Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 132
________________ १२६ अनिल कुमार सोनकर विपरीत विवेक दायित्व-बोध एवं कर्तव्य-बोध की भाषा है। इसी की उपस्थिति में वास्तविक में वास्तविक सामाजिकता का सृजन होता है। एतदर्थ जैन-धर्म विवेक पर आधारित उस सामाजिक चेतना को विकसित करना चाहता है, जिससे मेरे और तेरे, अपने और पराये की चेतना विलुप्त हो जाती है और केवल आत्मवत् दृष्टि शेष रहती है। यही आत्मवत् दृष्टि जैन-धर्म द्वारा प्रतिष्ठित सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्त्वों (अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह) में भी दृष्टिगोचर होती है। ये आत्मीयता, प्रेम, त्याग, समर्पण और सहयोग के आधारभूत स्तम्भ हैं। इनसे ही सामाजिक जीवन में व्याप्त विषमताओं एवं संघर्षो का विसर्जन होता है, साथ ही मानव जीवन में लोकमंगल की भावना, समता, एकता, शान्ति प्रभृति का प्रस्फुटन व प्रवाहन होता है। एतदर्थ इन केन्द्रीय तत्त्वों का निरूपण अपरिहार्य हो जाता है। तीर्थंकरों द्वारा उपदेशित अहिंसा वह शाश्वत, शुद्ध और नित्य धर्म है जिसका मूलाधार जीवन के प्रति सम्मान, समत्व-भावना एवं अद्वैतभावना है। अहिंसा चर एवं अचर सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। जबकि सूत्रकृतांग सूत्रानुसार ज्ञानी होने का सार है-किसी प्राणी की हिंसा न करें। अहिंसा ही समग्रधर्म का सार है, इसे सदैव ही स्मरण रखना चाहिए। इसके सर्वाधिक व्यापक स्वरूप का निरूपण आचारांगसूत्र में हुआ है- भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी अर्हत् यह उपदेश करते हैं कि किसी भी प्राण, पूत, जीव और सत्त्व को किसी भी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है। समस्त लोक की पीडा जानकर अर्हतों ने इसका प्रतिपादन किया है। वस्तुतः अहिंसा प्राणियों के जीवित रहने का नैतिक अधिकार है जबकि इसका विकास समत्वभावना से समुत्पन्न सहानुभूति तथा अद्वैतभावना से समुत्पन्न आत्मीयता से होता है। अहिंसा की धारा का प्रवाहन सर्वत्र आत्मभावमूलक करुणा और मैत्री विधायक अनुभूतियों से हुई है। वह क्रिया नहीं, सत्ता है, आत्मा की एक अवस्था (अप्रमत्त अवस्था है)। जैन-धर्म में अहिंसा के पश्चात् अनाग्रह एवं अपरिग्रह का प्रतिपादन हुआ है। अनाग्रह वह सिद्धान्त है जो अपने विचारों की तरह दूसरों के विचारों का सम्मान करना सिखलाता है। इस सिद्धान्त के विपरीत व्यक्ति जब स्व-मत की प्रशंसा व परमत की निंदा करता है तो सामाजिक जीवन में संघर्ष का प्रादुर्भाव होता है, सामाजिक जीवन में विग्रह, विषाद और वैमनस्य का बीजवपन होता है। सूत्रकृतांग में

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