Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 131
________________ सामाजिक नैतिकता की वर्तमान में प्रासंगिकता : जैन-धर्म के परिप्रेक्ष्य में १२५ भाव प्रकट कर रहा है। वर्तमान विचारणानुसार जीवन की आवश्यकताएँ जितनी अधिक होंगी उतनी ही सामाजिक उन्नति होगी। इस मान्यता ने समाज में ऐसी भोग की स्पर्धा खडी कर दी है कि इस स्पर्धा में कोई भी पीछे नही रहना चाहता। आज जन-मानस इस पक्षपर विशेष रूप से ध्यान दे रहा है कि नैतिक जीवन-मूल्य खण्डित हों तो भले हों, लेकिन सुख-सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिए। इस मान्यता के निमित्त ही सत्य और प्रामाणिकता का मूल्य कम हुआ है। वस्तुतः मनुष्य के लिए जिस आनन्द और शान्तिमय जीवन की अपेक्षा है, वह भोगों की उपस्थिती में सम्भव नहीं है, क्योंकि जिन्हें सन्तुष्टि के अल्प साधन उपलब्ध हैं, वे अधिक आनन्दित हैं, अपेक्षाकृत उनके जो भौतिक सुख-सुविधाओं की विपुलता के बाद भी उतने आनन्दित नही हैं। यदि सामाजिक जीवन में व्याप्त विषमताओं का विसर्जन करना है अथवा नैतिक मूल्यों के ह्रास को रोकना है तो व्यक्ति को स्वयं तथा सामाजिक स्तर पर भौतिक मूल्यों के साथ-साथ आध्यात्मिक मूल्यों को स्वीकारना होगा और एक ऐसी जीवन-दृष्टि का सृजन करना होगा जो मनुष्य में उच्च मूल्यों के विकास के साथ ही समस्त मानवता को भय, संघर्ष, तनाव, अप्रामाणिकता प्रभृति से मुक्त कर सके। __ नैतिक जीवन का लक्ष्य सदैव ही उस जीवन-प्रणाली को प्रतिष्ठित करना रहा है, जिसके द्वारा एक ऐसे मानव-समाज की संरचना हो सके जो सामाजिक जीवन में व्याप्त विषमताओं (सामाजिक, आर्थिक, वैचारिक और मानसिक) तथा संघर्षों (आन्तरिक मनोवृत्तियों का संघर्ष, आन्तरिक इच्छाओं और उनकी पूर्ति के बाह्य प्रयासों का संघर्ष और बाह्य समाजगत एवं राष्ट्रगत संघर्ष) से मुक्त है। यद्यपि ये संघर्ष एवं विषमताएँ मानव द्वारा प्रसूत नहीं हैं, तथापि उसे प्रभावित करते हैं। समस्त संघर्षों एवं विषमताओं का निरोध सिर्फ जीवन के परमादर्श समत्व की अवस्था में ही सम्भव है। इस परमादर्श की उपलब्धि मनुष्य स्वयं के प्रयासों द्वारा कर सकता है। समत्वप्राप्ति मानव का स्वभाव है और जो स्वभाव है, वही आदर्श है, साध्य है। इस साध्य की सम्प्राप्ति जिस आचरण द्वारा हो, वही नैतिक आचरण अनुकरणीय है। इस नैतिक आचरण का सम्पादन तो इस सामाजिक चेतना द्वारा सम्भव है, जो विवेक पर आधारित है। सामान्यतः यह सर्वस्वीकृत धारणा है-राग-भावना व्यक्ति को व्यक्ति से जोडता है, लेकिन यह वास्तविकता के सर्वथा विपरीत है, क्योंकि व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ने वाला तत्त्व राग नहीं, प्रत्युत विवेक है। राग-वृत्ति का कार्य जोडना और तोडना दोनों है। इसी परिप्रेक्ष्य में वर्गभेद और वर्णभेद का प्रादुर्भाव होता है। इसके

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