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सचिन्द्र जैन
ही होता है। यह हैं बन्धन की दृष्टि से मन की अपार शक्ति इसलिए मन को खुला छोडने से पहले मनन करना चाहिए कि वह आत्मा को किसी गहन गर्त में तो नहीं धकेल रहा हैं ?
जैन दर्शन में मन मुक्ति के मार्ग का प्रथम प्रवेशद्वार है। वहाँ केवल समनस्क प्राणी ही इस मार्ग पर आगे बढ सकते हैं। अमनस्क प्राणियों को तो इस राजमार्ग पर चलने काही अधिकार प्राप्त नहीं है। सम्यक्दृष्टि केवल समनस्क प्राणियों को ही प्राप्त हो सकती है और वे अपने साधना द्वारा मोक्ष की ओर बढने के अधिकारी है। सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के लिए तीव्रतम क्रोधादि आवेगों का संयमन आवश्यक है, क्योंकि मन के द्वारा ही आवेगों का संयमन सम्भव है। इसलिए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए की जानेवाली ग्रन्थभेद की प्रक्रिया में यथाप्रवृत्तिकरण तब होता है जब मन का योग होता है। मन के संयमन से एकाग्रता आती है, जिससे ज्ञान (विवेक) प्रकट होता है और उस विवेक से सम्यक्त्व अथवा शुद्ध दृष्टिकोण की उपलब्धि होती है और अज्ञान ( मिथ्यात्व) समाप्त हो जाता है। इस प्रकार अज्ञान का निवर्तन और सत्य दृष्टिकोण की उपलब्धि जो मुक्ति (निर्वाण ) की अनिवार्य शर्त है, बिना मन शुद्धि के सम्भव नहीं है। अतः जैन दर्शन में मन मुक्ति का आवश्यक हेतु है। शुद्ध संयमित मन निर्वाण का हेतु बनता है, जबकि अनियंत्रित मन ही अज्ञान अथवा मिथ्यात्व का कारण होकर प्राणियों के बन्धन का हेतु है। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं मन का निरोध हो जाने पर कर्म (बंधन) भी पूरी तरह रूक जाते हैं, क्योंकि कर्म का आस्रव मन के अधीन है, लेकिन जो पुरुष मन का निरोध नहीं करता है उसके कर्मों (बन्धन) की अभिवृद्धि होती रहती है। '
संदर्भ एवं टिप्पणियाँ
१. विभज्यवाद, पृ. १४३
२. अमरकोश, ५ / ३१
३. अभिधान राजेन्द्र खंड ६ पृ. ७४
४. गोम्मटसार, जीवकांड गाथा ४४२.
५. दर्शन और जीवन, भाग १ पृ. १४०
६. सागर समय का माप विशेष
७. उत्तराध्ययन सूत्र, २९/५६ ८. योगशास्त्र, ४३८