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प्रास्ताविक वक्तव्य
प्रस्तुत 'प्राकृतानन्द' ग्रन्थ प्राकृत भाषा का एक संक्षिप्त व्याकरण है । इसकी रचना पंडित रघुनाथ ने की है जो कवि-कण्ठीरव के विरुद से अपने आपको उल्लिखित करते हैं । ये ज्योतिर्विद् सरस के पुत्र थे । इसके अतिरिक्त इनके समय और स्थान आदि के बारे में कुछ उल्लेख नहीं मिलता । इस ग्रंथ की एक पुरानी हस्तलिखित पोथी विद्वद्वर्य श्रागमप्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराज को शायद बीकानेर में मिली थी। जिस पर से उन्होंने स्वयं इसकी प्रतिलिपि की थी। यह प्रति जैसा कि इसके अन्त में लिखा मिलता है— संवत् १७२६ में लाभपुर अर्थात् लाहोर में लिखी गई थी । सन् १९५२ में जब मेरा बीकानेर जाना हुआ तो उन्होंने यह ग्रन्थ मुझे दिखलाया । मैंने इसे राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में प्रकट करने का अपना विचार प्रदर्शित किया तो उक्त सौजन्य - मूर्ति मुनिवर ने अपनी वह प्रतिलिपि बड़े आनन्द के साथ मुझे दे दी । मैंने उसको छपने के लिये बम्बई के निर्णय सागर प्रेस में दी । दीर्घकालावधि में यह ग्रन्थ प्रेस ने छाप कर पूरा किया। कुछ अन्यान्य कारणों से भी ग्रन्थ के प्रकाशन और अधिक विलम्ब होता रहा । इस तरह प्रतिलिपि के प्राप्त होने के बाद कोई १० वर्ष अनन्तर अब यह ग्रन्थ पाठकों के कर-कमलों में उपस्थित होने का अवसर प्राप्त कर रहा है ।
'प्राकृतानन्द' प्राकृत भाषा का एक छोटा-सा व्याकरण है । ग्रन्थकार का कहना है कि जो पण्डित के कुल में पैदा हुआ है परन्तु अल्पबुद्धि है और कुछ साहित्य का रसास्वाद करना चाहता है उसके ज्ञान के लिये यह प्रयत्न किया गया है । संस्कृत की तरह प्राकृत भाषा में लिखित साहित्य-संपत्ति बहुत ही विशाल है | विविध विषय के हजारों ही ग्रंथ प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं । यद्यपि ब्राह्मण सम्प्रदाय में प्राकृत साहित्य का उतना अधिक संचय नहीं मिलता है, परन्तु जैन और बौद्ध संप्रदाय में प्राकृत भाषा ही का प्राधान्य रहा और इसलिये इन दोनों संप्रदायों में इस भाषा में लिखित साहित्य-संपत्ति की विशालता बहुत अधिक है। बौद्ध साहित्य की प्राकृत भाषा जो कि मूल रूप में ‘मागधी' भाषा कहलाती है, अब 'पाली' के नाम से प्रसिद्ध हो गई है । परन्तु जैन साहित्य-संपत्ति मुख्य रूप से प्राकृत के व्यापक नाम से ही प्रसिद्धि प्राप्त करती रही है । भाषाविदों ने जैन साहित्य की प्राकृत भाषा को 'अर्द्धमागधी'
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