Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 141
________________ समन्तभद्र की दृष्टि में सर्वज्ञता का स्वरूप - रत्नकरण्ड.... १३५ इनमें से कोई भी विशेषता यदि न मानी जाय तो निश्चित ही आप्तपना नहीं बन सकता। आप्त शब्द का लोक में प्रसिद्ध अर्थ यह है कि जो सत्य का ज्ञाता हो और रागद्वेषादि से रहित सत्य का उपदेश करने वाला हो। आप्तता दो प्रकार से होती है। १-लौकिक २-पारलौकिक। लोक प्रसिद्ध अर्थ लौकिक आप्त के विषय में समझना चाहिए। यहाँ हम परलौकिक आप्त की चर्चा कर रहे हैं। आप्त शब्द का एक प्रसिद्ध अर्थ यह भी है कि जो जिस विषय में अवंचक है वह उस विषय में आप्त माना जाता है। यह बात दृष्टि में रहना जरुरी है कि अवंचकता के लिए वास्तव में अज्ञान और कशाय इन दो दोषों का निर्हरण अत्यावश्यक है यहाँ पारलौकिक आप्त का स्वरूप बताया है वह लौकिक अर्थों का विरोधी नहीं है फिर भी इस कथन से यह बात अवश्य ही स्पष्ट होती है कि लोक प्रसिद्ध अर्थ पर्याप्त नहीं है वह लौकिक विषयों तक सीमित होने से आंशिक है। पारलौकिक आप्त लौकिक एवं पारलौकिक सभी विषयों की प्रमाणिकता पर प्रकाश डालता है। जिस तरह श्रुति से अविरुद्ध ही स्मृतियां प्रमाण मानी जाती हैं न कि स्वतंत्र अथवा श्रुति से विरुद्ध। इसी तरह प्रकृत विषय में समझना चाहिए। पारलौकिक आप्त से जो अविरुद्ध हैं वे ही लौकिक आप्त प्रमाण माने जा सकते हैं, न कि स्वतंत्र तथा पारलौकिक आप्त के विरुद्ध वचन करने वाले। श्रेयोमार्ग रूप धर्म के व्याख्यान और उसकी प्रामाणिकता का मूल आप्त ही है। जिस तरह नींव के बिना मन्दिर या जड़ के बिना वृक्ष टिक नहीं सकता उसी तरह तथाभूत आप्त के बिना धर्म के वास्तविक स्वरूप का न तो किसी को परिज्ञान ही हो सकता है और न उसके विषय में प्रमाणिकता का विश्वास ही हो सकता है। जगत में इस सम्बन्ध में काल्पनिक मान्यतायें प्रचलित हैं। जिनको न तो युक्तियों का ही समर्थन प्राप्त है और न जिनको अनुभव ही स्वीकार करता है। इसके अलावा इस कथन के करने वाले वे शास्त्र ही स्वयं पूर्वापर व परस्पर विरोध एवं भिन्न भिन्न प्रकार के अर्थ करने वाले आचार्यों की विरुद्ध निरूपणाओं के कारण अप्रामाणिक ठहर जाते हैं। कोई कोई धर्म व्याख्याता आगमवेद को अनादि मानते हैं, जबकि यह बात स्पष्ट है कि कोई भी शब्द विशेष उसके वक्ता के बिना प्रवृत्त नहीं हो सकता। कोई उसको अपौरूषेय अशरीर ईश्वर कृत बताते हैं किन्तु कोई भी विचारशील यह समझ सकता है कि शरीर के बिना ऐसे शब्दों की रचना, उत्पत्ति, कथन किस प्रकार से हो सकता है। कोई कोई उसको हिंसा जैसे महापाप का विधायक भी स्वीकार करते हैं और

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