Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 140
________________ १३४ ऋषभ जैन है वह तो नियम से वीतराग और निर्दोष है। किन्तु हितोपदेशकता के साथ साथ इस तरह की व्याप्ति नहीं है क्योंकि ज्ञान का वचन के साथ नियत संबंध नहीं है। जो जो ज्ञानवान हो वह वह वक्ता भी हो ऐसा नियम नहीं है यह सर्वमान्य रूप से अवश्य कहा जा सकता है कि किसी भी वक्ता के वचन की प्रामाणिकता उसकी वीतरागता निर्दोषता और ज्ञान पर निर्भर है। जो व्यक्ति जितना अधिक वीतराग और निर्दोष होने के साथ-साथ सम्यक्ज्ञानी है उसके वचन भी उतने ही अधिक प्रमाणभूत हुआ करते हैं। अतएव जो पूर्ण वीतरागी, पूर्ण निर्दोष और पूर्ण ज्ञानवान है उसके वचन भी पूर्णतया प्रमाण रूप ही हैं। आप्त शब्द का सामान्यतया प्रसिद्ध अर्थ यह है कि 'यो यत्रावंचकः सः तत्र आप्तः ' अर्थात् जो जिस विषय में अवंचक है वह उसी विषय में आप्त है। किन्तु यहाँ तात्पर्य है कि जिसने ज्ञानावरणादि चार घाति कर्मों को नष्ट करके अपने शुद्ध ज्ञानादि गुणों को प्राप्त कर लिया है उसे आप्त कहते हैं। अन्य प्रकार से आप्तत्व बन ही नहीं सकता। इसी प्रकार 'आ समन्तात् गम्यते बुध्यते वस्तु तत्त्वं येन यस्माद्वा' अर्थात् प्रत्येक दृष्टि से जिसके द्वारा समस्त वस्तु तत्त्व का परिज्ञान हो उसको आगम कहते हैं। ऐसे वचन सर्वज्ञ के ही होते हैं। श्रुत का विषय सामान्यतया केवलज्ञान की समकोटि में बताया है, उनमें केवल प्रत्यक्ष और परोक्ष का अन्तर है। जगत में भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय वालों ने आप्त का स्वरूप भी भिन्न भिन्न प्रकार से ही माना है । यद्यपि ये मान्यतायें अनेक हैं, फिर भी इनको सामान्यतः सात भागों में विभक्त किया जाता है। यहाँ पर आप्त के तीन विशेषण दिये गये हैं - १. उत्सन्न दोष, २. सर्वज्ञ, ३. आगम का ईश । प्रत में आप्त से अभिप्राय श्रेयोमार्ग रूप धर्म के उपज्ञ बल से है। जिसमें इन तीनों ही विशेषणों का रहना आवश्यक है। संसार में आप्त के स्वरूप के विषय में जब अनेक तरह की मिथ्या मान्यतायें प्रचलित हो रहीं हैं। और जगत के प्राणी उनमें भ्रमित हो रहे हों अथवा उनको मानकर गृहीत मिथ्यात्व के द्वारा दुःख रूप संसार में भ्रमण कर रहे हों, तब वास्तविक आप्त और आचार्यों का स्वाभाविक कर्तव्य हो जाता है कि वे उनकी भ्रान्त धारणाओं को दूर करने के लिए उनके अज्ञानतम को नष्ट करने के लिए उनके समक्ष यथार्थ वस्तुस्वरूप के प्रकाश को उपस्थित करें जिससे वे श्रेयोमार्ग में निर्विघ्नतया चलकर शुद्ध सत्य और शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकें। आप्त के इन तीन विशेषणों के आधार पर कहा जा सकता है कि

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