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पुस्तक-समीक्षा
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वाला विकल्प 'प्रजातंत्रात्मक यांत्रिकीकरण' की परिकल्पना में दीखता है। लेकिन ‘प्रजातंत्रात्मक यांत्रिकीकरण की अवधारणा एवं उसकी अनुप्रयुक्तता के लिए और अधिक विमर्श अपेक्षित रह जाता है।
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प्रौद्योगिकी, आधुनिकता एवं पूंजीवादी नियति से जूझने का समाधान संभवतः लेखक को हिन्द स्वराज के पुनर्पाठ में दीखता है। यहां भी चाय विज्ञान, प्रौद्योगिकी, एवं आधुनिक सभ्यता के इर्द गिर्द घूमता है। जब लेखक लिखते हैं कि आधुनिकता ने मनुष्य को सृष्टि नहीं स्रष्टा के स्थान पर प्रतिष्ठित किया है (पृ. 28) और पूर्व के अध्याय में वे मानव की स्थिति प्रौद्योगिकीय आधुनिक युग में 'व्यक्तित्वरहित उपभोक्ता' मात्र बताते हैं तो प्रौद्योगिकी को लेकर हमारा द्वंद्व मुखर हो उठता है। आधुनिकता समस्याग्रस्त नहीं, दुविधाग्रस्त भी है (पृ. 29 ) । आज उन समस्याग्रस्तता का हल खोजना ही सामाजिक दार्शनिक चिंतन का केन्द्रीय वि य है। हिन्द स्वराज' आधुनिकता एवं सभ्यता के पाश्चात्य मॉडल की समीक्षा करता है और सत्याग्रह के द्वारा वैकल्पिक सभ्यता (सर्वोदय, स्वराज्य) एवं वैकल्पिक आधुनिकता को रेखांकित करता है। इस आलेख में लेखक भारतीय आधुनिकता के मॉडल के वैकल्पिक प्रारूप को खंगालने की कोशिश करते हैं।
इसमें यंत्र के दुरुपयोग एवं ऐन्द्रिय भोगवादी सभ्यता पर गहरी चोट है। गांधी भोंग की हद बांध देते हैं। स्प ट है कि पश्चिमीकरण और मशीनीकरण का विरोध वास्तव में औपनिवेशिक सत्ता और संस्कृति का विरोध है, पश्चिम मात्र का विरोध नहीं है। रॉबर्ट यंग इसे 'काउंटर मॉडर्निटि' (Counter modernity) कहते हैं जिससे लेखक सहमत नहीं होते हैं। लेखक गांधी को 'साम्राज्यवादी विरोधी आधुनिकता' के प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं जिसमें सामाजिक आवश्यकता और नैतिकता का अटूट संतुलन है। 'हिन्द स्वराज' वस्तुतः एक मूल्य व्यवस्था की रचना करता है जिसमें 'स्व' एवं 'अन्य' दोनों के व्यापक सम्मान एवं विस्तार की संभावना है। गांधी के 'हिन्द स्वराज' एवं मार्क्स- एन्जेल्स के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में भेद है, लेखक, इसे भी रेखांकित करते हुए हिन्द स्वराज को एक प्रभावशाली यूटोपिया की हैसियत देते हैं और मानते हैं कि जहाँ से यात्रा प्रारम्भ की जा सकती है।
चतुर्थ आलेख पवित्र साधन की तलाश की कड़ी को बढ़ाता है। गांधी के लिए सत्याग्रह के बिना सांची सभ्यता, सर्वोदय एवं स्वराज्य की स्थापना असंभव है। लेकिन युग बदला है, युग धर्म भी बदला है इसलिए इसकी सफलता एवं असफलता के वस्तुनिष्ठ एवं आत्मनिष्ठ कारकों को खंगालने एवं उसे बेहतर बनाने के स्पष्ट प्रयास ही इस आलेख का अभीष्ट है। इस आलेख की उपलब्धि यही है कि वे सत्याग्रह की असफलता के कारकों का आइना दिखाने में सफल हो जाते हैं । सत्याग्रह की असफलता में बदली परिस्थिति में सत्याग्रही का किसी व्यापक हित के