Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 107
________________ जैन आगमों में अपरिग्रह पीटने, मारने पर उतारू हो जाना। विवाद- आक्षेपात्मक भाषण करना । क्रोध के आवेश में आक्रमण या आक्रमण की तैयारी होती है। मान या अहंकार की रक्षार्थ क्रोध का जन्म होता है। यह एक क्षणिक उफान है। मूल में चैतन्य स्वभाव से अरुचि ही क्रोध से मन में, तन में कंपकंपी छूट जाती है। उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है। ३. मान अहंकार, अभिमान, अहं, घमण्ड ये मान के पर्यायवाची हैं। इसकी निम्न अवस्थाएँ हैं- मान- अपने किसी गुण पर झूठी अहंवृत्ति । मद अहंभाव में तन्मयता । दप-उत्तेजनापूर्ण अहंभाव । स्तम्भ - अविनम्रता । गव-अहंकार। अत्युत्क्रोशअपने को दूसरों से श्रेष्ठ कहना । परपरिवाद - दूसरों की निन्दा । उत्कष - अपना ऐश्वर्य प्रकट करना। अपकष - दूसरों की हीनता प्रकट करना । उन्नत - - दूसरों को तुच्छ समझना। उन्नतनाम - गुणी के सामने भी न झुकना । दुर्नाम यथोचित रूप से न झुकना । मान के आठ भेद - १०१ कुलमद, बलमद, ऐश्वर्यमद, जातिमद, ज्ञानमद, रूपमद, तपमद, अधिकार मद । वैसे मानव में स्वाभिमान की मूल प्रवृत्ति है ही परंतु जब उसमें उचित से अधिक शासित करने की भूख जाग्रत होती है और जब अपने गुणों व योग्यताओं को परखने में भूलकर जाता है तब उसके अन्तःकरण में मान की वृत्ति का प्रादुर्भाव होता है । अभिमान में उत्तेजना वा आवेश होता है। उसे अपने से बढकर या अपनी बराबरी का कोई व्यक्ति दिखता ही नहीं । ४. माया छल, कपट, धूर्तता, दम्भ आदि माया है। इसकी निम्न अवस्थाएँ हैं- मायाकपटाचार । उपाधि-ठगे जाने योग्य व्यक्ति के समीप जाने का विचार । निकृति - छलने के अभिप्राय से अधिक सम्मान करना । वलय- वक्रतापूर्ण वचन। गहन - ठगने विचार से अत्यन्त गूढ भाषण करना । नूम- ठगाई के उद्देश्य से निकृष्टतम कार्य करना । कल्क- दूसरे को हिंसा के लिए उभारना । कुरूप निन्दित व्यवहार । जिम्हता- ठगाई के लिए कार्य मन्द करना । किल्विषिक- भांडों की भांति कुचेष्टा करना । आदरणता - अनिच्छित कार्य भी अपनाना । गूहनता अपनी करतूत को छिपाने के लिए प्रयत्न करना । वंचकता - ठगी । प्रतिकुंचनता- किसी के सरल


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