Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 139
________________ समन्तभद्र की दृष्टि में सर्वज्ञता का स्वरूप - रत्नकरण्ड.... के सभी द्रव्य, तत्त्व, पदार्थ एवं उनके गुणधर्म तथा त्रिकालवर्ती समस्त व्यंजनपर्यायें व अर्थपर्यायें युगपत् प्रतिभासित होते हैं। आशय यह है कि सर्वज्ञता की स्थिति में जीव की ज्ञान चेतना पूर्ण रूप से सदा के लिए निर्विकार हो जाती है तथा उसकी स्वच्छता एवं निर्मलता पराकाष्ठा को प्राप्त कर चुकी होती है। यद्यपि उसकी वृत्ति ध्रुवरूप से प्रकृति द्रव्य रूप से अन्तर्मुख बन गई है परन्तु समस्त चराचर त्रैकालिक जगत् उसमें प्रतिक्षण प्रतिभासित रहा करता है। चेतना का यह स्वभाव है कि पदार्थ उसमें प्रतिभासित हो जैसे दर्पण का स्वभाव है कि उसके सम्मुख जो भी पदार्थ जिस रूप में भी उपस्थित होता है वह वैसे ही उसमें प्रतिबिम्बित हुआ करता है। चेतना की स्वच्छता इससे भी अधिक और विचित्र है उसमें विद्यमान और अविद्यमान अनंतानंत पदार्थ युगपत् प्रतिभासित हुआ करते हैं। जिस तरह दर्पण किसी पदार्थ को देखने का स्वयं प्रयत्न नहीं करता परन्तु जो भी उसके सम्मुख आता है वह स्वयं ही दर्पण में दर्पण की स्वाभाविक स्वच्छता विशेष के कारण प्रतिबिम्बित हो जाया करता है उसी तरह सर्वज्ञ की चेतना पदार्थ को जानने का स्वयं प्रयत्न नहीं करती। जिस तरह अल्पज्ञ संसारी जीवों की चेतना विषयों की तरफ उन्मुख होकर क्रम से और योग्य पदार्थ को ही ग्रहण किया करती है। बाह्य तन में तो सभी जीवों का चेतना का स्वरूप ऐसा ही है किन्तु इन्द्रिय ज्ञानों में यह नाम हमारी समझ में नहीं आता कि इन्द्रिय ज्ञान भी बिना प्रयत्न के ही अपनी व्यक्त योग्यतानुसार ही ज्ञेयों को जानता है। वह चेतना पदार्थों की तरफ उन्मुख नहीं हआ करती अपितु पदार्थ स्वयं ही ज्ञान के जानने में आते हैं। फिर वे पदार्थ विद्यमान अविद्यमान (भूत-भविष्यत्) रूप से कितने ही प्रमाण में क्यों न हों। वह सभी पदार्थों को एक साथ ग्रहण कर लेती है, ऐसा कहने का तात्पर्य यही है कि उसमें यह भी एक विशेषता आ जाती है कि उसमें फिर किसी भी तरह की न्यूनाधिकता नहीं होती। जिस तरह संसारी जीवों का ज्ञान न्यूनाधिक हुआ करता है वैसा सर्वज्ञ का नहीं होता। वह अपने जिस पूर्ण रूप को धारण कर प्रगट होता है वह फिर अनन्त काल तक उसी रूप में निरंतर प्रगट होता रहता है। सर्वज्ञ नियम से वीतराग निर्दोष और सर्वज्ञानी होते हैं। मोहनीय कर्म के सर्वथा अभाव से जो वीतरागता उत्पन्न होती है वह सर्वज्ञता की उत्पत्ति के लिए समर्थ कारण है। इसी तरह निर्दोषता की उत्पत्ति के लिए वीतरागता एवं सर्वज्ञता समर्थ कारण के मिलने पर नियम से कार्य उत्पन्न हुआ करता है। अतएव सर्वज्ञता के साथ वीतरागता और निर्दोषता की व्याप्ति बनती है। कहा जा सकता है कि जो जो सर्वज्ञ

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