रस्यति वजइ । ब्रीड चोदने लज्जायां च । बीड्यति वीलइ। खूङ् प्राणिप्रसवे । सूयते सूइ । दूङ् परितापे । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द दूङो दूमः ॥ ३८१ ॥ स्पष्टम् । दूयते दूमइ दूमए दूमेह दूमेए । शो तनूकरणे । श्यति सोइ । दो अवखण्डने । यति दोइ । जनी प्रादुर्भावे । जायते जणह। पद गती। पदः पालः ॥ ३८२ ॥ आदेशः स्यात् । पद्यते पालइ । बुध अवगमने । युधि-बुध्योझः ॥ ३८३ ॥ एतयोर्धस्य झः स्यात् । बुध्यते बुज्झइ । युध सम्प्रहारे । युध्यते जुज्झइ । सृज विसर्गे । मृज्यते सजइ । शुष शोषणे। रुषादीनां दीर्घः ॥ ३८४ ॥ रुषादीनां दीर्घः स्यात् । शुष्यति सूसइ । तुष प्रीती। तुष्यति तूसइ । दुष वैकृत्ये । दुष्यति दूसइ । क्रुध कोपे। क्रुधे रः ॥ ३८५ ॥ स्पष्टम् । क्रुध्यति झूरइ । रुष रोषे । रुष्यति रूसइ । गृधु अभिकाङ्क्षायाम् । गृध्यति गधइ । इति दिवादयः। षु अभिषवे । सुनोति सुअइ । चिञ् चयने । चिञश्विणः॥ ३८६ ॥ चित्रः चिण इत्यादेशः स्यात् । चिनोति चिणइ । शक्ल शक्तौ । - शकादीनां द्वित्वम् ॥ ३८७ ॥ शकादीनां द्वित्वं वा स्यात् । शक्नोति सकइ । पले शकेस्तर-चअ-तीराः ॥ ३८८ ॥ अस्य यक्षरास्त्रय आदेशाः स्युः। शेक्नोति तरइ चअइ तीरइ । अशू व्याप्तौ सङ्घाते च । अनुते असइ । जिधृषा प्रागल्भ्ये । धृष्णोति धसइ । इति खादयः। .. तुद व्यथने । तुदति तुअइ । णुद प्रेरणे। । ___णुदेर्लोणः॥ ३८९ ॥ _णुदेर्लोण इत्यादेशः स्यात् । नुदति लोणइ । 'णोल' इति पाठे णोल्लइ । कृष विलेखने । कृषति कसइ, 'वृष-कृष-०' (३५४) इति अरिस्तु न, वृषसाहचर्याद् भौवादिकस्यैव ग्रहणात् । ओविजी भये । उद्विजति उव्विवइ, 'उदो विजः' (३७९) इति वः । टुमस्जौ शुद्धौ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ पण्डित-रघुनाथ-कवि-विरचित बुड-खुप्पो मस्जेः ॥ ३९० ॥ [मस्जे बुड खुप्प इत्येतावादेशौ स्याताम् । ] मजति बुडइ खुप्पइ । तृप तृप्तौ। तृपस्थिम्पः ॥ ३९१ ॥ तृपेः थिम्प इत्यादेशः स्यात् । तृपति थिम्पइ । घुण भ्रमणे। घूर्णति घोलइ । पृङ्ग व्यायामे । प्रियते परइ । मृङ् प्राणत्यागे । म्रियते मरइ । सृज विसर्गे । सृजति सअइ । कृती छेदने । कृन्तति कतइ । खिद परिघाते । खिंदति विसूरइ । पिश अवयवे । पिशति पिसइ । इति तुदादयः। रुधिर आवरणे। रुधेन्ध-म्मौ ॥ ३९२ ॥ रुधेः धस्य न्ध म्म इत्येतावादेशौ स्याताम् । रुणद्धि रुन्धइ रुम्मइ। भिदिर विदारणे। भिदि-च्छिदोरन्तस्य न्दः ॥ ३९३ ॥ अनयोः दस्य न्दः स्यात् । भिनत्ति भिंदइ । छिदिर द्वैधीकरणे। छिनत्ति छिदइ। खिद दैन्ये । खिनत्ति विसूरइ । ओविजी भय-चलनयोः। विनक्ति विअइ । उद्विनक्ति उविवइ । इति रुधादयः। . तनु विस्तारे । तनोति तण्णइ । षणु दाने । सनोति सण्णइ । क्षणु हिंसायाम् । क्षणोति खण्णइ । क्षिणु च-क्षिणोति खिण्णइ। ऋणु गतौ। ऋणोति अण्णइ । तृणु अदने । तृणोति तण्णइ । घृणु दीप्तौ । घृणोति घण्णइ । वनु याचने । वनोति वण्णइ । मनु अवबोधने । मनोति मण्णइ । हुकृञ् करणे। कृञः कुणो वा ॥ ३९४ ॥ कृषः कुण इत्यादेशो वा स्यात् । करोति कुणइ करइ । कृञः का भूत-भविष्यतोश्च ॥ ३९५ ॥ एतयोरर्थयोः क्त्वा-तुमुन्-तव्येषु च कृतः का इत्यादेशः स्यात् । चकार काहीअ कम्भं (१) [करिष्यति ?] काहिइ । कर्तास्मि काहं, दावत् । इति तनादयः। डुक्रीञ् द्रव्यविनिमये। क्रीञः किणः ॥ ३९६ ॥ स्पष्टम् । क्रीणाति किणइ । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द वे के च ॥ ३९७ ॥ वेः परस्य क्रीणातेः के इत्यादेशः स्यात् । चात् किणः । विक्रीणाति विकेइ विकिणइ । लूजू छेदने । लुनाति लुण्णइ, 'श्रु-हु-जि०' (३५०) इति अन्त्यस्य णः पूर्वस्य हखश्च । कृञ् हिंसायाम् । कृणाति करइ । धूञ् कम्पने । धुनाति धुण्णइ । शृ हिसायाम् । शृणाति सरइ । पू पालन-पूरणयोः। पृणाति परइ । मृ हिंसायाम् । मृणाति मरइ । ज्ञा अवबोधने । ___ज्ञो जाण-मुणौ ॥ ३९८ ॥ यक्षरावादेशौ स्याताम् । जानाति जाणइ मुणइ । बध बन्धने । बन्नाति बंधइ । वृक सम्भक्तौ । वृणीते वरइ । मृद क्षोदे । - मृदो लः॥ ३९९ ॥ - मृद्गातेः दस्य लः स्यात् । मृद्राति मलइ । अश भोजने । अनाति असइ । पुष पुष्टौ । पुष्णाति पूसइ । ग्रह उपादाने । आहेर्गेण्हः ॥४०० ॥ स्पष्टम् । गृह्णाति गेण्हइ । इति ज्यादयः। चुर स्तेये। णिच एदादेरत आत् ॥ ४०१ ॥ णिच एत् स्यात्, धातोरकारस्य आत् स्यात् । आवे च ॥ ४०२॥ णिचोऽयमपि आदेशः स्यात् । चोरयति चुरेइ चुरावेइ । चिति स्मृत्याम् । चिन्तयति चिंतेइ चिंतावेइ । लक्ष दर्शना-ऽङ्कनयोः। लक्षयति लाखेइ लखावेइ। भक्ष अदने । भक्षयति भाखेइ भखावेइ । गज शब्दे । गाजयति गाजेइ गजावेद । शठ श्लाघायाम् । शाठयति साठेइ सठावेइ । इति चुरादयः। भू-हेतुमद् णिच । भावयति होएइ होआवेइ हुवेइ हुवावेइ । पटपाटयति फालेइ फलावेइ । जल्पयति जंपेइ जंपावेइ । प्रमीलयति पमिल्लेइ पमिल्लावेइ । अवकाशयति ओवासेइ ओवासावेइ । ग्रासयति विसेइ विसावेइ । अवगाहयति ओगाहेइ ओगाहावेइ । रोषयंति रूसेइ रूसावेइ । वर्षयति वरिसेइ वरिसावेइ। वर्धयति वड्डेइ वड्ढावेइ । त्वरयति तुवरेइ तुवरावेइ । चलयति चल्लेइ चालेइ चल्लावेइ चलावेइ । स्मारयति Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित - रघुनाथ - कवि - विरचित भारेइ भरावेइ सुमरेइ सुमरावेइ । सारयति सारेइ सरावेइ । श्रावयति सुण्णेइ सुणावेइ । गमयति गामेइ गमावेइ । रोदयति रुवेइ रुवावेई । पारयति पारेइ पारावेइ । नर्त्तयति णचेइ णच्चावेइ । त्रासयति बजेइ वज्जावेइ । व्रीडयति वीलेइ वीलावेइ । शुष्यति सुसे सूसावेइ । क्रुध्यति झूरेइ झूरावेइ । चिनोति चिण्णेइ चिण्णावेइ । शक्नोति सक्केइ सक्कावेइ, तारेइ तरावेइ, चाएइ चआवेइ, तीरेइ तीरावेइ । घूर्णयति घोलेइ घोलावेइ । रुन्धयति रुंधेइ रुंधावेइ, रुम्भेइ रुम्भावेइ । कारयति कारेइ करावे, कुणेइ कुणावेइ । क्राययति किणेइ किणावेइ । इति हेतुमण्णिचूप्रकरणम् । यक ईअ- इज्जौ ॥ ४०३ ॥ ५० यको यक्षरावादेशौ स्याताम् । भूयते होईअइ होइज्जइ हुवीअइ हुविज्जइ । भाव - कर्मणोर्वश्च ॥ ४०४ ॥ श्रु हु जि लू धू एषामन्ते वः स्यात्, णश्च भावकर्मणोः । जीयते जिवइ जिणीअइ जिणिज्जइ । मादीनां द्वित्वं वा ॥ ४०५ ॥ एषां द्वित्वं वा स्याद् भावकर्मणोः । हस्यते हस्सइ हसीअइ हसिज्जइ । रम्यते रम्मइ रमीअइ रमिज्जइ । ह-कोहर-कीरौ ॥ ४०६ ॥ हृञ्-कृञोः क्रमाद् हीर कीर इत्येतौ स्यातां भाव-कर्मणोः । हियते हीरइ । श्रूयते सुवइ सुण्णीअइ सुणिज्जइ । गम्यते गम्मइ गमीअइ गमिज्जइ । दुहि-लिहि-वहां दुब्भ-लिब्भ-वब्भाः ॥ ४०७ ॥ एषां क्रमेण यक्षरा आदेशाः स्युः भाव-कर्मणोः । उद्यते वग्भइ । दुह्यते दुभ | लिह्यते लिब्भइ । हूयते हुवइ हुण्णीअर हुणिजइ । क्रियते कीरइ । लूयते लुवइ लुण्णीअइ लुणिज्जइ । धूयते धुवइ धुणी धुणिजइ । ज्ञो णज्ज - णौ वा ॥ ४०८ ॥ ज्ञाधातोः यक्षरावादेशौ वा स्यातां भावकर्मणोः । ज्ञायते णज्जइ ras | पक्षे जाणीअइ जाणिज्जइ, मुणीअइ मुणिज्जइ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतानन्द ग्रहे दी? वा ॥ ४०९॥ स्पष्टम् । गृह्यते गाहिज्जइ । पक्षे गेण्हिवइ । ॥इति भावकर्मप्रकरणम् ॥ इति तिङन्तम् ॥ क्ते हुः ॥ ४१० ॥ भुवो हुरादेशः स्यात् क्ते । भूतं हुअं। ते तुरः॥ ४११॥ त्वरतेः तुर इत्यादेशः स्यात् क्ते। क्ते ॥ ४१२ ॥ धातोरन्त्याकारस्य इः स्यात् क्ते । त्वरितं तुरिअं । पटितं फलिअं। _क्तेन दिण्णादयः ॥ ४१३ ॥ दिण्ण इत्यादयः शब्दाः तेन सह निपात्यन्ते । दाम् दत्तं दिण्णं । रुदिर रुदितं रुण्णं । त्रसी त्रस्तं हित्थं । दह भस्मीकरणे दग्धं डहूं। रक्ष रक्तं रत्तं । दंश दष्टं डढें । रुधिर् रुद्धं रुहूं इत्यादयः । भुजादीनां क्त्वा-तुमुन्-तव्येषु लोपः ॥ ११४ ॥ एषामन्तस्य लोपो वा स्यात् । । क्त्व ऊणः ॥ ४१५ ॥ त्वाप्रत्ययस्य ऊण इत्यादेशः स्यात् । भुक्त्वा भोऊण। भोक्तम् भोउं । भोक्तव्यम् भोअवं । विदित्वा वेऊण । वेत्तुम् वेडं। वेत्तव्यम् वेअचं । एवं रुदिर। घे क्त्वा-तुमुन्-तव्येषु ॥ ४१६ ॥ ग्रहेः घे इत्यादेशः स्याद् एषु परेषु । गृहीत्वा घेऊण । ग्रहीतुम् घेउं । ग्रहीतव्यम् घेअवं । कृत्वा काऊण । कर्तुम् काउं । कर्त्तव्यम् काअवं । तृन इरः शीले ॥ ४१७ ॥ शीलार्थे तृन इर इत्यादेशः स्यात् । गन्ता गमिरो, गमनशील इत्यर्थः। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित-रघुनाथ-कवि-विरचित न्त-माणौ शत-शानचोः॥ ४१८ ॥ शतृ शानच् इत्येतयोः क्रमेण न्त माण इत्येतावादेशौ स्याताम् । भवन् हुवंतो। यजमानः जअमाणो। . ईत् स्त्रियाम् ॥ ४१९॥ शतृ-शानचोः ईदादेशः स्याद् न्त-माणौ च । वदन्ती वदई । यजमाना जअमाणी । पक्षे वदंती जअमाणा। इति श्रीज्योतिर्वित्सरसात्मजरघुनाथकविकण्ठीरवविरचिते प्राकृतानन्दे द्वितीयः परिच्छेदः। ॥ समाप्तः प्राकृतानन्दः॥ [॥ संवत् १७२६ अश्विन सुदि १२ रविदिने लिखितं लाभपुरनगरमध्ये शुभं भवतु । ॥ श्री ॥॥ छ ॥] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् प्राकृतशब्दानुक्रमणिका प्राकृतशब्द: संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि mr - २१७ २१७ ३७० १४१ १४० २४१ २४२ २४० २४० २४० २४० अप्राइ अत्ति अनो प्रमूः २८६ अग्गो , अग्गवो अग्नयः अग्गिणा अग्निना अग्गिणो अग्नीन १४०A अग्गिम्मि अग्नौ १४४ अरिंग अग्नि अग्गी अग्नि : १३८ अग्गी अग्नयः १४० अग्गोमो अग्नयः १३६,१४० अग्गीणो (अग्गिस्स) अग्नेः १४४ अग्गीणो अग्नयः १३६,१४० अग्गीदु, अग्गोदो प्रग्नेः १४२ अग्नयः १४० अग्गीहि प्रग्नेः १४२ अग्गीण अग्नीनाम् १४४ प्रग्गीसु अग्नीषु १४४ अग्गीसुत्तो. अग्गीहितो अग्निभ्यः १४३ अङ्ग ली प्रङ्ग री १७६ अच्छि प्रक्षि २१७ अच्छी अक्षि १८१ अच्छेरं प्राश्चर्य अण्ण ऋणोति ३६३ अणुप्रत्तमाणो अनुवर्तमानः १३४ प्रति अस्थि अणडुपो अनड्वान् अस्थि अस्ति प्रत्तो प्राप्तः प्रत्तो प्रातः प्रद्धा, अद्धाणो प्रध्धा अप्पजू प्रात्मयुक् अप्परगा प्रात्मना अपणो प्रात्मनः प्रप्पण: प्रात्मनः प्रप्पा प्रात्मनः प्रपा प्रात्मा अप्पादु, अप्पादो प्रात्मनः अप्पाणो प्रात्मनः अप्पाणं प्रात्मनां अप्पाहि प्रात्मनः अप्पेहि प्रात्मभिः अप्पं प्रात्मानं अप्पम्मि प्रात्मनि अप्पासुत्तो, अप्पास्तिो प्रात्मभ्यः अप्पे प्रात्मनि अप्पेसु प्रात्मसु घयम् अस्मान् अस्माकम् अम्हे प्रस्मासु अग्गीवो २४० २४० २४० २४० २४० २४० २४० २६७ २६६ २७६ २७७ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४ ] प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि २७४ अम्हेसुत्तो अम्हेहि अम्हेहितो २७२ अस्मिन असो प्रदः अहम् २७४ अस्सि प्रह प्रह प्रह अहम्मि अहम्मि अहिआई अहिमज्जु अहम् प्रस्मत अस्माभिः अस्मत् अस्माकम् अस्माकम् अमी अमुष्मिन् अमुना प्रमी अमीषाम् प्रमुष्मिन् प्रमुष्य प्रमुष्मिन् अमुम् प्रम्हाणं प्रमुए प्रमुत्थ प्रमुणा २२६ २८२ २८७ २६५ २६६ २६८ १७४ १५१ २६५ २६६ माम् अभिजातिः अभिमन्युः प्रहम् अहम् अमुणो अहं अमुणं प्रमुम्मि प्रमुस्स प्रमुस्सि श्रा २८२ २८२ २८२ २८२ २८२ २८२ २८२ २८२ २८२ २८७ २८२ २८७ २८२ २८६ २८२ अमुं प्रदः प्रसौ प्रमूनि १७५ १७५ १७० अमुं अमू अमूई अमूमो प्रमूदिसा अमूदु अमूदो अमूसु अमूसुत्तो २१४ प्रागतः प्राकृतिः प्राकृति: प्राज्ञा पालानं प्रापीडः प्रावत: बभूव अश्वः प्राप्रदो प्राइदी पाउदी प्राणा प्राणालं पामेलो आवत्तो प्रासि प्रासो, अस्सो प्र.हिमाई. अहिपाई ५३ ११६ سه अमून असो दिक अमुष्मात प्रमुष्मात प्रमोषु अमीभ्यः अमुष्मात प्रमीभिः अमीभ्यः ४४ ر له अभिजातिः १७४ प्रमूहि م س इच्छितो इयत्ति २८२ २८२ २८२ २८२ २८२ ३७९ ३६८ ३६८ ३१० ३१० ३८८ इणमो ईप्सितः इदम् इदम् इदम् प्रमूहि अमूहितो अरह प्रवक्खइ प्रवक्खी प्रवगाहो प्रवणो असइ असइ असन्ति अस्स इणं इमम्मि पश्यति दद्रष्ट श्रवगाहः अपनयः प्रश्नुते प्रश्नाति सन्ति प्रस्य 9 urva १२५ २८७ २८७ २८७ २२६ २२६ २२६ २२६ २८५ २८७ इमस्स इमस्सि इमा इमा इमाई अस्य अस्मिन इमान् इयं २२६ इमानि Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत शब्दः इमाणं इमादु इमादो इमासुत्तो महि इमाहिती इमिरणा इमे इमेण इमेसि इमे इमे इमो इमं इसी इंगालो इन्द्रो इंद्रो उक्केरो उच्छा उच्छितो उच्छू उद्धूमाई उन उद्वहल उप्पीश्रो उब्भवइ उवाणश्रा उब्विब्वइ उब्वेल्लइ उसको संस्कृतरूपम् सूत्राणि एषां प्रस्मात श्रस्मात एभ्यः अस्मात एभ्यः श्रनेन इमे श्रनेन एषां एषु एभि: प्रयं इमं ऋषिः अङ्गारः इन्द्रः इन्द्रः उ उत्करः उक्षा उत्क्षिप्त इक्षुः उद्धमति ऋतुः उद्दूखलम् उत्पीत: उद्भवति [ ५५ ] उपानत उद्वे विक्ते, उद्वेवेवित उद्विजति उद्विनक्ति उद्वेष्टतं उत्सव: २२७ २२६ २२६ २२६ २२६ २२६ २२६ २२६ २२६ २२७ २२ε २२६ २२६ २२६ १४४ ६० १०४ १०४ ४१ १६६ ११८ १५० ३६३ १५० १८७ ३७ ३३८ २८३ ३७६ ३८६ ३६३ ३४३ १२६ प्राकृतशब्दः उसुप्रो उ उंबरं एश्र एअरहो एवं एहि एतो एस्थ एतम्मि एस्स एता एते एतं एदादु एदादी एदाहि एदिणा एदे एदेहि एद एरावणो एरिसो एव एवं एस एसो श्रोखलं श्रोगाहावेइ श्रोगाहेइ श्रोगाहो प्रणयो संस्कृतरूपम् सूत्राणि १२६ १३६ २०६ उत्सुकः उभौ उदुम्बरम् ए एव एकादशः एवम् इदानीं ३१२ १०१ ३१२ २१५ एतस्मात २४६ एतस्मिन् २४६ २४६ २४६ २४७ २४७ २४७ २४६ २४६ २३६ २४७ २४७ २४७ २८७ एतस्मिन् एतस्मिन् एतान् एते एवं एतस्मात् एतस्मात एतस्मात एतेन एतेन एतैः एतत् ऐरावतः ईदृश: एव एवम् एष: एषः श्रो उदूखलम् श्रवगाहयति गायत श्रवगाहः अपनयः ८२ ૪ ३१२ ३१२ २४७ २४७ १८७ ४०२ ४०२ ३१० ३१० Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतशब्द: संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्द. संस्कृतरूपम् सूत्राणि अोवासइ ३५१ २२४ अोवासावेइ अोवासेइ अोवाहा मोहलं अंकोल्लं अंबं अवकासते अवकाशयति अवकाशयति अवगाहते उलूहलम् अंकोठ प्रानं अश्रु ४०२ ३५३ १८७A कस्स कस्सि कस्सि कसद