Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 168
________________ १६२ पूर्णेन्दु भोखर विकल्प उपलब्ध नहीं है (पृ. 100) सामाजिक पहलू की अवहेलना करने से ओशो संभोग से समाधि तक पहुँचने में असफल हो जाते हैं। लंबे समय तक कर्तव्य निर्वाह एवं लोकहित की निरन्तर वृद्धि ही विवाह के सामने किसी अन्य विकल्प को टिकने नहीं देता है। मेरा मानना है कि मूल्यों के दरकने मात्र को किसी सुदीर्घ एवं श्रेष्ठ व्यवस्था से पल्लू झाड़ने का अवसर नहीं समझना चाहिए। इतना ही नहीं समाधि तक पहुँचने के कई और विकल्प हैं। विवाह के विविध रूप, विवाह के दायित्व', सोलह संस्कार, ऋण की अवधारणा, पुरुषार्थ आदि को केन्द्र में लाकर इस विमर्श के व्यापक आकाश में पाठक विचरण कर सकते हैं। आज राजनीति और नैतिकता बड़ा ही प्रासंगिक मुद्दा है। लेखक सार्च के कथन से राजनीति में चिह्नित धर्म-संकट (गंदे हाथों) की ओर संकेत करते हैं। लेखक दो दृष्टियों को सामने लाते हैं (1) जो नैतिकता को राजनीतिक स्वार्थ के आगे सदैव वरीयता देते हैं (कांट) (2) जो राजनीतिक स्वार्थ के आगे नैतिकता को त्याज्य अथवा अतिवादी मानते हैं (मैक्यिावैली)। इस क्रम में विमर्श को आगे बढ़ाते हुए मेक्स बेबर एवं माइकेल वाल्जर के विचारों को रेखांकित करना राजनीति एवं नैतिकता की दुविधाओं का गांठ और अधिक स्पष्ट ढंग से खोलता है। लेखक बतलाते हैं कि आधुनिक प्रजातंत्र में राजनीतिक पद पर आसीन किसी राजनयिक को ऐसे तीन कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है जो उसे व्यक्तिगत नैतिकता से परे सोचने पर मजबूर करता है। (पृ. 122) लेकिन कुल मिलाकर गंदे हाथों की परिघटना का रोचक विवेचन और उसके राजनीतिक संदों की व्याख्या हमें राजनीतिक नैतिकता का नया मॉडल गढ़ने की जरूरत की ओर संकेत करती है। इसी की स्थापना इस आलेख की सार्थकता सिद्ध करती है। भूमंडलीकरण, आधुनिकता की ही तार्किक परिणति है, किंतु नये संदर्भो में उसने नया अर्थ और गति ग्रहण कर ली है, जिसकी ओर ध्यान देना जरूरी है। हार्वे भूमंडलीकरण को समय-स्थान संकुचन (time-space-compression) कहते हैं। (पृ. 104) जहाँ तक सांस्कृतिक अस्मिता का प्रश्न है तो पहला तरीका संकीर्ण, बंद और सनातन-सारवादी का है और दूसरा ऐतिहासिक, खुला और सर्वसमावेशी है। लेकिन भूमंडलीकरण विश्व पूंजीवाद का ताजा-तरीन संस्करण है। (पृ. 106) यह सांस्कृतिक समरूपता को बढ़ावा दे सकता है, (पृ. 106) जिससे वर्चस्वशाली देश की संस्कृति कमजोर देश की संस्कृति पर हावी हो सकती है (सांस्कृतिक साम्राज्यवाद)। इस संबंध में लेखक वरिष्ठ समाजशास्त्री प्रो. योगेन्द्र सिंह से सहमति जताते हुए कहते हैं कि यह वैश्विक एवं स्थानीय के बीच के संबंध की पुनर्रचना में भी सहयोगी हो रहा है। लेकिन भारत में परिवार, जाति और धर्म के संबंध अभी भी मजबूत हैं जो सांस्कृतिक पहचान को मजबूत आधार प्रदान करते हैं। इतना ही

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