Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 135
________________ सामाजिक नैतिकता की वर्तमान में प्रासंगिकता : जैन-धर्म के परिप्रेक्ष्य में १२९ उसके केन्द्रीय तत्त्व-अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह कहाँ तक प्रासंगिक है ? इस जिज्ञासा के निवारणार्थ आवश्यक है कि प्रारम्भ में विवेचित उन तथ्यों पर दृष्टिपात करें जिसके प्रयास से सामाजिक नैतिकता का परमश्रेय समत्व सम्प्राप्त हो सके। ध्यातव्य है कि जैन-धर्म विवेक पर आधारित उस सामाजिक चेतना को विकसित करने हेतु प्रयत्नशील रहता है जो दायित्व-बोध और कर्तव्य-बोध से पूर्ण हो । यथार्थ चेतना दायित्व-बोध व कर्तव्य-बोध के रूप में आत्मीयता, प्रेम, त्याग, समर्पण, सहयोग, सम-वितरण, शान्ति, अभय सभी प्रकार की सहिष्णुता ( सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और वैचारिक) आनन्द प्रभृति सद्गुणों को अपने में समाविष्ट किये हुए है। वस्तुतः इन सद्गुणों का उद्गम स्थल तीर्थंकर उपदेशित् सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्त्व - अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह हैं । एतदर्थ मानव जीवन में व्याप्त समस्त समस्याओं/ विषमताओं (सामाजिक, आर्थिक, वैचारिक और मानसिक) के निरुन्धन में इनकी महती भूमिका है। मानव जीवन में राग जनित अहं के प्रत्यय के निमित्त व्याप्त परतंत्रता का विसर्जन अहिंसा द्वारा होता है, क्योंकि अहिंसा का सिद्धान्त समत्व-भावना, अद्वैत भावना व स्वतंत्रता के साथ जुडा हुआ है, जबकि सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों को दूषित करने वालों तत्त्वों का निराकरण अनासक्तिदृष्टि अथवा वितरागतावस्था में होता है। जैन-धर्म आर्थिक क्षेत्र में समत्व का सृजन (परिग्रह विसर्जन) अनासक्ति व अपरिग्रह द्वारा होता है । पुनश्च, बहिर्मुखी प्रवृत्ति में निमित्त नैतिक मूल्यों का जो ह्रास हो रहा है, उसका निरोध अहिंसा अनाग्रह और अपरिग्रह के सिद्धान्त को आचरण में पूर्णतः उतारकर ही हो सकता है, क्योंकि ये सिद्धान्त अपने में भौतिक मूल्यों के साथ-साथ आध्यात्मिक मूल्यों को भी समाविष्ट किये हुए हैं। अनासक्ति दृष्टि द्वारा ही मानव जीवन में वास्तविक नैतिकता का सृजन हो सकता है, क्योंकि इस अवस्था में व्यक्ति अपने वास्तविक व्यक्तित्व का यथार्थ दर्शन करता है । यथार्थ दर्शन की अवस्था में लोकमंगल की भावना से सम्बन्धित समस्त सद्भावनाओं का प्रकटन स्वतः होता है साथ ही लोक कल्याण हेतु वीतरागी पुरुष आचरण का सम्पादन करने लगता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन-धर्म प्रणित सामाजिक नैतिकता के आधारभूत स्तम्भ अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह मानव जीवन में लोकमंगल की भावना, समता, एकता, संयम, शान्ति, विनयशीलता, सुख-समृद्धि प्रभृति सद्गुणों को प्रस्फुटित करने और विकसित करने में तथा सामाजिक समता की पुनर्स्थापना में प्रत्येक देशकाल व परिस्थिति में पूर्णतः प्रासंगिक है।

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