________________
समन्तभद्र की दृष्टि में सर्वज्ञता का स्वरूप - रत्नकरण्ड....
१३७
को प्राप्त किये बिना यदि कोई आगम के विषय का प्रतिपादन करे तो वह यथार्थ एवं प्रमाणभूत नहीं माना जा सकता। आगम का विषय परोक्ष है। न तो इन्द्रिय गोचर है
और न ही अनुमेय है। ऐसे विषय में पूर्ण प्रत्यक्ष ज्ञान ही प्रवृत्त हो सकता है। एकदेश प्रत्यक्षज्ञान भी विषय के सर्वांशों को ग्रहण नहीं कर सकता। अतएव श्रेयोमार्ग या धर्माधर्म तथा उसके फल का यथार्थ वर्णन सर्वज्ञता के द्वारा ही हो सकता है और वही प्रमाण माना जा सकता है। यह सर्वज्ञता तब तक प्राप्त नहीं हो सकती जब तक कि वह व्यक्ति समस्त दोषों को निर्मूल नहीं कर देता। इसलिए पूर्व पूर्व को कारण और उत्तरोत्तर को कार्य मानना उचित एवं संगत ही है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरोत्तर के प्रति पूर्व पूर्व की व्याप्ति नियत है। अर्थात जहाँ आगमेशिता है वहाँ सर्वज्ञता भी अवश्य है और जहाँ सर्वज्ञता है वहाँ निर्दोषता वीतरागता भी नियत है, किन्तु इसके विपरीत यह नियम नहीं है कि जहाँ जहाँ वीतरागता है वहाँ सर्वज्ञता भी है और जहाँ जहाँ सर्वज्ञता है वहाँ वहाँ आगमेशित्व भी नियत है क्योंकि क्षीणमोहनिग्रंथ निर्दोष वीतराग तो कहे जा सकते हैं परन्तु वे सर्वज्ञ नहीं कहे जा सकते हैं। यद्यपि वह वीतरागता सर्वज्ञता का साधन है। हाँ यह बात ठीक है कि राग द्वेष और मोह का अभाव हो जाने से प्राप्त हुई निर्दोषता (वीतरागता) के बिना घातित्रय का अभाव अथवा सर्वज्ञता की सिद्धि नहीं हो सकती। इसी तरह यह भी नियम नहीं है कि जो जो सर्वज्ञ हों वे सब आगम के ईश या उपज्ञ वक्ता हों ही।
१. २.
संदर्भ एवं टिप्पणियाँ आचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लो. १ . आचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लो, नमः श्री वर्द्धमानाय निर्धूत कलिलात्मने। सालोकानां त्रिलोकानां यद् विद्या दर्पणायते।। आचार्य समन्तभद्र, देवागम स्तोत्र, का. ५, आप्तेनोच्छिन्न दोषेण