Book Title: Parmatma ka Abhishek Ek Vigyan Author(s): Jineshratnasagar Publisher: Adinath PrakashanPage 25
________________ शाश्वत आचार अभिषेक निधान की प्राचीनता जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सुत्र में मेघकुमार, नागकुमार आदि देवों द्वारा वृष्टि का वर्णन है। ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र में सौधर्मेन्द्र देव से ही हुई वृष्टि का वर्णन है, राजप्रश्न सूत्र में समवसरण की रचना के लिये देवों द्वारा की हुई वृष्टि का वर्णन है। एक समय भगवान श्री महावीर विहार कर रहे थे, तब रास्ते में एक तिल का पौधा देखकर गौशालक ने पूछा कि यह पौधा उगेगा या नहीं, तब भगवान की सेवा में रहे हुए सिद्धार्थ नामक व्यन्तर ने कहा उगेगा और इसमें तिल भी उत्पन्न होंगे । उसका यह वचन मिथ्या करने के लिये गौशालक ने उस पौधे को उखाड़ फेंका। उस समय व्यन्तर देवों ने वहाँ पर जल की वृष्टि की, जिससे उस पौधे की जड़ कीचड़ में घुस जाने से वह उगा भी और तिल भी उत्पन्न हुए। उत्तराध्ययन सूत्र के हरिकेशीय अध्ययन में कहा है कि देवों ने सुगन्धी जल, पुष्प और वसुधारा की वृष्टि की और आकाश में दुंदंभि नाद करके अहोदानं ऐसी उद्घोषणा की। यहाँ देवादि उपलक्षण से योग के लब्धि के और महान तप के प्रभाव से भी वृष्टि होती है । इसलिये वृष्टि प्रयोगजन्य मानना प्रतती पवित्र होता है । श्री भागवत् के पंचम स्कंध के चौथे अध्याय में कहा है कि भगवान श्री ऋषभदेव से स्पर्धा करके इन्द्र ने वर्षा न बरसाई तब ऋषभदेव भगवान ने अपने आत्मबल के योग से वर्षा कर अपना अजनाभ नाम यथार्थ किया । इस तरह लौकिक लोकोत्तर शास्त्र क विरुद्ध देव क्या करते हैं? योग मंत्र आदि के प्रभाव से क्या होता है? सब अपने कर्मों से होता है इत्यादि मूढ जनों का वचन प्रमाणिक नहीं मानना चाहिए। श्री अर्हद् अभिषेक सर्वप्रथम वादि - वेताल श्री शान्तिसूरिवरजी म. सा. द्वारा रचना हुई ( मालवा में महाराजा भोज की सभा में श्री शान्तिसूरिवरजी ने भिन्न-भिन्न मतधारी 84 वारीओं को जीतने से महाराजा भोज ने उन्हें वादि-वेताल बिरूद अर्पण किया था ।) उनके बाद कई आचार्यो ने भिन्न-भिन्न नाम से बहुत सारी अभिषेक विधिओं की रचना की जिसमें “चक्रे देवेन्द्रराजैः” यह काव्य बोलते हुए 108 बार अभिषेक करने की विधि अति प्राचीन है । यह 8Page Navigation
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