कलुणं कलंबो कहावणो कहि २०० २०८ २१७ अंसू कहि ७५ काव्वं कामा काइ काई काउं काऊण कइप्रवो कइया कउरवो कउसलो कच्छा कज्जो कढइ कढोरं कण्हो कण्हं कण्हत्तणं कण्हदा कतइ कत्तरी कत्तो काए कैतवः कदा २२५ कौरव: ७४ कौशल: कक्षा १६६ कार्यः ११२ क्वथति ३५८ कठोरं १९६ कृष्णः १०,१२०,१३३ कृष्णम् कृष्णस्वम् ३१३ कृष्णता ३१३ कृन्तति कर्तरी कस्मात २२१ कदा २२५ कस्मात २२१ करिष्यति (?) ३६५ कदा कर्म कबन्ध: ८७ करोति ३६४ कृणाति ३६७ कारयति ४०२ कर्षति ३६८ करेणुः १५१ MUMr. uTorr . . or कस्य २२२ कस्मिन् कदा २२५ कृषति ३८६ करुणं २०० कदम्बः कार्षापण: १२४ कस्मिन २२४ कदा २२५ कस्मात २२१ कर्तव्यम ४१६ का २८४ का कानि कमि कृत्त्वा का कस्मात केषां कारयति कालायस कालायसं कस्य कासते ३५१ केभ्यः २२१ कस्मात . २२१ केभ्यः करिष्यति (?) ३६५ कदा २२५ कास्मि ३९५ कृत्त्या १६५ कोत्तिः १७६ क्रीणाति ३६६ काययति काययति . कत्थ कादु काणं कारेइ कालाप्रसं कालासं कास कास कासुतो काहि काहिंतो काही काहे काहं किच्चा कित्ती किणइ किणावे किणे कदो २२१ कम्भं (?) कम्मि कम्मो कमंधो करई करई करावे करिसइ ४०२ करेणू ४०२ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७ ] प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्द: संस्कृतरूपम् सूत्राणि खमा खमा खहि १६६ १७२ ३३६ कृपा खाइ किरिमा किलिट्ठ किलित्तं किवा किसणो किसरा किस्सा कि ३३६ ३३६ किम ३३६ क्रिया १७१ क्लिष्टं २०८ वलप्तं १९१ १६५ कृष्णः (भगवति) १३३ कृशरा १६५ कस्याः २८५ २८७ का १७४,२८४ कस्याः २८५ कस्याः २८५ कस्याः २८५ कस्याः २८५ क्रियते ४०७ कस्याः २८५ कौक्षेयकः कुक्षिः १७६ करोति ३६४ कारयति ४०२ कारयति क्षमा क्षमा खादिता खादति खादतु स्थाणुः अखादीत् अखादीत् खादिष्यति चखाद क्षिणोति कुब्जः मज्जति स्फोटक: स्तम्भः को खाउ खाणू खादी खादी नाहि खाहीन खिण्णइ खुज्जो खुप्पइ खोडो खंभो कीया ३६३ कोई कीए कीरइ १११ कीसे कुक्खेप्रमो कुच्छी १९७ कुणइ कुणावेइ गउरवं गग्गरो गच्छं गजावेइ ३६८ कुणे ४०२ कैटभ: केढवो केरिसो केलासो ३८५ गौरव गद्गवः गन्तास्मि गाजयति गत: गृध्यति गभितः गभितं गम्यते गच्छति गमयति x r कीदृशः कैलासः कैवत्तः केषां केवट्टो १९७ ४०६ ३६० केसि केसु गधद गभिणो गभिणं गम्मद गमइ गमावेइ गमिज्जा गमिरो गमीग्रह गरुग्रं गरुई ११५ २२३ २२५ २१६ १०८ को गम्यते कोत्थुहो कोसलो फंदोटो . . ore . कः कौस्तुभः कौशलः कमलं ख खङ्गः क्षणोति क्षणः गन्ता गम्यते गुरु २१७ १७६ गुर्थी महवई १४५, २१२ खग्गो खण्णइ खणो ३९३ गाप्रह गाइ गृहपतिः . गायत्ति गायति ११६ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतशब्द: संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्द: संस्कृतरूपम् सूत्राणि ४०२ ४०२ गाजेइ गामेइ गारवं गाहइ गाहिज्जइ गाजयति गमयति गौरवं गाहते १९७ ३५३ २१८ २१८ २८४ २१८ गृह्यते गिट्ठी २०४ गष्टि : गीः गुणवान् १७५ २८४ गिरा गुणवत्तो गेण्हइ गेण्हिज्जइ गोरवं गोला गृह्णाति ४०० २४२ ३५६ ३५६ गृह्यते गौरव गोदावरी घ ४०६ १९७ २१५ ६० घृणोति ३६३ घृणा चत्तारि चत्तारि चत्तारि चत्तारो चत्तारो चत्तारो चन्दिमा चम्मो चलभइ चलइ चलणो चल्लावेइ चलावेइ चल्लेइ चाउलिनं चाएइ चालेइ चिणइ चिण्णावेइ चिण्णेइ चितावेइ चितेइ चिन्धं चिलादो चिहुरो चुरावेइ चुरेइ चोत्थी चोद्दही चोरिनं चत्वारः चतुरः चतत्रः चत्त्वारः चतुरः चतस्रः चन्द्रिका चर्म चलति चलति चरणः चलयति चलयति चलयति चातुर्य शक्नोति चलयति चिनोति चिनोति चिनोति चिन्तयति चिन्यति चिह्न किरातः चिकुरः चोरयति चोरयति चतुर्थी घण्ण घणा घरं घेप्रघं घेऊण घेउं घोलइ घोलए घोलेइ घोलावेइ ४०२ ४०२ ४०२ २१५ ४०२ ४६२ ३८६ ४०२ ४०२ गृह ग्रहीतव्यम् गृहीत्वा ग्रहीतुम् घूर्णति २१२ ४१६ ४१६ ४१६ ३४८, ३६१ घूर्णति ३४८ ४०२ ४०२ २०५ له ७८ ४०२ ४०२ १७८ घूर्णयति घूर्णयति च शक्नोति शक्नोति चैत्रः चतुर्थी चतुर्दशी चतुर्णा चतुषु चतुर्व्यः चतुभिः चतुभ्यः चतुर्दशी १७८ चौर्य चाइ चावेइ चइत्तो चउत्थी च उद्दही चउण्हं चऊसु चउसुत्तो चहि चहितो २०२ ३८८ ४०२ ७१२ १७८ १७८ २१८ २१८ २१८ २१८ २१८ દ6 छत्तवण्णो छट्ठी सप्तपर्णः षष्ठी छणो क्षणः १८० ११८ १६९ छमा क्षमा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] [ ५६ संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्दः प्राकृतशब्द: संस्कृतरूपम् सूत्राणि छम्मुहो छायाग्गामो छवो छाहा छाहागामो छाही छिदइ छोरं षण्मुखः छायाग्रामः १३१ शविक: छाया १६८, १७४ छायाग्रामः १३१ छाया छिनत्ति ३६३ क्षीरं २०४ क्षुब्धः । ११८ जिणिज्जइ जिण्णीय जिण्णीअइ जिम्वर जिस्सा जीयते जिगाय जीयते जीयते यस्याः जा ४०४ ३५० ४०४ ४०४ २८५ १७५ २८५ २८५ १७४ या यस्याः छुद्धो ज्या छुणा भुणा १६६ यस्याः ज २८५ जप्रमाणा जप्रमाणी जप्रमाणो जउणा जढरं जण्णो Morror २८५ १६५ जी जी जीमा जीमा जीइ जीए जीसे जीहा जुउच्छा जुगुच्छा जुज्झइ यजमाना यजमाना यजमानः यमुना जठरं यज्ञः जह्न: जायते जन्म यशः युधिष्ठिरः यस्याः यस्याः यस्याः जिह्वा जुगुप्सा जुगुप्सा युध्यते युवा १६६ १२७ १६६ ३८३ २४१ जुवा, जुवाणो जो २४६ जण जम्मो ३८१ २४२ २८२ जोग्गो जोवणं जसो १६६ जहिटिलो २८७ ३४७ 0 या 0 जा ४०२ जाउ २८५ २८७ ४०२ ३४६ ३४६ ३४६ २८५ योग्यः यौवनम् यत् जल्पति जल्पयति जल्पयति जम्भते जम्भिता जम्भिता जम्भते जम्भते जम्भते जम्भिता जम्भिता झ ध्यायतु ध्यायति जंप जंपावेइ जंपेइ जंभाप्रद जंभाग्रहिइ जंभाअहिए जंभाए जंभाएइ जंभाएए जभाएहिए जंभाएहिइ याः यस्याः यानि यस्याः याः जानाति ज्ञायते ज्ञायते जामाता जामातार: जयति जाइ जाई जाए जाम्रो जाण जाणिज्ज जाणीग्रह जामाया जामाप्रारो जिण्ण २८५ ३९८ ४०८ ३४६ ३४६ ३४६ ३४६ ४०८ १५५ १५५ ३५० झाउ झाइ ३६१ ३६१ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि २० झाप्रहिइ झाइ झाइ झाइग्रं झाइग्रं भाउ झाहीन झाहिइ झिज्ज झिज्जए झूरावेइ ध्याता ध्यायति दध्यौ अध्यासीत् अध्यासीत् ध्यायतु दध्यौ ध्याता क्षयति क्षयति ऋष्यति MMMMMM ३६१ ur ३४० ३४० क्रुध्यति क्रुध्यति ३८५ ४०२ ठाग्रह तिष्ठति तिष्ठति ३६२ ३६३ ठाइ ६ दष्टं णाराप्रणा नारायणात् णाराणादु नारायणात णाराणादो नारायणात् भाराप्रणाणं नारायणेभ्यः णाराणाणं नारायणानां णाराप्रणासत्तो नारायणेभ्यः णाराप्रणाहि नारायणात णाराणाहितो नागायणेभ्यः णाराप्रणे नारायणान् णाराप्रणे नारायणौ णारायणे नारायणे णाराअणण नारायणेन णाराणेस नारायणेषु णाराणेहि नारायणः णाराणो नारायणः णाहलो लाहल: णांगलो लाङ्गलः णिप्रक्कइ पश्यति णिप्रक्क क्की?]प्रदद्रष्ट णिडालं ललाट णिद्दालू निद्रावान् णिफंदो निस्पन्दः णिम्माणइ निभिमीते णिवत्तो निवर्तः णिसढो निषधः णिस्सासो नि:श्वासः णिसा निशा णिहियो निहितः णिहित्तो निहितः णिहसो निकषः णीसासो निःश्वासः णे अस्मान् णेउरं णेद्दा निद्रा णेद्रा निद्रा डड्ढं दग्धं डसणो दशनः बोला ~~04 ३६८ ३६८ २१५ ३१४ १२२ ३७७ डोला डंडो हाम्रो m 9 ० णइसोत्तो णच्च णच्चावे णच्चेइ णज्ज णव्य णारामणम्मि णारामणस्स णाराणस्स ३७९ ४०२ ४०२ ४०८ १३२ १३२ ० स्नातः नदीस्रोतः नत्यति नर्तयति नर्तयति ज्ञायते ज्ञायते नारायणे नारायणाय नारायणस्य नारायणा: नारायणान् ४०८ ० ० १६ १४.