________________ हुए उसे क्रमशः साधना करते हुए छोड़ते हैं, इस विधि का नाम ही सल्लेखना है। आचार्य पूज्यपाद ने कहा है- सम्यक कायकषायलेखना सल्लेखना। कायस्य बाह्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यकलेखना सल्लेखना। -सर्वार्थसिद्धि 7/22 अच्छी तरह से शरीर व कषाय को कृश करना सल्लेखना है। बाह्य शरीर और आभ्यन्तर कषाय को तथा इनको पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए भली प्रकार से लेखन करना, कृश करना सल्लेखना है। आत्मसंस्कारानन्तरं तदर्थमेव क्रोधादिकषायरहितानन्तज्ञानादिगुणलक्षणपरमात्मपदार्थे स्थित्वा रागादिविकल्पानां सम्यक्लेखनं तनुकरण भावसल्लेखना, तदर्थ कायक्लेशानुष्ठानं द्रव्यसल्लेखना, तदुभयाचरणं स सल्लेखनाकालः। . -पंचास्तिकाय टीका, 173/253/17 आत्मसंस्कार के अनन्तर उस आत्मसंस्कार के लिए ही क्रोधादि कषाय रहित और अनन्त ज्ञानादि गुण से सहित परमात्म पदार्थ में स्थिर होकर रागादि विकल्पों का कृश करना भाव सल्लेखना है, और उस भाव सल्लेखना के लिए कायक्लेश रूप . अनुष्ठान करना अर्थात् भोजन आदि का त्याग करके शरीर को कृश करना द्रव्य सल्लेखना है। इन दोनों रूप आचरण का काल सल्लेखना काल कहलाता है। जिसका परिहार नहीं किया जा सके - ऐसा उपसर्ग आने पर, दुर्भिक्ष पड़ने पर, वृद्धावस्था आ जाने पर, अनिवारणीय रोग के उपस्थित होने पर, धर्मध्यानपूर्वक शरीर का परित्याग करना या नियमित काल के लिए चारों प्रकार के आहार व जल का त्याग करना चाहिए। सल्लेखना का उत्कृष्ट काल बारह वर्ष का होता है और जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, इसके मध्य असंख्यात भेद मध्यम सल्लेखना के काल के हैं। मरण के सत्रह भेद हैं, उनमें से पाँच भेद मुख्य हैं- . 1. बाल-बाल मरण 2. बाल मरण 3. बाल-पण्डित मरण 4. पण्डित मरण 5.पण्डित-पण्डित मरण। मिथ्यादृष्टि के मरण को बाल-बाल मरण कहते हैं। असंयत सम्यग्दृष्टि के मरण को बाल मरण कहते हैं। देशव्रती के मरण को बाल-पण्डित मरण कहते हैं। सकल संयमी महाव्रती के मरण को पण्डित मरण कहते हैं। केवली भगवान् के मरण को पण्डित-पण्डित मरण कहते हैं। पण्डित-पण्डित मरण करने वाला उसी भव से, पण्डित मरण करने वाला (उत्तम आराधक) तृतीय भव से, बाल-पण्डित या पण्डित मरण वाला (मध्यम आराधक) चतुर्थ से अष्टम भव तक, बाल मरण करने वाला जघन्य आराधना संख्यात भवों को धारण कर मुक्ति प्राप्त करता है। 1600 प्राकृतविद्या-जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004