Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

View full book text
Previous | Next

Page 167
________________ पुस्तक-समीक्षा . १६१ लक्ष्य बनकर रह गया। लेखक का मानना है कि गांवों के आर्थिक विकास किये बिना केवल वर्ग-संघर्ष एवं दलित राजनीति से दलितोद्धार या उनका भाग्य नहीं बदलने वाला है। इसके लिए जाति प्रथा को समाप्त करना आवश्यक है। पर इतना अवश्य है कि इसका जवाब गैर द्विज जातिवाद कदापि नहीं है जो एक भटकाव है। लेखक को 'जातिवाद की समाप्ति एवं सवर्णों के प्रायश्चित में इसका समाधान दीखता है। किंतु लेखक जातिवाद समाप्ति का उपाय नहीं बतलाते हैं। वैसे जातिवाद की समाप्ति एवं सवर्णों का प्रायश्चित्त दोनों जटिल एवं लंबी प्रक्रिया को आत्मसात किए हुए है। हिन्द स्वराज के पुनर्पाठ की तरह लेखक ओशो रजनीश के 'संभोग से समाधि की ओर' का पुनर्पाठ भी करते हैं। प्रस्तुत लेख ओशो के काम, आध्यात्म और विवाह-संबंधी विचारों का आधुनिक संदर्भ में समीक्षा का छोटा-सा प्रयास मात्र है (पृ. 90)। इस पुस्तक के पहले आलेख के साथ इस विमर्श का सूत्र भी जोड़ा जा सकता है। इतना तय है कि प्रौद्योगिकीय आधुनिक युग में समाज में नारी की स्थिति में परिवर्तन के साथ-साथ प्रेम, विवाह और परिवार की परिभाषाएं भी बदलने लगी है। इस आलेख से लेखक विवाह, प्रेम-विवाह, लिव-इन-रिलेशन एवं समलिंगी सम्बन्ध के विकल्प के विमर्श को अनजाने में छेड़ देते हैं। हांलाकि मूल प्रश्न है 'व्यक्ति और समाज में काम का क्या महत्त्व है, एक श्रेष्ठ जीवन में उसकी क्या मर्यादाएं होनी चाहिए (पृ. 91)। ओशो ने काम के संबंध में दृष्टि बदलने की कोशिश की है। उन्होंने विवाह को अप्रत्यक्ष रूप से नकारा और प्रेम एवं प्रेम रूपी विवाह को शुभ बताया। प्रेम यदि विवाहपूर्व जन्म ले सकता है तो विवाहोत्तर वह जन्म ले. ही नहीं सकता है एवं विवाह यदि कलहों का क्रीडांगन है तो प्रेम विवाह कलहों का क्रीडांगन हो ही नहीं सकता है - इन निश्चयात्मक निष्कर्ष पर ओशो कैसे आते हैं,तनका आधार ही खोखला लगता है। ऐसा कहना चाहिए कि विवाह को व्यर्थ, मिरर्थक एवं सबसे खराब व्यवस्था बतलाना आज एक सामाजिक आस्तिकता एवं आधुनिकता का प्रतीक मान लिया गया है। विवाह या कोई संबंध कलहों का क्रीडांगन न हो यह वैयक्तिक एवं सामबंधिक परिपक्वता, प्रतिबद्धता, दीर्घ उत्पादकता, शुद्धता आदि पर निर्भर है, जिसकी कमी व्यष्टियों में होती है, विवाह में नहीं। ऐसा लगता है कि ओशो संभोग की उर्जा को आध्यात्मिक सेक्स (प्रेम) में रूपांतरित करने में एवं प्रेम विवाह को विवाह के विकल्प के रूप में प्रतिष्ठित करने में असफल हो गए हैं। काम में आध्यात्मिकता आ ही नहीं पाती और व्यापक आध्यात्मिकता या उच्चतम ज्ञानावस्था (समाधि) में 'काम' काम रह ही नहीं जाता है। दोनों के बीच सही मायने में कोई ब्रिज प्रिंसिपल नहीं मिल पाता है। लेखक भी इस निष्कर्ष पर आते हैं कि 'विवाह का कोई सार्थक

Loading...

Page Navigation
1 ... 165 166 167 168 169 170 171 172