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समन्तभद्र की दृष्टि में सर्वज्ञता का स्वरूप रत्नकरण्ड श्रावकाचार के आधार पर
ऋषभ जैन आप्त के तीन लक्षण वीतरागता, निर्दोषता एवं सर्वज्ञता बताये गये हैं। आप्त के वचनों की प्रामाणिकता वीतरागता और निर्दोषता इन दो गुणों से अभिव्यक्त होती है। इन गुणों के ना होने पर वचनों की प्रामाणिकता संदिग्ध होगी। जो व्यक्ति वीतरागी और निर्दोष होगा वही सर्वज्ञता प्राप्त करेगा, क्योंकि दोनों में कार्य कारण भाव होता है। वीतरागता के बिना सर्वज्ञता प्राप्त नहीं होती। अतएव पहले वीतरागता रूप कारण का और पीछे सर्वज्ञता रूप कार्य का उल्लेख करना उचित है। फिर भी यह समझ लेना चाहिए कि सर्वज्ञता के लिए सामान्य वीतरागता की नहीं अपितु विशिष्ट एवं पूर्ण वीतरागता ही कारण है, क्योंकि सामान्य वीतरागता तो चतुर्थ गुणस्थानवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टि के भी पायी जाती है, परन्तु चतुर्थ गुणस्थान से सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होती । वास्तव में किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए समर्थ कारण (अन्यथा अनुपपत्तिरूप कारण) वही माना जा सकता है जिसके द्वारा प्रयत्न के अव्यवहित उत्तर क्षण में ही कार्य की निष्पत्ति हो जाय। फलतः सर्वज्ञता के लिए चतुर्थादि गुणस्थान की सामान्य वीतरागता समर्थ कारण नहीं है, किन्तु बारहवें गुणस्थान की पूर्ण वीतरागता ही समर्थ कारण है।
वीतरागता के प्रतिपक्षी मोह कर्म के उदय का ग्यारहवें गुणस्थान में सर्वथा अभाव है। परन्तु वहाँ भी सर्वज्ञता निष्पन्न नहीं हुआ करती क्योंकि यद्यपि प्रतिपक्षी मोह कर्म की प्रकृतियाँ यहाँ पर उपशांत हो गई हैं; प्रयत्न विशेष के कारण वे फल देने में कुछ काल के लिए असमर्थ हो गई हैं, परन्तु वे न तो निर्मूल ही हुई हैं, और न उनकी सामर्थ्य ही सदा के लिए नष्ट हुई है, उनकी सत्ता तो वहाँ बनी ही है । वास्तव में उनका अभी तक कर्मत्व ही नष्ट नहीं हुआ है। अतएव कहा जा सकता है कि इस ११ वें गुणस्थान की वीतरागता निरापद नहीं हैं और इसीलिए सर्वज्ञता के लिए जिस वीतरागता को कारण कहा जा सकता है। वह १२ वें गुणस्थान के अंतिम भाग की वह विशुद्धि विशेष ही है जहाँ पर कि एकत्व वितर्क अवीचार नाम का शुक्ल ध्यान होते ही ज्ञानावरणादि तीनों ही कर्मों का एक साथ निर्मूलन हो जाता है। अतएव सर्वज्ञता के लिए सामान्य वीतरागता की नहीं अपितु पूर्ण एवं विशिष्ट वीतरागता ही कारण है। समन्तभद्र ने वर्धमान का विशेषण "निधूर्त कलिलात्मा" कहा है जहां निधूर्त से परामर्श (हिन्दी), खण्ड २८, अंक १-४, दिसम्बर २००७ - नवम्बर २००८, प्रकाशन वर्ष अक्तुबर २०१५