Book Title: Parmatma ka Abhishek Ek Vigyan
Author(s): Jineshratnasagar
Publisher: Adinath Prakashan

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Page 28
________________ प्रभुजीने चोखाथी वधाववा... वधावी बोले हे रत्नकुक्षी ! धारिणि तुज सुततणो; हुं शक सोहम नामे करशुं, जन्म महोत्सव अति घणो; ओम कही जिन प्रतिबिम्ब स्थापी, पंच रूपे प्रभु ग्रही; देव - देवी नाचे हर्ष साथे, सुरगिरि आव्या वही। पूर्वली मेरू उपरजी, पांडुक वनमें चिहुं दिशे; शिला उपरजी, सिंहासन मन उल्लसे; तिहां बेसीजी, शके जिन खोळे धर्याः हरि त्रेसठजी, बीजा आवी मल्या। मल्या चोसठ सुरपति तिहां, करे कळश जातिना; मागधादि जळ तीर्थ औषधि, धूप वळी बहु भांतिना; अच्युतपतिले हुकम कीनो, सांभळो देवा सवे; क्षीरजळधि गंगा नीर लावो, झटिति जिन महोत्सवे। सुर सांभलीने संचर्या, मागध वरदामे चलिया; पद्मद्रह गंगा आवे, निर्मळ जल कळशा भरावे। तीरथ जळ औषधि लेता, वळी क्षीर समुद्रे जाता; जळ कळशा बहुल भरावे, फूल चंगेरी थाळा लावे। सिंहासन चामर धारी, धूप धाणा रकेबी सारी; सिध्धांते भाख्या जेह, उपकरण मिलावे तेह। ते देवा सुरगिरि आवे, प्रभु देखी आनन्द पावे; कळशादिक सहुं तिहां ठावे, भक्ते प्रभुना गुण गावे।

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