Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 160
________________ १५४ आलोक टण्डन की एक लंबी परम्परा रही है, जिसे शीर्ष पर पहुंचाने का कार्य महर्षि पतंजलि ने किया। उन्होंने बिखरे हुये सूत्रों को संकलित करके एक व्यवस्थित, सम्यक रूप प्रदान किया। उनसे पहले और बाद, सभी ने भोग का उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति बताया है। किन्तु आज यह उद्देश्य आध्यात्मिकता से विस्थापित होकर भौतिक हो गया है। इसे रोग दूर करने और शारारिक स्वास्थ्य ठीक रखने का साधन मात्र समझा जा रहा है। योग चिकित्सा विज्ञान नहीं है किन्तु इसी रूप में प्रयुक्त हो रहा है। इसके पीछे उपभोक्तावाद है, अनियंत्रित भोग से उत्पन्न शारीरिक रोग और मानसिक विकृतियों से बचने की चाह है, ऐलोपैथिक दवाओं का दष्प्रभाव है, अधिक उत्पादन के लिए तनाव से मुक्ति की जरूरत है। लेखक ने यह प्रश्न भी उठाया है कि क्या कारण है कि सालों से हमारे पास होने पर हमने योग को वह मूल्य नहीं दिया जो आज दे रहे हैं? इसके पीछे योग को पश्चिम में मिली स्वीकृति ही है। यह हमारी मानसिक गुलामी का ही लक्षण है। एक आध्यात्मिक अनुशासन का शारीरिक व्यायाम में तब्दील हो जाना निश्चय ही चिन्ता का विषय है। आज जब योग का यह नया अवतार संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा समादृत हो चुका है, यह और गहरी सोंच की मांग करता है। __आगे के दो निबंधों- 'विकास, तकनीक और मानवीय मूल्य' तथा 'पर्यावरण और विकास' को 'भौतिकवाद बनाम आध्यात्मवाद' की आगे की कड़ियों के रूप में ही देखा जा सकता है। विकास की आधुनिक अवधारणा भौतिक विकास को ही विकास का एकमात्र मानदंड मानती है। इसमें उद्योगों द्वारा अधिकाधिक वस्तुओं का उत्पादन और उनका अधिकाधिक उपभोग ही लक्ष्य रहता है। तकनीक की सहायता से दोनों में बेतहाशा वृद्धि होती जाती है। इस प्रकार एक ऐसी भोगवादी जीवन शैली का जन्म होता है जहाँ मनुष्य जरूरी और गैर जरूरी चीजों में अंतर किये बगैर ज्यादा से ज्यादा भौतिक चीजों का उपभोग कर लेना चाहता है। परिणाम नैतिकता के अवमूल्यन और पर्यावरण विनाश के रूप में सामने आता है। वे इसके लिए सुखवाद के सिद्धांत को भी दोषी ठहराते हैं। विकल्प के रूप में लेखक ने भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति की आधारशिला पर सार्थक विकास की अवधारणा प्रस्तुत की है जिसमें विलासिता और विषमता के स्थान पर समता और सादगी के जीवन मूल्यों को अपनाया जाएगा जिससे पर्यावरण को संकट में डाले बिना सभी लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करना संभव हो सकेगा। उत्पादन और उपभोग के असीम विस्तार

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