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आलोक टण्डन
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बड़ी विशेषता लेखक की साफ, सुथरी, सहज, सुबोध भाषा और वाक्य संरचना है जो जटिल विषयों को भी पाठक तक सरलता से संप्रेषित करने में सक्षम है। कहींकहीं उद्धरणों की अधिकता से लेखक का अपना मन्तव्य दब सा गया है। छपाई की भूल से कहीं-कहीं पंक्ति के अंत में आधा शब्द और अगली पंक्ति के प्रारम्भ में आधा शब्द मुद्रित हुआ है ( पृ० २२, २५) जो अगले संस्करण में सुधारा जा सकता है। इसके बावजूद लेखों का यह संकलन न केवल दार्शनिकों बल्कि आम पढ़े लिखे लोगों द्वारा पढ़ा जाने योग्य है क्योंकि यह हमारी परम्परा और हमारे समय के बीच एक संवाद प्रस्तुत करता है। आप सहमत हों न हों, सोचने को तो विवश हैं। लेखक इसके लिये बधाई के पात्र हैं।