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प्रस्तुत 'प्राकृतानन्द' वररुचिकृत 'प्राकृत-प्रकाश' का हो एक प्रक्रियात्मक संकलन है । संस्कृत के लघुकौमुदी आदि प्रक्रियात्मक शैली के अनुकरण में रघुनाथ कवि ने 'प्राकृत-प्रकाश' को इस प्रकार प्रक्रियात्मक रूप देकर इस प्राकृतानन्द का संकलन किया है। इसमें कुल ४१६ सूत्र हैं, इससे मालूम देता है कि मूल 'प्राकृत-प्रकाश' के कुछ सूत्र छोड़ भी दिये हैं । पर, साथ में कुछ ऐसे भी सूत्र दिये हैं जो 'प्राकृत-प्रकाश की प्रसिद्ध पुस्तक में नहीं मिलते । चौखम्भाग्रन्थावलि में भामहकृत मनोरमाव्याख्या सहित जो प्राकृत प्रकाश छपा है उसमें कुल ४८७ सूत्र हैं जिनमें के ८७ सूत्र इस प्राकृतानन्द में नहीं हैं; और साथ में इसमें २१ सूत्र ऐसे हैं जो प्राकृत-प्रकाश में नहीं मिलते । तुलना की दृष्टि से दोनों ग्रन्थों की सूत्रसूचि इसके साथ दी जाती है । संशोधक विद्वानों को इसका कुछ उपयोग होगा। मुद्रित प्राकृत-प्रकाश के और प्राकृतानन्द के सूत्रों में कुछ पाठ-भेद भी दृष्टिगोचर होते हैं । लिपिकर्ताओं के कारण ऐसे पाठ-भेदों का होना स्वाभाविक है ।
यह ग्रंथ अभी तक कहीं प्रकाशित नहीं हुआ है। प्रॉफेट ने अवश्य ही इसका सूचन 'कॅटेलागस कॅटलॉगरम्' भा. १; पृ. ३६१ पर किया है । इस कृति का नाम सूचीकार को लाहोर के पण्डित राधाकृष्ण के 'पुस्तकानां सूचीपत्रम्' में मिला है, जो काश्मीर-निवासी पं० राजाराम शास्त्री ने लिखा था और एशियाटिक सोसाइटी बंगाल के प्रोसीडिंग्स्, जून १८८० ई. में इसका उल्लेख हुआ है। प्रस्तुत पुस्तक की प्रेस-कॉपी जिस प्रति से तैयार की गई है वह भी सं. १७२६ वि में लाहोर में ही लिखी गई थी। ___ सौजन्यमूर्ति विद्वद्रत्न मुनिवर श्री पुण्यविजयजी महाराज के प्रति हम अपना हार्दिक कृतज्ञभाव प्रकट करते हैं कि जिन्होंने स्वयं अपने हस्ताक्षरों में प्रस्तुत रचना की सुन्दर प्रेस कापी कर के हमको राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में प्रकट करने के लिये प्रदान की। प्रेस की कठिनाई के कारण इसके प्रूफादि संशोधन कार्य कार्यालय द्वारा ही किया गया अतः कुछ अशुद्धियां भी रह गई हैं। विद्वज्जन उसे स्वयं शुद्ध कर लेंगे, ऐसी विज्ञप्ति के साथ कवि रघुनाथ ने स्वयं ग्रन्थ के प्रारंभ में इस विषय में जो बहुत ही सुन्दर उक्ति प्रकट की है उसी को हम भी यहां पुनः उद्धृत कर देना चाहते हैं ।
दोषदुष्टमिदमित्यवज्ञया हातुमिच्छत न जातु साधवः । शैवलं किल विहाय केवलं निर्मलं किम् न पीयते जलम ।।
जोधपुर दि० २५-६-६३
-मुनि जिनविजय
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