२१ ० नूपुरं or www murwar ० णाराणा णाराणा १५ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१ ] प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि णेहो पोलिमा जोमल्लिमा णोल्लइ जोहलो स्नेहः नवफलिका नवमल्लिका नुवति दोहदः शक्नोति तालवन्तकं तस्य ३८ १६४ १६४ ३८६ ८३.६७ ३७१ २५५ २६३ तारेड तालवेण्ठ तास तासुत्तो ताहि तिण्हं तिणि ४०२ २०७ २४४ २४४ २४४ २०४ १४६ १७४ तस्मात् तीक्ष्णं त्रयः ती ता तह तइ तइमा तइणा तइत्तो २४६ १५० २४३ २५६ तीण्इं तीरइ तीरावेइ तीरेइ त्रयाणाम् शक्नोति शक्नोति शक्नोनी ཟེརད ४०२ तए २५५ त्वया स्वयि तदा तेन त्वत् स्वया स्वयि तस्मात् तनोति तुणोति तन्वी तस्मिन् तए तीसु त्रिषु . Ꮖ . २४४ . ३६३ १५० तो तण्ण तण्णइ तणुई तीसुत्तो तीहि तोहितो तुइ . १८१ २४६ तत्य तत्तो त्वत् तुए १५० ३८८ २५५ २६३ २६१ २६२ २५२ २५४ तुज्झाणं तुझे २५६ २४४ २४४ २४६ ३८८ ४०२ २०७ २८२ २४५ तत्तो तदो तम्मि तरह तरावेइ तलवेण्ठग्रं तवो तस्स तस्सि तहिं तस्मात् तस्मात् तस्मिन् शक्नोति शक्नोति तालवृन्तकं तपः तस्य तस्मिन तस्मिन् तवा २६४ तुझसु तुज्झेहि त्रिभ्यः त्रिभिः त्रिभ्यः तुति स्वया त्वयि तव युष्माकम् यूयम्, युष्मान् युष्मासु युष्माभिः तूष्णीकः तूष्णीकः तव युष्माभिः तव युष्माकम् युष्मत् युष्मत यूयं युठमान् २५८ १३२ तुहियो तुव्हिक्को १३२ २४६ .२४६ २४३ २८७ तान् तुब्भ तुम्भेहि तुम्ह तुम्हाणं तुम्हासुत्तो तुम्हाहितो तुम्हे तुम्हे २६१ २५८ २६१ २६२ २६० २६० २५२ २५४ तानि ताई ताणं तेषों २४६ तादु तस्मात् तस्मात् २४४ २४४ तावो Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२ ] प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि १६३ ३६८ तुम्हेसु तुम्हेहि तुमए तुमए तुमम्मि तुमा तुमादो तुमाहि युष्मासु यष्माभिः त्वया स्वयि स्वयि १०२ २६४ २५८ २५५ २६२ २६३ २५६ २५६ २५६ २६१ त्वत् त्वत् देवं द्रष्टा दशमुख: दशरथ: दशमुख: दशरथः बदाति दाडिम दाडिम दातास्मि देवरः दिवसः दिवसः धोः १०२ १०२ १०२ ३७७ १६८ १६८ ३७७ त्वत् दहवं दच्छिहिइ वसमुहो दसरहो दहमहो बहरहो दाइ दाडिम दालिम दाहं दिनरो दिवसो विग्रहो दिना विट्ठी दिण्णं दिद्धी तुमो २५३ तुम तुम २५१ तव त्वाम् त्वं त्वरित त्वरयति स्वरयति तव तुरिग्रं तुवरावेइ १०३ ४१२ ४०२ ४०२ २६१ तुवरे तुह तरं १६६ दृष्टिः वत्त २८३ १७५ ४१३ २१५ ३७६ २८६ तूस तुष्यति दुहिता दीव्यति दिवइ तेन २४३ २४३ १०१ तेण तेरहो तेलोक्क विक् दिसा दुअल्लं दूकूलं १८६ दुऊलं तेसु दुकूल द्रुतः दुग्रो १८६ १०४ १३२ तेषां तेसि तेहि दुक्खियो दुब्भइ दुःखितः दुह्यते ४०७ द्वो प्रयोदशः त्रैलोक्यं १६१ तेषु २४६ २४६ २४३ त्वाम् २५३ तम् २४३ २५१ स्तम्बः १०६ तानं २०८ थ स्थाणुः (हरवाचके) १५१ तृपति ३६१ दुहियो त १४६ १३२ ३८१ ३८१ दुःखितः दूयते दूयते दूयते दूमइ दूमए तंबो तंबं ३८१ दूमेइ दूमेए दूसइ देअरो दूयते ३८१ ३८४ थाणू थिम्पइ देवं दुष्यति देवरः दैवं धति द्वयोः द्रुतः १०४ दोइ दोण्हं दोणि १६३ ३८१ १४८ १४६ दइच्चो दत्यः Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि द्वयोः १४८ ३३८ दोसु दोसुत्तो दोहि दोहितो द्वाभ्याम् द्वाभ्याम् द्वाभ्याम् ६२ १४७ १४७ १५६ १७४ १२० १७५ " घणमोहरह घणालो धणं घसइ घाइ धाउ घाहिह धाहीन धीरं धुण्णइ খুলি धुण्णीग्रह ३३८ धनमाहरति धनवान् धनम् धृष्णोति धावति, धावते धावतां, धावतु धाविता बधावे, दधाव पडिभव पडिसरो पढमो पण्हा पण्ही पण्हो पविधत्ती पभव पभवए पभवेद पभवेए पमिल्लइ पमिल्लए पमिल्लाव पमिल्लेइ २१२ ३८८ ३५० ३५० ३५० ३५० १६६ ३६७ ३३८ ३३७ ३४६ ३४६ ४०२ धेयं धुनाति ३४६ धूयते धूयते ४०७ ११६ प्रतिभवति प्रतिसरः प्रथमः प्रश्नः प्रश्नः प्रश्नः प्रतिपत्ति प्रभवति प्रभवति प्रभवति प्रभवति प्रमीलति प्रमीलति प्रमीलयति प्रमीलति, प्रमीलयति प्रमोलति प्रमीलति प्रमीलति प्रमीलति प्रमीलति पिपति प्रियते पृणाति प्रह्लादः पर्यस्तं पर्याणं प्रकोष्ठः जिघ्रति जिघ्रति जघ्रो प्रावट पारयति पारयति धूर्तः धुत्तो धुरा २८४ धुव्वा धूयते ४०७ ४०२ ३४६ ३४६ ३४६ ३४६ ३४६ ३७६ ३६१ ३९७ १०८ २०३ २०३ नई नाराअणं नदी नारायणं ३३८ पमीलइ पमीलए पमीलेइ पमीलेए पमील्लेए परइ परइ परइ पल्हादो पल्लत्थं पल्लाणं पवट्ठो पाइ पाइ पाइग्रं पाउसो पारावे पारे। पाल ७२ १५० ३६२ प्रतिभवइ पअट्ठी पई पईन पउरो पच्छत्तो पच्छिमा पज्जुण्णो पट्टणं पड पडामा ७४ प्रतिभवति प्रकोष्ठः पति जघ्रौ पौरः पाश्चात्यः पश्चिमा प्रद्युम्नः पत्तनं पतति पताका १२५ १६६ १२७ २०४ पद्यते Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्द: संस्कृतरूपम् सूत्राणि पितरः पाही जघ्री १६२ पिअरी २५५ पिमा पिता पिनो त्ति हसइ प्रिय इति हसति ३१२ पिक्को पक्व: पिसइ पिशति पोप्रलं पीतं ३१५ पीतं २१२, ३१५ पृष्ठं बाफो बारहो बाहो बीहइ बुज्झइ बुडइ बोरं बंधइ बाष्पः (ऊष्मा) |१२३ द्वादश: बाष्पः (प्रश्रुणि) १२३ बिभेति ३७६ बुध्यते ३८२ मज्जति ३६० बदरं बध्नाति १८६ पीनं पुट्टी पुट्ट पुष्टं vo. २०६ १४५ पुप्फ पुरिसो पुलाइ पुलई पृष्पं पुरुषः पश्यति बद्रष्ट बहस्पतिः भैरवः भक्षयति भर्तरि भर्तुः भारः भत गां ३६८ ३६८ १३२ १७८ ३६६ ४०२ १५३ १५३ पुष्यः पुस्सो पुहवी पृथिवी पुरणाति १५३ १५३ प्रसो भर्ता पेरंतं पोक्खरो पोस्थो पोत्तो पुष्यः पर्यन्तं पुष्करः पुस्तकः पौत्र: भर्तृषु भर्तृभिः भर्ती भर्चा १५३ १५२ لله भअप्पई भइरवो भखावेइ भत्तारम्मि भत्तारस्स भत्तारा भत्ताराणं भत्तारेण भत्तारेषु भत्तारेहि भत्तारो भत्तुणा भत्तुणो भत्तुस्स भत्तुसु भत्तू प्रो भत्तो भरइ भरह भरहो भरावेइ भाअरो भाइ भायो । भाखे। भत न् س xxcx س س फरसो फलावेइ फलिअं फलिहा फलिहो फलिहो फालेइ १५३ परुषः पाटयति पटितं परिखा परिघः स्फटिकः पाटयति ४०२ ४१२ १६८ ३६४ ७८ ४०२ भत्त: भतषु भारः भक्तः स्मरति बिति भरतः स्मारयति भ्रातारः बिभेति भ्राता भक्षयति फुटइ फदो स्फोटते स्पन्दः ૩૪૪ १२२ ४०२ १५५ ३७६ १५५ ४०२ ब्रह्मा, ब्रह्माणो २४१ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ ] प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि । प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि मत् ४०२ १८० भारेइ भिसिणी भिगारो भिंगो भिडिवालो भिदड मत् माम् म्रियते स्मारयति बिसिनी भृङ्गारो भृङ्गः भिन्दिपालः भिनक्ति युष्माकम् भोक्तव्यं भोक्तुं ममादो ममाहि मम मरइ मर मरिसइ मलइ मलिणं मसाणं २७३ २७३ २६८ ३६१ ३६७ १२८ ३६३ २६२ ४१५ ४१५ ४१५ मृणाति मर्षति मृदनाति मलिनं श्मशानं ३६६ २११ भोअन्वं भो भोऊण २०१ भुक्त्वा मह २७५ मम मधूकं महुअं १८८ म्हि अस्मि महं मधु २१७ १८२ म्ह ३७७ ३७२ ३७२ ३७२ २७७ २७१ २७३ १९३ स्मः मयि मया मत् मलिनं मयूरः मयूखः मइ महत्तो मइलं मऊरो मऊहो मए ३१४ २११ ४२ ४२ २७१ २७७ मामा माइ माणइत्तो माला मालाइल्लो मांसं मिश्रको मिच्छा मुइङ्गो मुच्छा मुजाप्रणो मुणइ मुणिज्जइ मुणीअइ मया माता मिमीते मानवान् माला मालावान् मांसं मगाङ्कः मिथ्या मृदङ्गः मूर्छा मौजायनः जानाति ज्ञायते ज्ञायते मूत्तिः मुग्धः मुखरः मया १६९ २९ १६९ मए १६६ ३६८ २७५ १०७ २७६ л ४०८ м ३६३ मुत्ती १७७ मच्छिमा मझ मज्झण्णो मज्झणो मण्ण मणंसिणि मणं सिणी मत्तो मद्ध मम ममम्मि ममाइ ममा मयि मक्षिका मम मध्याह्न अस्माकम् मनोति मनस्विनीम् मनस्विनी मत मम मम मयि मया मत मुद्धो मुहलो ३७ ६० २७३ मम २७० २७५ १६५ मोत्ता २७५ २७५ २७७ २७० २७३ मोरो मुक्ता मयूरः मयूखः . मण्डूक: मोहो मंडरो ४२ .