________________
१६०
... पूर्णेन्दु भोखर
लिए लंबे संघर्ष के लिए सुदीर्घ, निरंतर और समर्पित साहस, धैर्य एवं चरित्र का न होना एक मिसिंग लिंक है। इन मिसिंग लिंक की तलाश में लेखक मदद करते हैं
और सत्याग्रह का नया स जनात्मक स्वरूप विकसित करने का आग्रह भी करते हैं ताकि आज के समय में इसे अधिक कारगर एवं प्रासंगिक बनाया जा सके।
___ गांधी को आधुनिकता के विरोधी एवं उत्तर आधुनिक सिद्ध करने की होड़ में लेखक अपने को उक्त पंक्ति से अलग खड़ा करते हैं। उनके अनुसार गांधी को किसी एक मॉडले 'पर फिट नहीं किया जा सकता है। “गांधी एक वैकल्पिक सभ्यता के प्रतिनिधि के रूप में हमारे सामने आते हैं जिसमें पूर्व-आधुनिक, आधुनिक और उत्तर आधुनिक तीनों धाराओं का संगम है, जिनको अलगाना आसान नहीं है। (पृ. -26) 'गांधी : आधुनिक या उत्तर आधुनिक’ इस आलेख में लेखक इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। वैसे यह सच है कि भिन्न-भिन्न स्तरों में जीने वाले भारतीय समाज का बहुत बड़ा वर्ग आधुनिकता एवं उत्तर आधुनिकता की पाश्चात्य अवधारणा को स्पर्श ही नहीं कर पाया है।
इक्कीसवीं सदी में कुछ मुद्दे ऐसे हैं, जिनके लिए चिंतन को भिन्न ढंग से व्यवस्थित करने की जरूरत है। दलित-मुक्ति, संभोग के उच्चतम रूपांतरण की संभावना, राजनीति और नैतिकता आदि कुछ ऐसे ही मुद्दे हैं। ये प्रौद्योगिकीय युग की समस्या से भिन्न लगते हैं लेकिन संपूर्ण मानवता की रक्षा के संघर्ष से दलित-मुक्ति के विमर्श को अलग नहीं किया जा सकता है। लेखक का दलित-मुक्ति के संबंध में बीज वाक्य है 'हिन्दू धर्म और परंपरा के दायरे में दलित-मुक्ति संभव नहीं है' (पृ. -83)। चूंकि यह हिन्दू धर्म की व्यवस्था का ही एक अंग है (पृ. 83)। समझने की आवश्यकता है कि वर्ण और जाति भेद हिन्दू धर्म की सिर्फ आध्यात्मिक व्यवस्था नहीं है, यह संपत्ति और उत्पादन के भौतिक साधनों के वितरण की भी व्यवस्था है। इसी बिन्दु पर लेखक को दलित मुक्ति की कल्पना के साकार होने की संभावना दीखती है। इस तथ्य का उद्घाटन कि अम्बेडकर को लगा कि भारतीय राज्य को सामाजिक और आर्थिक रूप से नि पक्ष बनाना ऐतिहासिक रूप से संभव नहीं है - इसी कारण उन्होंने नवगठित भारतीय राज्य को संवैधानिक रूप से तटस्थ बनाने की मुहिम लाई - यह तंद्रा-भंग करता है कि डॉ. अम्बेडकर किस हद तक भारतीय सामाजिक व्यवस्था को समझते थे एवं उसके निर्माण में नाजुक पक्षों की गंभीरता के प्रति कितने सजग एवं सावधान थे। फिर भी “भारतीय लोकतंत्र दलितों के प्रति सिर्फ अप्रत्यक्ष पक्षधरता का गुनहगार बनकर रह गया। किन्तु यही अप्रत्यक्ष गुंजाईश उनके मौजूदा सामाजिक मुकाम, उनकी राजनीतिक ताकत और उनके भविष्य के सपनों को ठोस आधार भी प्रदान करती है (पृ. 85)। हॉलाकि इसकी परिणति यह हुई. है कि इस व्यवस्था में सामाजिक समरसता (सौहार्दता) का लक्ष्य कभी हासिल न करने वाला