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नीतू बाफना
रूप से कहे गये वचनों का खंडन करना । सातियोग- उत्तम वस्तु में हीन वस्तु मिश्रित
करना।
संक्षेप में मन में कुछ, वचन में कुछ और काय में कुछ और ऐसी वक्रता जीवन में होना माया है। ५. लोभ
मोहनीय कर्म के उदय से चित्त में उत्पन्न होने वाली तृष्णा या लालसा लोभ है। इसकी १६ अवस्थाएँ हैं- लोभ-संग्रह करने की वृत्ति । इच्छा - अभिलाषा । मूच्छातीव्रतम संग्रहवृत्ति । कांक्षा प्राप्त करने की आशा । गृद्धि प्राप्त वस्तु में आसक्ति होना । तृष्णा - जोडने की इच्छा, वितरण की विरोध वृत्ति । मिथ्या- विषयों का ध्यान । अभिध्या - निश्च से डिग जाना। आशंसना- इष्ट प्राप्ति की इच्छा करना । प्रार्थना - अर्थ आदि की याचना । लालपनता- चाटुकारिता । कामाशा - काम की इच्छा। भोगाशा - भोग्य पदार्थों की इच्छा। जीविताशा- जीवन की कामना । मरणाशा - मृत्यु की कामना । नन्दिराग - प्राप्त सम्पत्ति में अनुराग ।
६. हास्य- खिली ठठ्ठा करना, मजाक करना । ७. रति- आरम्भ आदि असंयम-3 -प्रमाद में राग करना। ८. अरति-संयम, तप आदि में अरति या द्वेष करना । ९. भय- इहलोक, परलोक, मरण, वेदना, अजस्मात् भय, आरक्षण भय, अगुप्त भय । १०. शोक - इष्ट वियोग में शोक-विह्वल होना । ११. जुगुप्सा - ग्लानि होना । १२. स्त्रीवेद-पुरुष के साथ रमने का भाव । १३. पुरुषवेद- स्त्री के साथ रमने का भाव । १४. नपुंसकवेद - स्त्री-पुरुष दोनों के साथ रमने का भाव ।
उपर्युक्त चौदह प्रकार का आभ्यन्तर परिग्रह ही निश्चय से भाव परिग्रह है । यही मूल दुःख है।
बहिरंग परिग्रह
केवल चैतन्य आत्म तत्त्व को छोडकर जिन-जिन पदार्थों का संयोग आत्मा के साथ होता है, वे सभी पदार्थ परिग्रह हैं। चूंकि इन वस्तुओं का संयोग होने से वियोग निश्चित होता है अतः वे बाह्य परिग्रह हैं। कर्म भी पौद्गलिक है, शरीर भी पौद्गलिक है, ये दोनों बद्ध परिग्रह हैं और इन्द्रिय भोग्य पदार्थ जिनसे विषय भोगे जाते हैं वे अबद्ध पदार्थ हैं। वे अबद्ध पदार्थ हैं। वे नौ प्रकार के हैं
१. क्षेत्र - खेत, बाग, बगीचे आदि । २. वास्त - भवन, घर, दुकान, बंगला आदि । ३. चांदी - चांदी के आभूषण या चांदी । ४. सुवण- सोना या सोने के