२१७ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतशब्द: संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि २१७ मंसू मंसं श्मश्रुः मांसं २६ २३७ २६ २३७ २०८ रप्रणं रमणम् रच्छा रत्नम् रत्नमुट रक्षा रक्तं राज्ञा प्ररण्यानि अरण्येन रामासुत्तो रामासुतो राप्राहि रामाहि रामाहितो रामाहितो राणा राइणो रागेभ्यः राजभ्यः रागात् राज्ञः रागेभ्यः राजभ्यः राज्ञा राज्ञः रागान्, रागाः , २३७ २३७ २३७ २८० १६९ ४१३ २३६ १८५ १८५ २३७ १८४ १६८ राए रण्णा रण्णाई रण्णण रणो रण्णं रमणिज्जा रमणिज्जो २६ रागे २६ राए २३४ राज्ञः, राज्ञि रागण प्ररण्यं रमणीया रमणीयः रम्यते रम्यते रम्यते रागेषु ४०५ ४०५ ४०५ रमिज्ज रमीग्रह रामि रामम्मि राप्रस्स राजसु रागः राजभिः रागे २३७ राएण राए राएसु राएहिं राएहि राम्रो राधे राधे रामो राहा रिच्छो रागः २६ राजानं रागम् २६ रामा रामा रामा २३० २३७ ११८ रिणं राज्ञि रागाय, रागस्य राजा राज्ञः रागाः रागान् रागात् राज्ञः राजानः राज्ञा रागेभ्यः, रागाणाम् रागात् राज्ञः रामः राधा ऋक्षः ऋणं ऋद्धः वृक्षः रुविष्यामि १६० राप्राणो २३४ २३२ ३७५ राप्राणं राप्राणं २३८ रुखं रिद्धो रुक्खो रुच्छं रुड्ढे रुण्णं रुप्पिणी रुम्भावेइ रुम्भेइ रुम्म राप्रादु राप्रादु रामादो रामादो रुदितं रुक्मिणी रुन्धयति रुन्धयति रुणद्धि रोदिति रोयवति ४१३ १८१ ४०२ ३०२ ३६२ ३७५ ४०२ रागात् २३७ २६ २३७ रुवइ कवावेइ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतशब्दः बेह संध रुंधावे रुधेइ रूसइ रूसावेइ रूसेड लखावेइ लखी लट्ठी लडाल लहुई लाखेड लुब्बइ लोणड लोद्धश्रो वनइ वइदेसो लिच्छा लिम्भइ लुडो लुब्धकः लुण्णइ लुनाति लुभिजह लूयते यह बेहो वइरं लुण्णीग्रइ लूयते लूयते नुदति लुब्धकः व बसाहो वइसिश्रो वइसंपाश्रणो चच्चइ बच्चए बच्चहि बच्चहिए संस्कृतरूपम् सूत्राणि शेयवति रुणदि रुग्थयति रुन्धयति रूव्यति रोषयति रोषयति ल लक्षयति लक्ष्मी यष्टि: ललाई लघ्वी लक्षयति लिप्सा लिह्यते चक्ति संदेशः वंदेहः वरं [१७] वैशाखः वैशिकः वैशम्पायनः व्रजति व्रजति वजिता ब्रजिता ४०२ ३६२ ४०२ ४०२ ३८५ ४०२ ४०२ ४०२ १८० १७६ २१५ १८१ ४०२ १६९ ४०७ ५७ ३६७ ४०७ ४०७ ४०७ ३८६ ५७ ३७० ७१ ७१ १९१ ७१ ७१ ७१ ३४१ ३४१ ३४१ ३४१ प्राकृत शब्दः बच्चेद वच्छो वज्जइ वज्जावेइ बजेद चहावेड षड्ढे वण्णइ वत्ता वत्तिश्रा बदई थब्भइ धम्महो वरह वरिसइ वरिसावेड परिसेइ बसही वसिट्ठी वाइ वाश्रा वाइ वारि वारीई विग्रह विग्रड्डी विश्रणा विश्नारुल्लं विइच्छा विक्किणइ बिनकेंद्र विच्छड्डी विज्जा संस्कृतरूपम् सूत्राणि ३४१ खजति वृक्ष, वत्सः अस्पति त्रासयति त्रासयति वर्द्धयति वर्द्धयति वनोति वार्त्ता यतिका बदन्ती उद्यते मन्मथः वृणीते वर्षति वर्षयति वर्षयति वसति: वसिष्ठ: वधू म्लायति वाक् म्लायति वारि वारीणि विनक्ति विर्तादि: बेदना विकारवत् विवत्सा विक्रीणाति विक्रीणाति विच्छदिः विद्या ६७ १२५ ३८० ४०२ ४०२ ४०२ ४०२ ३६३ १६९ १६६ ४१६ ४०७ ९६ ३६८ ३५४ ४०२ ४०२ १७५ ३७ १८१ ३५६ २८५ ३५६ २१६ २१६ ३६३ १७६ १६५ ३१४ १६९ ३६७ ३६७ १७६ १६९ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८ ] प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि २८६, ३१५ ४८ ८८ वेण्हो वल्ली वेवमाना वेवमाणी विश्नः वल्ली वेपमाना वेपमाना युष्मान् युष्माकम् वक्ष्यामि १२१ १७७ १७४ १७४ U V W War २६२ वक्र वोच्छ वंक वंचिनो वंद वञ्चितः वन्द ४०२ १३२ ३६३ ३६१ सृजति शकटं ३९१ ८६ ४०२ १६१ ३८७ १२६ ४०२ विजुली विद्यत विज्जू विद्युत् विञ्छुग्रो वृश्चिकः विडवो विटपः वितिण्हो वितष्णः विम्हो विस्मयः विलसन्तो वलपन विसइ प्रसते विस्सवो विश्वपाः विसावे ग्रासयति विस्सामो विश्रामः विसूरद्द खिनत्ति, खिदति विसेइ प्रासयति विस्सो विश्वः विहलो विह्वल: विभलो विह्वलः वीरित्रं वीर्य बीलइ वीडयति वीलावे वीडयति चीलेइ वीडयति वीसामो विश्रामः वृंदावणं चन्दावन वेप्रह वेद वेअइ वेत्ति वेप्रणा वेदना वेप्रव्वं वेत्तव्यम् वे वेत्तं वेऊण विदित्वा वेच्छ वेत्स्यामि वेष्टते वेष्टते वेष्टते वेष्टते वेण्हू १२९ २०२ ३८० ४०२ १६६ ३८३ ३५७ १३२ १६० ३७० सप्राइ सअढो सइरं सक्क सक्के सक्को सग्गमो सच्चा सज्ज सठावेइ सडइ सढा सण्ण सहं सणेहो सत्तमी सत्थि सद्दहइ सप्फ सभरी सभलो सभलं समिद्धी समिद्धीग्रा, समिद्धीए स्वरं शक्नोति शक्नोति शक्रः सद्गमः सत्या सुज्यते शाठयति शीयते सटा सनोति श्लक्षणं स्नेहः सप्तमी सक्थि श्रद्दधाति शष्पं शफरी सफलः सफलं समृद्धिः ३६३ २०४ १६५ ४१५ १८० ४१५ ४१५ २१७ ३७८ २०६ १७९ वेढइ ३४२ वेढए ३४२ ३४२ वेढेइ २०० १७४ वेढेए ३४२ विष्णुः समुदध्या १४२ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि साला सि सरह सर सरह सरावेद सरिच्छो सरति संसति शृणाति सारयति सदक्षः ३७६ ३६० शाला प्रसि शृगाल: सष्टिः शिथिलः ३७१ ४९ १७५ ६२ १८१ सर: २८२ श्रीः सिमालो सिठ्ठी सिढिलो सिरी सिविणो सि सिंगारो सिंघवं सीभरो सीहो सुप्रह २४६ ४८ स्वप्नः तेषां श्रृंगार सैन्धवं. सीकरः सिंहः १९४ ७६ सुनोति सुकृतिः सुइदी सुज्जो ५० ३५५ १७५ १५१, ११४ ३६५ सूर्यः शृणोति शृणोतु श्रावयति शुश्राव و لم सुण्णइ सुण्णइ सुण्णावेइ सुण्णिनं सुणिज्जा सुण्णी सुण्णीप्रह ع १३५ श्रूयते. सलाहा श्लाघा सबहो शपथ: सव्वज्जो सर्वज्ञः सव्वस्स सर्वस्य, सर्वस्मै सम्वसि, सव्धम्मि, सवत्थ सर्वस्मिन् सव्वा सर्वान, सर्वस्मात् १३५ सव्वाणं सर्वेषाम्, सर्वेभ्यः १३५ सव्वादु सव्वादो सवाहि सर्वस्मात् १३५ सव्वासुत्तो सवाहितो सर्वेभ्यः १३५ सव्वे सर्वे सन्देण १३५ सब्वेसु सर्वेषु १३६ सम्वेहि सर्वेः १३५ सम्वो सर्वः १३४ सव्वं १३५ सहमाणा, सहमाना १७४ सहा सभा सहिणो सखीन् सखायम् सही सखा १५० सहीनो, सहीणो सखायः १५० साठेइ शाठयति सारे सारयति ४०२ م सर्वेण शुश्राव ر श्रूयते ४०६ सुण्णेइ श्रावयति शृणोमि शृण्मः ४०२ ३६७ सुणमु सर्व सुणमो भृणु सहमाणी शृणुत शृण्वन्तु सूर्पनखा ३६७ ३६७ १७४ १५० १५० सहि