Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 127
________________ सामाजिक नैतिकता की वर्तमान में प्रासंगिकता : - जैन-धर्म के परिप्रेक्ष्य में - अनिल कुमार सोनकर अनन्त चतुष्टय सम्पन्न तीर्थकरों के साक्षात् उपदेश पर आधारित निवृत्तिमार्गी जैन-धर्म में उन शुद्ध, नित्य व शाश्वत नियमों का निरूपण हुआ है, जिन पर चलने से मनुष्य का ऐहिक, आमुष्मिक एवं सनातन कल्याण होता है, समाज में स्थिरता और संतुलन स्थापित होता है तथा जिनके निर्वहन से व्यक्ति तथा समाज दोनों का ही श्रेय होता है। समस्त धर्मों का परमश्रेय-समत्व जैन धर्म के अन्तर्गत मानसिक क्षेत्र में अनासक्ति या वीतरागता के रूप में, सामाजिक क्षेत्र में अहिंसा के रूप में, वैचारिकता के क्षेत्र में अनासक्ति या वीतरागता के रूप में, सामाजिक क्षेत्र में अहिंसा के रूप में, वैचारिकता के क्षेत्र में अनेकान्त या अनाग्रह के रूप में और आर्थिक क्षेत्र में अपरिग्रह के रूप में अभिव्यक्त होता है। इस प्रकार जैन-धर्म में परमश्रेय के रूप मे जो मोक्ष है, वही धर्म है और जो धर्म है, वही समत्व-प्राप्ति है। ___ जनसामान्य के कल्याण हेतु आचार -व्यवहार के सुव्यवस्थित नियमों का प्रतिपादन करने वाला जैन धर्म व्यापक आदर्शों वाला वह वैज्ञानिक जीवन-पद्धति है जो मनुष्य की आचार -शुद्धि और साधना द्वारा चरम उन्नति का समर्थ आश्वासन प्रतिपादित करते हुए मनुष्य को जैनत्व से सम्पन्न करने की क्षमता रखता है साथ ही अन्यान्य परम्पराओं के विपरीत मुक्तिदाता के रूप में किसी सर्वोच्च सत्ता सम्पन्न ईश्वर अथवा तीर्थंकर के अनस्तित्व का निर्देश करते हुए उस आस्था का विधायक है कि मनुष्य अपने प्रयासों एवं कर्मों से जगत् में सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त कर सकता है। मानव के ऐहिक मूल्यों की प्राप्ति का साक्षात् हेतु तथा पारलौकिक मूल्यों की प्राप्ति का पारम्परिक हेतु जैन धर्म मात्र वैयक्तिक मुक्ति का उपाख्यान नहीं करता, अपितु उसे समष्टिगत कल्याण के रूप में देखता है। उसकी यही दृष्टि मनुष्य में आत्मगौरव, आत्मविश्वास और आत्मशक्ति को उदित करने में सफल रहती है। जैन धर्म विवेक पर आधारित उस सामाजिक चेतना को विकसित करने हेतु प्रयत्नशील रहता है जिसके द्वारा सामाजिक नैतिकता का परमश्रेय समत्व सम्प्राप्त हो सके। और एतदर्थ वह सामाजिक सन्दर्भ की दृष्टि से सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की अपेक्षा सामाजिक जीवन को दूषित करने वाले तत्त्वों के निरसन व चरित्र निर्माण परामर्श (हिन्दी), खण्ड २८, अंक १-४, दिसम्बर २००७-नवम्बर २००८, प्रकाशन वर्ष अक्तुबर २०१५

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