Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 12
________________ भूमिका जैन चरित काव्य परम्परा Jesus thes भारतीय महाकाव्यों की परम्परा में जैन चरित काव्यों का विशेष स्थान है। वे काव्य प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश एवं अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं में लिखे गए हैं। वस्तुतः चरित काव्य कोई स्वतन्त्र विधा नहीं हैं, बल्कि यह महाकाव्य का ही एक रूप है। चरित नामान्त जैन महाकाव्यों से तात्पर्य उस प्रकार के महाकाव्यों से हैं, जिनमें किसी तीर्थंकर या पुण्य पुरुष का आख्यान निबद्ध हो, साथ ही वस्तु व्यापारों का नियोजन काव्य शास्त्रीय परम्परा के अनुसार संगठित हुआ हो । अवान्तर कथाओं और घटनाओं में वैविध्य के साथ अलौकिक और अप्राकृतिक तत्वों का अधिक सनिवेश न हो। दर्शन और आचार तत्त्व इस श्रेणी के काव्यों में अवश्य समन्त्रित रहते हैं। कथावस्तु व्यापक, मर्मस्पर्शी स्थानों से युक्त और भावपूर्ण होती है। इनमें रससिद्ध महाकाव्य, पौराणिक महाकाव्य और रोमांचक या कथात्मक महाकाव्य के लक्षणों का समन्वय होता है। प्राकृत चरित काव्य : प्राकृत चरितों की कथावस्तु राम, कृष्ण तीर्थंकर वा अन्य महापुरुष के जीवन तथ्यों को लेकर निबद्ध की गई है। 'तिलोयपण्णत्ती' में चरित काव्यों के प्रचुर उपकरण वर्तमान हैं। 'कल्पसूत्र' एवं जिनभद्र गण क्षमाश्रमण के 'विशेषावश्यक भाष्य' में चरित काव्यों के अर्द्धविकसित रूप उपलब्ध हैं। प्राकृत मैं सर्वप्रथम विमलसूरि ने पउमचरिय की रचना की । ग्रन्थ में इसका रचनाकाल वीर नि. सं. 530 या वि. सं. 60 उल्लिखित हैं। 2 विद्वानों में इसके रचना काल के विषय में विवाद है। डॉ. हर्मन जेकोबी उसकी भाषा और रचना 1 डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री : संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृ. 19 2 पंचैव वासवा दुसमाए, तीसवरस संजुत्ता । वीरे सिद्धिभुवगए तओ निवद्धं इमं चरियं ॥ पउमचरियं (जैन साहित्य और इतिहास पृ. 87 (5)

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