सुणसु सुणह सुणंतु सुप्पणहा सुपण्णही सुमर सुमराह सुमरेइ सुव्वइ. सुहं स्मरति स्मारयति ४०२ ४०२ श्रूयते ४०६ २०० सुखं Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि सुंडो सुंदेरं शौण्डः सौन्दर्य सूयते ३८० सो सूरो सूर्यः शुष्यति ३५४ सूसह सूसावेह सूसेड शुष्यति ४०२ श्रोता . सेज्जस २४५ १६२ १५७ सेम्जा सेन्जाइ सेज्जाइ सेज्जाइ सेज्जाए तस्य शय्याया: शय्याः शय्याया: शय्यायाः शय्यया शय्यायाम् शय्यया शय्याया:शय्यायाम् शय्या : १६२ १६१ १६२ १६१ १६२ १६२ १५७ १५६ सेज्जाउ सेवा सेवा १७० मेवा २४३ सोनमल्लं सौकुमार्य २०३ सोह श्यति सोच्छ ३६६ सोच्छए सोच्छहिइ सोच्छहिए सोच्छिह सोच्छिए सोच्छिहिद सोच्छिहिए सोच्छेद सोच्छए सोच्छेहिद सोच्छेहिए , सोच्छहिंति श्रोतारः सोच्छति । सोच्छिहिति सोच्छिति सोच्छेति सोच्छसि श्रोतासि सोच्छसे सोच्छहिसि सोच्छहिसे सोच्छिसि सोच्छिसे सोच्छिहिसि सोच्छिहिसे सोच्छेसि सोच्छेसे सोच्छेहिसि सोच्छहिसे सोच्छइत्थ श्रोष्यथ ३६६, ३६७ (बहुवचने) शय्यायाः शय्याः सेज्जाम्रो १५७ १५६ १६२ १६२ शय्याया: शय्यानाम् शय्यायाः सेज्जाणं सेज्जादु सेक्जादो सेज्जाहि सेज्जासु सेज्जासुत्तो सेज्जाहिंता सेज्जाहिं सेज्ज सेज्या शय्यासु शय्याभ्यः १५८ शय्याभिः शय्याम् शय्या शैत्यं सेतं सेलो Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७१ ] संस्कृतरूपम् सूत्राणि । प्राकृतशब्दः प्राकृतशब्द: संस्कृतरूपम् सूत्राणि ३६७ सोच्छह श्रोष्यथ सोच्छहिह सोच्छिह सोच्छिहिह सोच्छेह सोच्छेहिह , सोच्छहित्य श्रोष्यथ (बहुवचने) सोच्छहिह सोच्छित्थ सोच्छिह सोच्छिहित्य सोच्छिहिह सोच्छेह सोच्छेहित्य सोच्छेहिह सोच्छिहिइ श्रोष्यति इत्यादि सोच्छमि श्रोतास्मि सोच्छस्सामि सोच्छस्सं सोच्छहामि सोच्छहिमि सोच्छामि सोच्छाहामि सोच्छिमि सोच्छिस्सामि सोच्छिहामि सोच्छेमि सोच्छेस्सामि सोच्छेस्सं सोच्छेहामि सोच्छेहिमि सोच्छं सोच्छमो श्रोतास्मः सोच्छस्सामो श्रोतास्मः सोच्छहामो सोच्छहित्था सोच्छहिमो सोच्छामो सोच्छाहामो सोच्छाहित्था सोच्छाहिमो सोच्छाहिस्सा सोच्छिमो सोच्छिस्सामो सोच्छिहामो सोच्छिहित्या सोच्छिहिमो सोच्छिहित्था सोच्छेमो सोच्छेस्सामो सोच्छेहामो सोच्छेहित्था सोच्छेहिमो सोच्छेहिस्सा सोण्हा स्नुषा सोरि शौर्य सोहा शोभा संका शङ्का संङ्का संकतो संक्रान्तः संजदो संयतः संझा संध्या संवत्तो संवतः संविल्लइ संवेष्टते संबुदी संवृत्तिः १६६ ३४३ १७५ हदो हतः हम्मद हन्ति ३७० Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतशब्दः हरिसइ हलद्रा हलद्दा (द्रा ) हलद्दा हलद्दी हलिनो हविधानं हस्सइ हसिज्जइ हसिनह हलिनो प्रियं हित्थ हिरी हीरs हुअं हुण्ण इ हणिज्जइ हुण्णीइ हुम्वइ तो हुवइ हुवइत्थ हुवइत्था हुबउ हुवए हुवज्ज हुवज्जा हुवज्जा हुवम संस्कृतरूपम् सूत्राणि ३५४ १६५ १७४ १६५ १७४ हर्षति हरिद्रा हरिद्रा हरिद्रा हरिद्रा हालिक: बभूव हस्यते हस्यते हस्यते हालिक: हृदयं त्रस्तं ही: हियते भूतं जुहोति हूयते हूयते हूयते भवन् भवति भविष्यथ भवथ, भवथः भवतु बभूव भवति भवति भवन्ति [ ७२ ] भवत: भवति भवन्ति भवतः भवामः भवावः ४५ ३३२ ४०५ ४०३ ४०५ ४५ १६० ४१३ १८१ ४०६ ४१० ३७५ ४०७ ४०७ ४०७ ४१८ ३१६ ३३७ ३२४ ३३.७ ३३१ ३१६ ३२२ ३२३ ३२३ ३२२ ३२३ ३२३ ३२७ ३२७ प्राकृतशब्द. हुवमि हुवम हुवमो हुवस्साम हुवस्सामि हुवस्सामु हुवस्सामो हुबसि हुबसु हुसे हुवस्सं हुवह हुवहाम हवहामि हुचहामु हुवामो वह हुबहिए हुवहित्था हुवहित्था संस्कृतरूपम् सूत्राणि ३.२६ ३३२ ३२७ ३२७ ३३६ ३३७ ३३७ ३३७ ३२७ भवामि बभूव भवामः भवावः भविष्यामि भवानि भविष्यामः भवाम भवामः भवावः बभूविम भविष्यामः भविष्यामि भविष्यामः भविष्यामः भवसिं बभूविथ भवितासि भव भवसि भविष्यामि बभूव भवथः भवा भवत भवितास्थ भविष्यामः भविष्यामि भविष्यामः भविष्यामः भविता भविष्यति भविष्यामः भविष्यामः ३२७ ३३२ ३३७ ३३६-३३७ ३३७ ३३७ ३२४ ३३२ ३३४ ३३७ ३२४ ३३७ ३३२ ३२४ ३३४ ३३७ ३३४ ३३७ ३३६ ३३७ ३३७ ३३७ ३३३ ३३७ ३३७ ३३७ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७३ ] प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् सूत्राणि प्राकृतशब्द: संस्कृतरूपम् सूत्राणि भविष्यामि हुवहिम हुवाहिमि भविष्यामः भविष्यामि हुबहिमि ३३७ हुवाहिमु . हुवाहिमो हुवाहिस्सा हुवहिम हुवहिमो बहिय हुचहिस्सा ३७ हुविध भविष्याम ३३७ भविष्यामः भवितास्मः ३३७ भविष्यामः ३३७ प्रभूत् ३३७ बभूव . ३२९ भूयते भविष्यथ ३३७ भवश:, भवथ ३२४ भवामः, भावावः ३२७ हहिसि ३३४ हुवाहसे हुविज्जइ हुवित्थ हुवित्था हुविम हुविमु हुविमो हुर्हिति ३३४ हुवहिह भविष्यामः भविष्यामः भविष्यति भवितास्मः भविष्यामः भविष्यसि भवितासि भविष्यसि भवितासि भवितारः भविष्यन्ति भविष्यथ भवितास्थ भवामः भवावः भवामि भविष्यामि भवानि भवामः भवाव: भवामः भवाव: भवाम भविष्यामः भावयति भविष्यामः भविष्यामि ३३७ ३३४ ३२७ हवाम हुविम्साम हुविस्सामु हुविस्तामो हुविहाम हुविहामु हुविहामो हुवामि हुवाम ३२६ ३३६ ३३७ हुविहित्था ३२७ ३२६ हुवामो ३२७ भविष्यामः भवाम ३३७ भवामः, भवि: ३२७ भविष्यामः *विष्यामः भविष्यामः ३३७ भविष्यामः भविष्यामः ३३७ भविष्यामः भविष्याम भविष्यामः ३३७ भविष्याम ३३७ भवितार: ३३४ भविष्यामः ३३७ भविष्यामः ३३७ भविष्यामः ३३७ भविष्याम ३३७ भवितास्मः भविष्यामः बभूव ३२८ प्रभूत् ३३७ भूयते ४०३ भवति ३२७ हविहिति हुविहिम हुविहिम हुविहिमो rrm» . ४०२ हुवावेह हुवाहाम हुवाहामि ३३७ हुविहिस्सा ३३७ हुवीन हुवाहामु हुवाहामो हुवाहित्या हुवाहिम भविष्यामः भविष्यामः भविष्यामः भविष्यामः ३३७ ३३७ ३३७ ३३७ हुवीप्रद हवेइ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७४ ] संस्कृतरूपम् सूत्राणि । प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् प्राकृतशब्दः सूत्राणि ४०२ हुवेहाम हुवेहामि हुए हुवेज हुवेज्जा हुवेहामु हुवेहामो हुवेहिई हुवेमः हुवेमि हुवेम भावयति भवतु ३३७ बभूव भवति ३१६ भवति ३२२ भवन्ति ३२३ भवतः ३२३ भवति ३२२ भवामः ३२७ भवावः ३२७ भवामि ३२६ बभूव भवामः ३२७ भवावः ३२७ भवानि भविष्यामि ३३६ भविष्यामः ३३७ भवाम ३३७ भवामः, भवाव: ३२७ बभूविम ३३२ भविष्यामः ३३७ भविष्यामि ३३६ हुवेहिए हुवेहित्था हुवेहिम हुवेहिमि हुवेहिमु हुवेहिमो हुवेहिस्सा हुवेमो LEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE !! हुवेहिसि भवितास्थ भविष्यामः ३३७ भविष्यामि ३३७ भविष्यामः ३३७ भविष्यामः ३३७ भविता ३३३ भविष्यति ३३७ भविष्यति भविष्याम ३३७ भविष्यामः ३३७ भविष्यामि ३३६ ३३७ भविष्यामः ३३७ भविष्यामः भवितास्मः ३३७ भविष्यामः भविष्यसि भवितासि ३३४ भवितासि ३३४ भविष्यसि ३३७ भविष्यथ ३३७ भवितास्थ ३३४ भविष्यन्ति भवितारः ३३४ भवन्ति, भवतः ३२३ भवन्तु बभूवुः ३३२ भवितारः भवतः, भवन्ति ३२३ भवितार: ३२४ भवन्तु ३३७ बभूवुः ३३२ १४० हे नारायण हुवेहिसे हवेस्साम