Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 159
________________ पुस्तक-समीक्षा १५३ में भी भिन्नता है। इसके अलावा धर्म मूल्यपरक होता है और विज्ञान तथ्यपरक । इस विभेद के कारण भी धर्म का वैज्ञानिक अध्ययन सम्भव नहीं है। धर्म के आन्तरिक पक्ष के वैज्ञानिक अध्ययन की इस असम्भावना के साथ धर्म के बाह्य पक्ष के वैज्ञानिक अध्ययन की वकालत करने के पीछे लेखक का उद्देश्य धर्म को रूढ़ियों, अन्धविश्वासों तथा साम्प्रदायिक झगड़ों से मुक्त करना है। उनका तर्क है कि यद्यपि कर्मकाण्ड को धर्म से पृथक नहीं किया जा सकता किन्तु वैज्ञानिक अध्ययन से यह समझ पैदा की जा सकती है कि कर्मकाण्डों की भिन्नता से धर्म के आन्तरिक तत्त्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वैज्ञानिक अध्ययन धर्म से जुड़े उन अंधविश्वासों को भी दूर किया जा सकता है जो धर्म को शोषण का तंत्र बनाते हैं। तार्किक विश्लेषण से रूढ़ियों, कुरीतियों और झूठे विश्वासों के चंगुल से भी आदमी निजात पा सकता है । निष्कर्ष के रूप में लेखक ओशो के साथ खड़े हैं। 'वैज्ञानिक चिन्तन के आधार पर धार्मिक चिन्तन को खड़ा करना है। धार्मिक चिन्तन से मुक्त नहीं हो जाना है। वैज्ञानिक बुद्धि बाहर की व्यवस्था करे और धर्म को मनुष्य की भीतर की व्यवस्था करने दें।' ( पृ० ७३) कहा जा सकता है कि सदियों से धर्म मनुष्य के भीतर की व्यवस्था ठीक करने का दावा करता रहा है किन्तु उसके परिणाम निराशाजनक हैं। जिस रहस्यात्मक अनुभूति की चर्चा लेखक ने की है, वह अधिकांश अनुयायियों की होती ही नहीं और जिनको होती है वे स्पष्ट रूप से कुछ कह नहीं पाते। यदि विज्ञान अनुभूति - आस्था पर विचार ही नहीं कर सकता हो फिर अन्धविश्वास और तार्किक विश्वास के बीच दीवार कैसे खींची जा सकती है ? भविष्य में जब विज्ञान चेतना के रहस्यों पर से पर्दा उठा देगा तभी हम धार्मिक अनुभूति की वास्तविकता से परिचय पा सकेंगे। इसलिये धर्म के वैज्ञानिक अध्ययन को केवल धर्म के बाह्य पक्ष तक सीमित रखना उचित नहीं जान पड़ता। वर्तमान में योग, ध्यान, समाधि का वैज्ञानिक अध्ययन प्रारम्भ हो चुका है। हमें उनके नतीजों का इन्तजार करना चाहिये । संग्रह का सबसे रोचक और वर्तमान जीवन शैली के अन्तर्विरोध पर चुटीला कटाक्ष करता लेख 'उपभोक्तावादी जीवन में योग : उद्देश्य का विस्थापन' है । जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, त्याग को केन्द्र में रखने वाला योग, आज भोग का उपक्रम बन गया है, योग का यह अवमूल्यन ही लेखक की चिन्ता का विषय है। भारत में योग

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