Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 169
________________ पुस्तक-समीक्षा १६३ नहीं लेखक यह मानते हैं कि इस समय संस्कृति को राष्ट्र-राग्या की सीमाओं में बांधकर रख पाना संभव नहीं है लेकिन राष्ट्र की संप्रभुता के महत्व को नकारा भी नहीं जा सकता है। राष्ट्रीय संप्रभुता, सांस्कृतिक स्वायत्तता की अनिवार्य शर्त है (पृ. 110)। लेकिन आज अपनी अस्मिता के लिए इस तरह का निर्णय गलत होगा कि पश्चिमी संस्कृति का सभी कुछ त्याज्य है और हमारी सांस्कृतिक परंपरा में सभी कुछ पूज्य है जिसके लिए लेखक आलोचनात्मक विवेक एवं अपनी जिम्मेदारी को विकसित करने की आवश्यकता महसूस करते हैं। ___ आध्यात्म और नई सदी की चुनौती, एवं इक्कीसवीं सदी की चुनौती और व्यावहारिक वेदांत में लेखक नई सदी में आध्यात्म एवं व्यावहारिक वेदांत की प्रासंगिकता ढूंढते हैं जो रूचिकर एवं व्यवस्थित ढंग से हमारे समक्ष कुछ महत्त्वपूर्ण विचारों को स्पष्ट करते हैं। जो लोग दर्शन के मर्मज्ञ डॉ. देवराज एवं श्री शिव नारायण अग्निहोत्री (देवात्मा) को जानते हैं उनके लिए लेखक इन दोनों के मूल्य एवं नैतिकता-संबंधी विचार का फलक खोलते हैं जो ज्ञानवर्धक भी है एवं कुछ अनछुए परत को भी खोलता है। यह पुस्तक कई लेखों (13) का संकलन है। कई विषयों में अन्तसंबंध नहीं रहने पर भी उनका विमर्श खींचता है। कई लेखों में अन्तर्संबंध तलाशै जा सकते हैं। यौं तो इस संग्रह के सभी आलेख वैचारिक रूप से संवाद की सहभागिता के लिए प्रेरित करते हैं क्योंकि लेखक की शैली ही कुछ ऐसी है कि वे प्रत्येक विषय से संबद्ध विविध विमर्श के तार को झंकृत कर देते हैं। वे अपने ही कई ती से जूझते हैं और परि कृत तों की स्थापना के लिए हमेशा तत्पर एवं उन्मुख होते हैं। संवाद करने में प्रश्नों की स्पष्टता, विषयों की समसामयिकता, बेहतर तकों की खोज की व्याकुलता ही इस पुस्तक की सबसे बड़ी सफलता है। आधुनिकता. प्रौद्योगिकी, उत्तर आधुनिकता, दलित-मुक्ति, संभोग से समाधि, इक्कीसवीं सदी और व्यवहारिक वेदांत, भूमंडलीकरण आदि विषयों को रखकर लेखक इन सभी विमर्श में आधुनिक युग में भारतीय जीवन के सूत्रों की महत्त्वपूर्ण एवं प्रासंगिक तलाश करना कभी नहीं भूलते हैं। परंतु इतना अवश्य है कि कुछ आलेख लेखक का पसंदीदा लगता है, जिसमें चिंतन का सूक्ष्म प्रवाह, तों का तरकश एवं विचार रूपी तीरों का पैनापन अंदर तक छूता है। अंत में लेखक की तरह यह कहना उपयुक्त लग रहा है कि बाकी क्या कुछ बन पाया, इसका निर्णय तो अब आपके हाथों में है। लेकिन ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है कि यह पुस्तक सुव्यवस्थित, सुचिन्त्य संवाद को आमंत्रित करने में सफल होगी एवं ज्ञान के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण अवदान देगी। इस उम्मीद एवं मंगलकामनाओं के साथ।

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