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जैन अवक्तव्यता और बौद्ध अव्याकृतवाद : एक तुलनात्मक विवेचन
डॉ. भिखारी राम यादव
जैन दर्शन की मान्यता है कि सभी वस्तुएँ अनन्त धर्मात्मक हैं और व्यवस्थानुसार प्रत्येक वस्तु के प्रत्येक धर्म के लिए अलग-अलग शब्द निर्धारित किये गये हैं जैसे लालिमा के लिए लाल, कालिमा के काला शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार अन्य धर्मों के लिए अन्य शब्दों का प्रयोग किया जाता है। किन्तु वस्तुओं के अनन्त गुण-धर्मों को सम्बोधित करने के लिए भाषा के पास अनन्त शब्द नहीं हैं। तथापि यदि शब्द संयोग से अनन्त वस्तुओं के अनन्त गुण-धर्मों के लिए भिन्न-भिन्न शब्द प्रतीक बनायें जाए तो उन अनन्त गुण धर्मों का भी वाचन संभव हो सकता है। किन्तु हमारी भाषा में ऐसा कोई शब्द नहीं बन सकता, जो वस्तु के अनन्त गुण धर्मों को एक साथ युगपततः अभिव्यक्त कर सके, क्योंकि भाषा के एक शब्द के द्वारा एक गुण या धर्म का ही वाचन संभव है। इसलिए जब दो या दो से अधिक धर्मों के एक साथ प्रतिपादन की अपेक्षा होती है, तब शब्द असमर्थ हो जाता है। शब्द की इसी असमर्थता को प्रकट करने के लिए जैन दर्शन में अवक्तव्य का विधान किया गया है।
एक अन्य बात यह है कि वस्तु के सम्पूर्ण धर्म एक दूसरे से परस्पर भिन्न हैं। इसलिए उन परस्पर भिन्न धर्मों के प्रतिपादक शब्द भी परस्पर भिन्न हैं, साथ ही, भाषा में कोई ऐसा उभयात्मक शब्द नहीं है जो वस्तु के उन परस्पर भिन्न-भिन्न धर्मों को एक साथ अभिव्यक्त कर सके। इसलिए भी जब उन परस्पर भिन्न-भिन्न धर्मों को एक साथ कहने की अपेक्षा होती है, तब उन्हें अवक्तव्य ही कहना आवश्यक हो जाता है। अवक्तव्य के इसी आशय का प्रतिपादन करते हुए श्लोकवार्तिक' में कहा गया है कि जब शुक्ल और कृष्ण वर्ण परस्पर भिन्न हैं तब उनका संसृष्ट रूप एक नहीं हो सकता। जिससे एक शब्द से कथन हो सके। कोई एक शब्द या पद दो गुणों का युगपत वाचक नहीं हो सकता। यदि ऐसा मानेंगे तो सत् शब्द सत्त्व की तरह असत्त्व का भी वाचन करने लगेगा तथा असत् शब्द सत्त्व का । पर ऐसी लोक प्रतीति नहीं है, क्योंकि प्रत्येक धर्म के वाचक शब्द अलग-अलग हैं। इस तरह कालादि दृष्टि से युगपत् भाव की संभावना नहीं है तथा उभयवाची कोई एक शब्द है नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि शब्द एक काल में एक ही गुण-धर्म का वाचक हो सकता है दो या दो से अधिक गुण धर्मों का नहीं । सप्तभंगीतरंगिणी में भी कहा गया है कि सभी परामर्श (हिन्दी), खण्ड २८, अंक १-४, दिसम्बर २००७- नवम्बर २००८, प्रकाशन वर्ष अक्तुबर २०१५