Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 157
________________ पुस्तक-समीक्षा १५१ प्रयास किया है। उनके अनुसार यही व्याख्या आज प्रासंगिक है। व्यक्ति को अपने पेशे का चुनाव अपनी रुचि, प्रवृत्ति और स्वभाव के अनुसार करना चाहिये। जहाँ यह सम्भव न हो वहाँ मिले हुये कार्य को नैतिक कर्तव्य और लोक कल्याण की भावना के साथ अधिकाधिक ईमानदारी से सम्पन्न करना चाहिये, यही उसका स्वधर्म होगा। इसी प्रकार परिवार, उम्र, साम्प्रदायिकता, भूमंडलीकरण के सन्दर्भ में भी स्वधर्म की व्याख्या की गई है। किन्तु लगता है कि स्वभाव और कर्तव्य में अन्तर स्पष्ट नहीं है। इसी कारण नैतिक असमंजस, दुविधा, टकराव की स्थिति में स्वधर्म की ठीक से व्याख्या करना मुश्किल है। एक व्यक्ति जो रुचि-स्वभाव से कलाकार बनना चाहता है किन्तु पारिवारिक जिम्मेदारी के निर्वहन के लिये किसी अवांछित काम को करने के लिये मजबूर है, ऐसे में उसका स्वधर्म क्या होगा? ___ अपने अगले लेख जैन, अहिंसा और विश्व शान्ति' में जैन दर्शन में अहिंसा की अवधारणा - कायिक अहिंसा से वैचारिक अहिंसा तक के विकास का सम्यक विवेचन करते हये डा0 सरोज वर्मा एक विचारणीय प्रश्न हमारे सामने रखते हैं कि 'इतनी गहरी, इतनी मुकम्मल, इतनी उपादेय और इतनी प्रासंगिक होने के बावजूद, अहिंसा जनजीवन में व्याप्त क्यों नहीं हुयी?' स्वयं इसका उत्तर देते हुये वे कहते हैं कि एक नैतिक आचरण की तरह उसे बाहर से व्यक्तित्व पर आरोपित करने का प्रयास किया गया, अन्दर से प्रतिफलित होने नहीं दिया गया। यह प्रतिफलन आत्मज्ञान से ही सम्भव हो सकता है। आत्म ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति का आचरण अपने आप अहिंसक हो जाता है। वे आचार्य रजनीश को उद्धरित करते हैं अहिंसा को लाना नहीं होता, अहिंसा आती है। लाना होता है स्व-स्थिति को।' इसका मतलब यह है कि एकबारगी पूरी दुनिया अहिंसक नहीं हो सकती। यह धीरे-धीरे व्यक्तियों में सम्भव है। फिर क्या विश्व शान्ति के लिये हजारों साल से प्रस्फुटित न हो पायी जैन अहिंसा का इन्तजार करना होगा? क्या गांधी की अहिंसा, अहिंसा नहीं थी? क्या दूसरे की हिंसा का प्रतिरोध करने के लिये अहिंसक प्रतिरोध बेमानी है? ___ शंकराचार्य के दर्शन में ज्ञान की अवधारणा' शीर्षक लेख अपने विषय से न्याय करता प्रतीत होता है। डा० राधाकृष्णन् की मान्यता से सहमत न होते हये वे मानते हैं कि शंकर ने ज्ञान के तीन नहीं छः साधनों को स्वीकार किया है - प्रत्यक्ष, अनुमान, शास्त्र, उपमान, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि। डा0 वर्मा ने प्रामाण्यवाद और भ्रम

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