हुवेस्सामि हुवेहिह हवेहिति ३३७ ३३७ विषयान्त हुवेस्सामु हुवेस्सामो हुवेसि हुवेसु mr m ३२४ हुति भविष्यामः भविष्यामः भवसि भवितासि बभूविथ भव भवसि भविष्यामि हुवेंतु ३३७ ३२४ हुवेसे हुवेस्सं हुवंति हुवंतु हुवेह बभूव ३३२ भवथः भवथ ३२४ भवत ३३७ हे अग्गि हे णाराण Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतरूपम् सूत्राणि ३३७ भविष्यामः भविष्यामि ३३६ भविष्यामः भविष्यामः भवसि बभूविथ भषितासि भव भविष्यामि ३३७ ३३७ ३३७ ३२४ ३३२ ३३४ ३३७ भूयते होस् ३३४ भषथ, भवथः भवितास्थः भवत भविष्यामः भविष्यामि ३३७ ३३७ [ ७५ ] प्राकृतशब्दः, संस्कृतरूपम्। सूत्राणि प्राकृतशब्दः हे भत्तारा हे भतः १५३ होस्साम है मणंसिणि हे मनस्विनि १७७ होस्सामि हे रण हे अरण्य १८५ हे राधे हे राजन् ! २३३ होस्सामु होस्सामो हे शय्ये १६२ होसि होमावेइ भावयति ४०२ होसु भवति ३१६ बभूव ३३२ होइज्ज ४०३ होइस्था भवथः, भवथ ३२४ होईप्रह भूयते ४०३ होह होउ बभूव ३३१ भवतु ३३७ होएइ भावयति ४०२ होहाम होज्ज भवन्ति, भवतः ३२३ होहामि होज्जा भवति ३२१ होज्जा भवन्ति भवतः ३२३ होहामु होहामो होज्जाइ भवति ३२१ होहि होज्जति भवन्ति, भवतः ३२३ होज्जाति होहित्थ होज्जेह भवति ३२१ होहिस्था होज्जेंति भवन्ति, भवतः ३२३ होहिम होम भवाषः, भवामः ३२६ भवामि होहिमि ३२६ होम भविष्यामि ३३६ होहिम भवानि होहिमो भवाव: ३२७ होहिस्सा भवामः ३२७ बभूव ३३२ होहिसि होमो भवावः ३२७ भवामः ३२७ होहिह बभूबिम होहिहां भवाम ३३७ होहिंति भविष्यामः ३३७ ३३७ भविष्यामः भविष्यामः भविता भविष्यति भविष्यत भविष्यामः भविष्यामः भविष्यामि ३३७ ३३७ ३३७ होमि ३३७ ३३७ भविष्यामः भविष्यामः भविष्यामः भवितास्मः भवितासि भविष्यसि भविष्यत भवितास्थ भाषितार: भविष्यन्ति ३३७ ३३४ ३३७ ३३७ ३३२ ३३४ ३३७ ३३४ ३३७ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७६ ] सूत्राणि । प्राकृतशब्दः प्राकृतशब्दः संस्कृतरूपम् संस्कृतरूपम् सूत्राणि होहीम भवितारः बभूव प्रभूत् भवन्ति बभूवुः होप्ति होंतु ३३७ ३२३ ३३२ ३३४ ३३७ २६५ भवन्तु अहम् सानन्दं प्राकृतानन्दे शब्दानामनुसूचिका । मुनीनां प्रीतये सेयं जिनविजयसूरीणाम् ॥ १. दृगिन्दुनभनेत्राब्दे मासे भाद्रपदे शुभे। कृष्णाष्टम्यां गुरौ बारे कृता गोपालशर्मणा ॥ २ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान सरकार राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान ( Rajasthan Oriental Research Institute ) जोधपुर सपश्चाच्यविधान सूची-पत्र नाडास्मान पुरातन गन्ममाला * प्रधान सम्पादक - पद्मश्री जिनविजय मुनि, पुरातत्वाचार्य अक्टूबर १९६३ ई० Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थ-माला प्रधान सम्पादक-पद्मश्री मुनि जिनविजय, पुरातत्त्वाचार्य प्रकाशित ग्रन्थ १. संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश १. प्रमाणमंजरी, ताकिकचूड़ामणि सर्वदेवाचार्यकृत, सम्पादक - मीमांसान्यायकेसरी पं० पट्टाभिरामशास्त्री, विद्यासागर । मूल्य-६.०० २. यन्त्रराजरचना, महाराजा-सवाईजयसिंह-कारित । सम्पादक-स्व. पं० केदारनाथ ___ ज्योतिविद्, जयपुर। • मूल्य-१.७५ ३. महर्षिकुलवंभवम्. स्व० पं० मधुसूदनप्रोझा-प्रणीत, भाग १, सम्पादक-म० म० ___पं० गिरिधरशर्मा चतुर्वेदी। मूल्य-१०.७५ ४. महषिकुलवैभवम्, स्व. पं. मधुसूदन अोझा प्रणीत, भाग २, मूलमात्रम् सम्पादक-पं० श्रीप्रद्युम्न अोझा। मूल्य-४.०० ५. तर्कसंग्रह, अन्नंभट्टकृत, सम्पादक-डॉ. जितेन्द्र जेटली, एम.ए., पी-एच. डी., मूल्य-३.०० ६. कारकसंबंधोद्योत, पं० रभसनन्दीकृत, सम्पादक-डॉ० हरिप्रसाद शास्त्री, एम. ए., पी-एच. डी.। मूल्य-१.७५ वृत्तिदीपिका, मौनिकृष्णभट्टकृत, सम्पादक-स्व.पं. पुरुषोत्तमशर्मा चतुर्वेदी, साहित्याचार्य। मूल्य-२.०० ८. शब्दरत्नप्रदीप, अज्ञातकर्तृक, सम्पादक-डॉ. हरिप्रसाद शास्त्री, एम. ए., पी-एच.डी. । मूल्य-२.०० ६. कृष्णगीति, कवि सोमनाथविरचित, सम्पादिका-डॉ. प्रियबाला शाह, एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट् । मूल्य-१.७५ १०. नृत्तसंग्रह, अज्ञातकर्तृक, सम्पादिका-डॉ. प्रियबाला शाह, एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट् । मूल्य-१.७५ ११. शृङ्गारहारावली, श्रीहर्षकवि-रचित, सम्पादिका-डॉ. प्रियबाला शाह, एम. ए., पी-एच.डी., डी.लिट् । मूल्य-२.७५ १२. राजविनोदमहाकाव्य, महाकवि उदयराजप्रणीत, सम्पादक-पं० श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम. ए., उपसञ्चालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर । मूल्य-२.२५ १३. चक्रपाणिविजय महाकाव्य, भट्टलक्ष्मीधरविरचित, सम्पादक-पं० श्रीकेशवराम काशीराम शास्त्री। मूल्य-३.५० १४. नत्यरत्नकोश (प्रथम भाग), महाराणा कुम्भकर्णकृत, सम्पादक-प्रो. रसिकलाल छोटा लाल पारिख तथा डॉ. प्रियबाला शाह, एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट् । मूल्य-३.७५ १५. उक्तिरत्नाकर, साधसुन्दरगरिणविरचित, सम्पादक-पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजयजी, पुरा तत्त्वाचार्य, सम्मान्य संचालक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर । मूल्य-४.७५ १६. दुर्गापुष्पाञ्जलि, म०म० पं० दुर्गाप्रसादद्विवेदिकृत, सम्पादक-पं० श्रीगङ्गाधर द्विवेदी, साहित्याचार्य । मूल्य-४.२५ । १७. कर्णकुतूहल, महाकवि भोलानाथविरचित, इन्हीं कविवर की अपर संस्कृत कृति श्रीकृष्ण लीलामत सहित, सम्पादक-पं० श्रीगोपालनारायण बहरा, एम. ए., मूल्य-१.५० १८. ईश्वरविलासमहाकाव्य, कविकलानिधि श्रीकृष्णभद्रविरचित, सम्पादक-भट्ट श्रीमथुरानाथशास्त्री, साहित्याचार्य, जयपुर । स्व. पी. के. गोड़े द्वारा अंग्रेजी में प्रस्तावना सहित । मूल्य-११.५० १६. रसदोधिका, कविविद्यारामप्रणीत, सम्पादक-पं० श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम.ए. मूल्य-२.०० २०. पद्यमुक्तावली, कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्टविरचित, सम्पादक-भट्टश्रीमथरानाथ. शास्त्री, साहित्याचार्य । मूल्य-४.०० २१ काव्यप्रकाशसंकेत, भाग १ भट्टसोमेश्वरकृत, सम्पा०-श्रीरसिकलाल छो० पारीख, अंग्रेजी में विस्तृत प्रस्तावना एवं परिशिष्ट सहित मूल्य-१२.०० शारमा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] २२. काव्यप्रकाशसंकेत, भाग २ भट्टसोमेश्वरकृत, सम्पा० - श्री रसिकलाल छो० पारीख, मूल्य - ८.२५ मूल्य -४-०० २३. वस्तु रत्नकोष, अज्ञातकर्ता क, सम्पा० - डॉ० प्रियबाला शाह । २४. दशकण्ठवधम् पं० दुर्गाप्रसाद द्विवेदिकृत, सम्पा०-पं० श्रीगङ्गाधर द्विवेदी । मूल्य - ४.०० २५. श्रीभुवनेश्वरीमहास्तोत्र, सभाष्य, पृथ्वीधराचार्यविरचित कवि पद्मनाभकृत भाष्यसहित पूजापञ्चाङ्गादिसंवलित । सम्पा० - पं. श्रीगोपालनारायण बहुरा । मूल्य - ३.