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आलोक टण्डन
अध्ययन प्रस्तुत किया है। साथ ही यह भी स्थापित करने का प्रयत्न किया है कि आज के संकट का आधारभूत कारण दर्शन का भौतिकवादी सिद्धान्त है। इस भौतिकवादी दर्शन के दुष्परिणाम को अधिक ठोस, सघन, व्यापक और दीर्घकालिक बनाने का काम विज्ञान ने किया है। उसकी खोजों की अनिवार्य परिणति उपभोक्तावाद में हुई है। आध्यात्मिक सत्ता को मूल मानने वाला अध्यात्मवादी दर्शन ही हमें इस संकट से बचा सकता है। उन्हीं के शब्दों में "भूत को अन्तिम सत्य नहीं मानने के कारण यह सिद्धान्त सिर्फ शारीरिक सुख की ही वकालत नहीं करता, बल्कि चेतना को मूल मानने के कारण आत्मिक आनन्द को परम लक्ष्य घोषित करता है। स्वभावत: इसमें भौतिक उपलब्धियों का अंबार लगाने और उसका अधिकाधिक भोग करने की प्रवृत्ति नष्ट होती है और जीवन में सादगी, संतोष, त्याग तथा अपरिग्रह आदि गुणों का प्रस्फुटन होता है। " ( पृ० १९-२० )
ऐसा लगता है कि अद्वैतवादी अध्यात्म के समर्थन में लेखक अति सरलीकरण का शिकार हो गया है। भौतिकवाद बनाम अध्यात्मवाद की बहस को प्राचीन भौतिकवाद (चार्वाक) को केन्द्र में रखकर नहीं जीता जा सकता, उसे तो आज विज्ञान समर्थित भौतिकवाद की चुनौती का सामना करना होगा। यहाँ यह भी पूछना समीचीन होगा कि क्या उपभोक्तावाद की गिरफ्त में फंसे सारे मनुष्य दार्शनिक रूप से भौतिकवाद के समर्थक हैं ? हाल में हुये एक सर्वे के मुताबिक अमेरिका की सत्तर प्रतिशत जनता ईश्वरवादी है, भारत में यह आंकड़ा तो और भी ज्यादा होगा। हमें भौतिकवाद के तत्त्व-मीमांसीय सिद्धान्त और नीति-मीमांसीय सिद्धान्त में भेद करना चाहिए। पहला जगत की संरचना की व्याख्या करता है तो दूसरा जीने के प्रति एक नैतिक दृष्टिकोण मात्र है। एक तथ्यात्मक है तो दूसरा मूल्यात्मक। दोनों में आवश्यक तार्किक सम्बन्ध नहीं है। सदियों से पूर्व व पश्चिम दोनों में अध्यात्मवादी दर्शन का ही तो वर्चस्व रहा है फिर भी आज के संकट को वह नहीं रोक पाया, हल करने की बात तो दूर रही। भारत में भी आध्यात्मिक गुरुओं की बाढ़ और उपभोक्तावाद का तांडव एक साथ ही चल रहा है।
अपने अगले निबन्ध 'स्वधर्म : एक पुनर्व्याख्या' में गीता में वर्ण व्यवस्था के आधार पर 'स्वधर्म' की व्याख्या को बदले वर्तमान संदर्भ में अप्रासंगिक करार करते हुये लेखक ने नये ढंग से 'स्वभाव या प्रवृत्ति के आधार पर पुनर्व्याख्यायित करने का
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