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अनिल कुमार सोनकर
पर आग्रह करता है। जैन-धर्म के अंतर्गत सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्त्वअहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह, जब साधना के त्रिअंग-सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यकचारित्र से सम्बन्धित होते हैं। तब सम्यक् आचरण के अंग के रूप में प्रकट होते हैं। सम्यक् आचरण जीवन-शुद्धि का वह प्रयास है, जिसके अन्तर्गत मानसिक कर्मों की शुद्धि हेतु, अनासक्ति, वाचिक कर्मों की शुद्धि हेतु अनेकान्त और कायिक कर्मों की शुद्धि हेतु अहिंसा के पालन का निर्देश अभिहित है। जैन धर्म के अनुसार जिस प्रकार चेतना के तीन पक्ष ज्ञान, दर्शन और चरित्र आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में एक-दूसरे से अपृथक हैं, उसी प्रकार आत्मीयता, प्रेम, त्याग, समर्पण और सहयोग के आधारभूत स्तम्भ अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह भी मानव जीवन में लोकमंगल की भावना, समता, एकता, शान्ति प्रभृति को प्रस्फुटित व विकसित करने में तथा सामाजिक समता की संस्थापना में एक-दूसरे से अपृथक हैं।
सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्त्वों के निरूपण के पूर्व उन पक्षों पर दृष्टिपात करना उचित होगा जिसकी उपस्थित में सामाजिक समस्यायें व विषमताएं उत्पन्न होती हैं। सम्पूर्ण आचार-दर्शन का सार समत्व-साधना है। समत्व हेतु प्रयास ही जीवन का सारतत्त्व है। सतत् शारीरिक एवं प्राणमय जीवन के अभ्यास के कारण चेतना बाह्य उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं से प्रभावित होने की प्रवृत्ति विकसित कर लेता है। परिणामस्वरूप बाह्य वातावरणजन्य परिवर्तनों से प्रभावित होकर अपने सहज स्वभाव समत्व का परित्याग कर देता है और संसार के प्रति ममत्व-भाव को पुष्ट करने की प्रवृत्ति विकसित कर लेता है। प्रपंचात्मक जगत् के पदार्थों की उपलब्धि-अनुपलब्धि से स्वयं को सुखी-दुःखी समझता है। उसमें 'पर' के प्रति आकर्षण या विकर्षण का भाव समुत्पन्न होता है। वह उस पर के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करता है और परिणामस्वरूप वह वेदना, बंधन या दुःख को प्राप्त करता है। वह राग न केवल उसे समत्व के स्वकेंद्र से पदच्युत करता है, प्रत्युत उसे बाह्य पदार्थों के आकर्षण क्षेत्र में लाकर उसमें एक तनाव व्युत्पन्न कर देता है, जिसके परिणामस्वरूप चेतना दो केन्द्रों में बँट जाती है और दोनों ही स्तरों पर चेतना में दोहरा, संघर्ष उत्पन्न होता है- प्रथम, चेतना के आदर्शात्मक पक्ष का उस बाह्य परिवेश के साथ, जिसमें वह अपनी वासनाओं की पूर्ति चाहता है। मानव की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है जिसके प्रति वह आसक्ति रखता है, वही उसके लिए 'स्व' बन जाता है और उससे भिन्न 'पर' बन जाता है। आत्मा का समत्व केंद्र से विलगाव