७५ २६. रत्नपरीक्षादि सप्तग्रन्थ-संग्रह, ठक्कुर फेरू विरचित, संशोधक- पद्मश्री मुनि जिनविजयजी, पुरातत्त्वाचार्य | मूल्य-१.२५ २७. स्वयंभू छन्द, महाकवि स्वयंभूकृत, सम्पा० प्रो० एच. डी. वेलणकर | विस्तृत भूमिका (अंग्रेजी में ) एवं परिशिष्टादि सहित २८. वृत्तजातिसमुच्चय कवि विरहाङ्करचित, २६. कविदर्पण, अज्ञातकर्ता क, मूल्य - ७.७५ मूल्य - ५.२५ " "1 ३०. कर्णामृतप्रपा, भट्टसोमेश्वरकृत सम्पा० - पद्मश्री मुनि जिनविजयजी । ३१. त्रिपुराभारती लघुस्तव, लघुपण्डितविरचित, सम्पा० ३२. पदार्थ रत्नमञ्जूषा, पं० कृष्णमिश्रविरचिता, सम्पा० ३३. वृत्तमुक्तावली, कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्ट कृत; सं० पं० भट्टश्रीमथुरानाथ शास्त्री । मूल्य - ६.०० मूल्य - २.२५ मूल्य - ३.२५ मूल्य- ३.७५ मूल्य - ३.७५ ३४. इन्द्रप्रस्थप्रबन्ध, सम्पा०-डॉ. दशरथ शर्मा । मूल्य - २.२५ ३५. प्राकृतानन्द, रघुनाथकवि-रचित, सम्पा० - पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजयजी । मूल्य - ४.२५ २. राजस्थानी और हिन्दी ३६. कान्हडदे प्रबन्ध, महाकवि पद्मनाभविरचित, सम्पा० - प्रो० के. बी. व्यास, एम. ए. मूल्य - १२.२५ श्रीनगरचन्द मूल्य- ४.७५ ३८. लावा-रासा, चारण कविया गोपालदानविरचित, सम्पा० - श्रीमहताबचन्द खारेड़ । 13 21 21 ३७. क्यामखां - रोसा, कविवर जान- रचित, सम्पा० - डॉ. दशरथ शर्मा और नाहटा । 19 मूल्य - ३.७५ ३६. वांकीदासरी ख्यात, कविराजा वांकीदासरचित, सम्पा० - श्रीनरोत्तमदास स्वामी, एम. ए., विद्यामहोदधि । मूल्य - ५.५० । मूल्य - २.२५ ४०. राजस्थानी साहित्य संग्रह, भाग १, सम्पा० - श्रीनरोत्तमदास स्वामी, एम.ए. ४१ राजस्थानी साहित्य संग्रह, भाग २, सम्पा० - श्रीपुरुषोत्तमलाल मेनारिया, एम. ए., साहित्यरत्न | ४२ कवीन्द्र कल्पलता, कवीन्द्राचार्य सरस्वतीविरचित, सम्पा० - श्रीमती रानी कुमारी चूंडावत । ४३. जुगलविलास, महाराज पृथ्वीसिंहकृत, सम्पा० - श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी ४४. भगतमाळ, ब्रह्मदासजी चारण कृत, सम्पा०-श्री उदैराजजी उज्ज्वल । ४५. राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिरके हस्तलिखित ग्रंथोंकी सूची, भाग १ । ४६. राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठानके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची, भाग २ | ४७ मुंहता नैणसीरी ख्यात, भाग १, मुंहता नैणसीकृत, सम्पा० - श्री बद्रीप्रसाद ४८. २, 71 19 मूल्य - ६.५० ४६. रघुवरजस प्रकास, किसनाजी श्राढाकृत, सम्पा० - श्री सीताराम लाळस । मूल्य - ८.२५ ५०. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची, भाग १, सं० पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । मूल्य - ४.५० ५१. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची, भाग २ – सम्पा० - श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया एम.ए., साहित्यरत्न । मूल्य - २.७५ ५२. वीरवाण, ढाढ़ी बादरकृत, सम्पा०-श्रीमती रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत मूल्य - ४. ५० मूल्य - २.७५ लक्ष्मी मूल्य - २.०० चूंडावत । मूल्य - १.७५ मूल्य - १.७५ मूल्य - ७.५० मूल्य - १२.०० साकरिया । मूल्य - ८.५०. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द . ५३. स्व० पुरोहित हरिनारायणजी विद्याभूषण-ग्रन्थ-संग्रह-सूची, सम्पा०-श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम. ए. और श्रीलक्ष्मीनारायणगोस्वामी दीक्षित । मूल्य-६.२५ ५४. सूरजप्रकास, भाग १-कविया करणीदानजी-कृत, सम्पा०-श्री सीताराम लाळस । मूल्य-८.०० ५५. , , २ , मूल्य-६.५० मूल्य-६.७५ ५७ नेहतरंग, रावराजा बुधसिंहकृत--सम्पा०-श्रीरामप्रसाद दाधीच, एम.ए. मूल्य-४.०० ५८. मत्स्यप्रदेश की हिन्दी-साहित्य को देन, प्रो. मोतीलाल गुप्त,एम.ए.,पी.एच.डी. मूल्य-७.०० ५६. वसन्तविलास फागु, अज्ञातक'क, सम्पा०-श्री एम. सी. मोदी। मूल्य-५.५० ६०. राजस्थान में संस्कृत साहित्य की खोज-एस. आर. भाण्डारकर, हिन्दी-अनुवादक - श्री ब्रह्मदत्त त्रिवेदी, एम. ए., साहित्याचार्य, काव्यतीर्थ मूल्य-३.०० ६१. समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र, श्रीसुखलालजी सिंघवी, मूल्य-३.०० प्रेसों में छप रहे ग्रंथ ____ संस्कृत १. शकुनप्रदीप, लावण्यशरिचित, सम्पा०-पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । २. बालशिक्षाव्याकरण, ठक्कुर संग्रामसिंहरचित, सम्पा०-पंधश्री मुनि श्रीजिनविजय । ३. नन्दोपाख्यान, अज्ञातकर्तृक, सम्पा०-डॉ० बी.जे. सांडेसरा । ४. चान्द्रव्याकरण, प्राचार्य चन्द्रगोमिविरचित, सम्पा०-श्रा बी. डी. दोशी। ५. कविकौस्तुभ, पं० रघुनाथरचित, सम्पा०-श्री एम. एन. गोरे । ६. एकाक्षर नाममाला-सम्पा०-मुनि श्रीरमणिकविजय । नत्यरत्नकोश, भाग २, महाराणा कुंभकर्णप्रणीत, सम्पा०-श्री प्रार. सी. पारिख और डॉ. प्रियबाला शाह । 1. हमीरमहाकाव्यम्, नयचन्द्रसूरिकृत, सम्पा०-पद्मश्री मूनि श्रीजिनविजय । ६. स्थलिभद्रकाकादि, सम्पा०-डॉ० आत्माराम जाजोदिया। १०. वासवदत्ता, सुबन्धुकृत, सम्पा०-डॉ० जयदेव मोहनलाल शुक्ल । ११. आगमरहस्य, स्व० पं० सरयूप्रसादजी द्विवेदी कृत, सम्पा०-प्रो० श्रीगङ्गाधर द्विवेदी। राजस्थानी और हिन्दी १२. महता नैणसीरी ख्यात, भाग ३, मुंहता नैणसीकृत, सम्पा०-श्रीबद्रीप्रसाद साकरिया । १३. गोरा बादल पदमिणी चऊपई, कवि हेमरतनकृत सम्पा०-श्रीउदयसिंह भटनागर, एम.ए. १४. राठौडारी वंशावली, सम्पा०-पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । १५. सचित्र राजस्थानी भाषासाहित्यग्रन्थसूची, सम्पा०-पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय। १६. मीरां-बृहत्-पदावली, स्व० पुरोहित हरिनारायणजी विद्याभूषण द्वारा संकलित, सम्पा०-पद्मश्री मुनि श्रीजिनविजय । १७. राजस्थानी साहित्यसंग्रह, भाग ३, संपादक-श्रीलक्ष्मीनारायण गोस्वामी। १८. रुक्मिणी-हरण, सांयांजी झूला कृत, सम्पा० श्री पुरुषोत्तमलाल मेनारिया, एम.ए.,सा.रत्न १६. सन्त कवि रज्जब: सम्प्रदाय और साहित्य, डॉ. व्रजलाल वर्मा। २०. पश्चिमी भारत की यात्रा, कर्नल जेम्स टांड, हिन्दी अनु० श्रीगोपालनारायण बहुरा, एम.ए. २१. बुद्धिविलास, बखतराम शाहकृत, सम्पा०-श्रीपद्मधर पाठक, एम. ए. २२. प्रतापरासी, जाचीक जीवण कृत, सम्पा०-प्रो. मोतीलाल गुप्त, ए. ए., पीएच. डी. अंग्रेजी 22 Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts Part I. R.O.RI. (Jodhpur Collection ), ed., by Padamashree Jin vijaya Munir. Puratattvacharya. 24. A List of Rare and Reference Books in the R.O.R.I., Jodhpur, compiled by P.D. Pathak, M.A. विशेष-पुस्तक-विक्रेताओं को २५% कमीशन दिया जाता है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________