Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 17
________________ जैन दर्शन का नयसिद्धांत कहलाते हैं। नयों का स्वरूप ___ जैन दार्शनिकों का कहना है कि सत् की अभिव्यक्ति के लिए भाषा के जितने प्रारूप (कथन के ढंग) हो सकते है, उतने ही नय, वाद अथवा दृष्टिकोण हो सकते हैं। वैसे तो जैन दर्शन में नयों की संख्या अनन्त मानी गई है, लेकिन मोटे तौर पर नयों के दो भेद किये जाते है जिन्हें १. निश्चयनय और २. व्यवहारनय कहते है। निश्चयनय और व्यवहारनय में सभी नयों का आन्तरभाव हो जाता है। भगवतीसूत्र में इन दोनों नयों का प्रतिपादन ही बडे ही रोचक रूप में किया गया है - गौतमस्वामी भगवान महावीर से पूछते है कि भगवान प्रवाही गुड में कितने रस, वर्ण, गन्ध और स्पर्श होते हैं ? महावीर कहते है कि, गौतम मैं इस प्रश्न का उत्तर दो नयों से देता हूँ। व्यवहारनय से तो वह मधुर कहा जाता है, लेकिन निश्चयनय से उसमें पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श होते हैं। वस्तुत: निश्चय और व्यवहार दृष्टियों का विश्लेषण यह बताता है कि वस्तु तत्त्व न केवल उतना ही है, जितना इन्द्रियों के माध्यम से वह हमे प्रतीत होता है अथवा बुद्धि उसके स्वरूप को निश्चय कर पाती है, सत् स्वरूप को समझने के लिए इन्द्रियानुभूतिजन्यज्ञान और बुद्धिजन्यज्ञान उसके व्यावहारिक पक्ष को ही पकड पाते है, क्योंकि बुद्धि भी भाषा पर आधारित है और भाषा का शब्द भण्डार अति सीमित है। इसी प्रकार अपरोक्षानुभूति भी या आत्मिक अनुभूति भाषा और बुद्धि निरपेक्ष होती है। जिसे अर्न्तदृष्टि या प्रज्ञा कहा जाता है। निश्चयनय अपरोक्षानुभूति पर और व्यवहारनय इन्द्रियानुभूति और बौद्धिक ज्ञान पर निर्भर करती है। इस प्रकार व्यवहारनय भी इन्द्रियानुभूति और बौद्धिक विमर्श दोनों की अपेक्षा रखता है। इस प्रकार जैन दर्शन में ज्ञान और उसकी अभिव्यक्ति के इन्द्रियानुभूतिजन्यज्ञान, बौद्धिकज्ञान और आत्मिकज्ञान ऐसे ज्ञान के तीन विभाग भी किये गये हैं। ठीक इसी प्रकार बौद्ध दर्शन के विज्ञानवाद में भी परिकल्पित, परतंत्र और परिनिष्पन्न ऐसे ज्ञान के तीन भेद किये गये हैं। बौद्ध दर्शन का शून्यवाद भी इसे मिथ्या संवृत्ति, तथ्य संवृत्ति और परमार्थ ऐसे तीन रूपों में व्यक्त करता है। आचार्य शंकर ने भी इन्हें ही प्रतिभासिक सत्य, व्यावहारिक सत्य और पारमार्थिक सत्य ऐसे तीन विभागों में बाँटा है। इन्द्रियानुभूति और बौद्धिक ज्ञान व्यवहार पक्ष को प्रधानता देते हैं, अत: इनको मिला देने पर दो विधाएँ ही शेष रहती है - व्यवहार (व्यवहारनय) और परमार्थ (निश्चयनय)।

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