Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 154
________________ भिखारी राम यादव १४८ हमारे अच्छे कर्म का अच्छा और बुरे कर्म का बुरा फल प्रदान करता है। वह यह नहीं बताना चाहते थे कि हमारी आत्मा उसी तरह पुरानी जीर्ण-शीर्ण शरीर को छोडकर नयी शरीर धारण करती है जिस तरह हम पुराने वस्त्रों को छोडकर नये वत्रों को धारण करते हैं। इस तरह के उपदेश से जनता गुमराह होती है और ऐसे विचार ही हमारी सारी सामाजिक बुराईयों के उद्गाता हैं क्योंकि वास्तविकता इस तरह की नहीं है। वह तत्त्व तो इतना रहस्यमय है, इतना गूढ है कि उसके विषय में इन अक्षम शब्दों द्वारा यथार्थतः कुछ भी कह पाना संभव नहीं हैं जो कुछ भी हम उसके विषय में कहते हैं वह आंशिक सत्य होता है, यथार्थ एवं पूर्ण सत्य से काफी दूर होता है और उस आंशिक ज्ञान से पूर्ण ज्ञान पर पहुँचना असंभव है । भगवान् बुद्ध आंशिक ज्ञान देकर सात अंधों की कहानी को चरितार्थ नहीं करना चाहते थे । इसलिए वे चाहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति तत्त्व की अनुभूति स्वयं करें क्योंकि अनुभूति के द्वारा ही तत्त्व का सत्य ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। भाषा के द्वारा तत्त्व का विश्लेषण करके उसका यथार्थ ज्ञान कराना कथमपि संभव नहीं है। यही कारण है कि उन तत्त्वों के विषय में पूछे जाने पर वे मौन हो जाया करते थे या उसे अव्याकृत कह देते थे। यह बात जैन दर्शन भी स्वीकार करता है इसका विवेचन हम पूर्व में कर आये हैं। इस तरह जैन का अवक्तव्य और बौद्ध का अव्याकृतवाद कुछ अर्थों में बिल्कुल एकार्थक हो जाता है। संदर्भ एवं टिप्पणियाँ १. श्लोकवार्तिक २/१/६/५६/४७७/६ २. सप्तभंगीतरंगिणी, पृ. ६० ३. वहीं, पृ. ७० ४. श्लोकवार्तिक, २/१/५६/४७७/६ ५. दार्शनिक त्रैमासिक वर्ष १८, अंक २, अप्रैल १९७२, पृ. ११३ ६. वहीं ७. राजवार्तिक १/२६, उद्धृत जैन भाषा दर्शन, पृ. ८२ ८. दीघनिकाय १, पोट्ठपाद सुत्त ९. मज्झिमनिकाय, भाग २, २ : १ (सव्वासवसुत्त) १०. वहीं. ११. संयुत्तनिकाय पालि भाग, ३, ४४ : ८ ( अव्याकृत संयुत्त ) १२. वहीं, भाग २, ४४ : ८ ( व्याकृतसंयुत्त ) १३. वहीं, भाग ३, ४४ : ८ -

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