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आलोक टण्डन
सिद्धान्त से जोड़कर शंकर की ज्ञान मीमांसा का विस्तृत विवेचन किया है। किन्तु, शायद स्वयं अद्वैतवाद के समर्थक होने के कारण वे शंकर की ज्ञान मीमांसा की आलोचना करने से चूक गये। ___ 'कबीर के दार्शनिक सरोकार' में लेखक ने कबीर को एक अद्वैतवादी दार्शनिक के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया है जो तत्त्व मीमांसीय दृष्टि से उचित ही प्रतीत होता है। कबीर के अनुसार भी मूल तत्त्व संख्या में एक और स्वरूप में चेतन है। यह सारा संसार उसी चेतन सत्ता की अभिव्यक्ति मात्र है। यद्यपि कबीर उस सत्ता के लिये 'राम' शब्द का प्रयोग करते हैं किन्तु उनका राम निर्गुण, निरपेक्ष और निराकार सत्ता ही है। उनका राम उनके गुरु रामानुज के राम की तरह सगुण नहीं हैं। कबीर पर डा0 वर्मा, अन्य विद्वानों की तरह, इस्लामी प्रभाव स्वीकारते हैं। लेकिन कबीर पर इस्लामी एकेश्वरवाद का प्रभाव भले हो, परन्तु वे एकेश्वरवादी है नहीं। हैं वे अद्वैतवादी ही।' ऐसा लेखक का विचार है। कबीर का माया विचार, मोक्ष प्राप्ति का उपय ज्ञान को मानना उन्हें शंकर के करीब ला देते हैं। दर्शन की दुनिया में कबीर को
क्षत स्थान दिलाने की यह कोशिश प्रशंसनीय है। साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि कबीर ऐसा सामाजिक व्यंग्य/सरोकार अन्य किसी अद्वैतवादी में नहीं मिलता, ऐसा क्यों? कबीर पर अनेक पुस्तकों का हवाला देते समय यह विश्वसनीय नहीं लगता कि पिछले सालों में प्रकाशित डा0 पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक 'अकथ कहानी प्रेम की' का जिक्र करना लेखक कैसे भूल गये? शायद यह लेख उसके प्रकाशन से पहले का हो। __संग्रह में वैचारिक दृष्टि से सबसे उत्तेजक लेख 'धर्म के वैज्ञानिक अध्ययन की सम्भावना, इधर हाँ, उधर नहीं है। धर्म के दो पक्ष - आन्तरिक और बाह्य स्वीकारते हुये लेखक ने यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि धर्म के बाह्य पक्ष का वैज्ञानिक अध्ययन संभव और अपेक्षित है जबकि धर्म के आन्तरिक पक्ष का वैज्ञानिक अध्ययन सम्भव नहीं है। इसके पीछे उनका तर्क है कि आन्तरिक धर्म, भावना पर आधारित विशेष अभिवृत्ति है, जो अपने अलौकिक आराध्य के प्रति उन्मुख रहती है और उसके प्रति पूर्ण आस्था रखती है, लेकिन विज्ञान द्वारा इस अनुभूति और आस्था का अध्ययन नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिक अध्ययन लौकिक पदार्थों तक ही सीमित है, अलौकिक सत्ता उसके दायरे में नहीं आती। धर्म और विज्ञान की विधियों