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भिखारी राम यादव
उन्होंने उन्हें अव्याकृत या अव्याख्येय कहा। वे तत्त्वमीमांसीय प्रश्न चार कोटियों में रखे गये हैं। १. लोक की नित्यता- अनित्यता का प्रश्न २. लोक की सान्तताअनन्तता का प्रश्न ३. जीव-शरीर के भेदाभेद का प्रश्न और ४. जीव की नित्यताअनित्यता का प्रश्न।
ये ही प्रश्न बुद्ध के समय के प्रमुख दार्शनिक प्रश्न थे। इन्हीं प्रश्नों को लेकर उन दिनों तरह-तरह के वाद-विवाद चल रहे थे। इन्हीं प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत या अव्याख्येय कहा था। उनके सम्मुख प्रमुख समस्या यह थी कि यदि लोक या जीव को मात्र नित्य कहा जाय तो शाश्वतवाद को स्वीकार करना पड़ेगा और यदि उसे मात्र अनित्य कहा जाय तो अशाश्वतवाद या उच्छेदवाद को मानना पडेगा। जबकि वास्तव में एकान्तिक रूप से ये दोनों की मतवाद दोषपूर्ण हैं। इसलिए इन दोनों ही मतवादों के विषय में कुछ भी एकान्त रूप से कहना दोषपूर्ण है। यही कारण है कि बुद्ध ने इन वादों से संबंधित सभी प्रश्नों का उत्तर या तो निषेधरूप से दिया या अव्याकृत बतलाया। उन्होंने स्वयं कहा है कि मृत्यु के बाद तथागत होते हैं या नहीं? जीव नित्य है या नहीं? ऐसे प्रश्न सार्थक नहीं है। ये प्रश्न न तो ब्रह्मचर्य के लिए उपयोगी है, न निर्वेद के लिए, न अभिज्ञा के लिए, न सम्बोधि के लिए और न निर्वाण के लिए ही। इसीलिए मैं इन्हें अव्याकृत कहता हूँ। मैं भूतकाल में था कि नहीं था? मैं भूतकाल में क्या था? मैं भूतकाल में कैसा था? मैं भूतकाल में क्या होकर फिर क्या हुआ? मैं भविष्यत् काल में होऊँगा कि नहीं? मैं भविष्यत् काल में क्या होऊँगा? मैं हूँ कि नहीं? मैं क्या हूँ? मैं कैसा हूँ? यह सत्त्व कहाँ से आया? यह कहाँ जायेगा?-आदि प्रश्नों को उन्होंने असमीचीन कहा। उनका कहना है कि भिक्षुओं! असम्यक् प्रकार से धारण करने पर अनुत्पन्न आस्रव उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न आस्रव बढ़ते हैं। अतएव इन आस्रव संबंधी प्रश्नों में लगना साधक के लिए अनुचित है। इन सभी प्रश्नों को छोड़ कर चार आर्य सत्यों में लगना ही निर्वाण फलदायक है। तथागत मरणान्तर होता है या नहीं? ऐसा प्रश्न अन्य तीर्थकों को अज्ञान के कारण उत्पन्न होता है। उन्हें रूपादि का अज्ञान होता है। अतएव वे ऐसा प्रश्न करते हैं। वे रूपादि को आत्मा समझते हैं या आत्मा को रूपादी युक्त समझते है, या आत्मा में रूपादी समझते है, या रूप में आत्मा को समझते हैं जबकि तथागत वैसा नहीं समझते। अतः तथागत को वैसे प्रश्न भी नहीं उठते और दूसरों के ऐसे प्रश्न को वे अव्याकृत कहते हैं। मरणान्तर रूप, वेदना आदि प्रहीण हो जाते हैं।