Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 120
________________ ११४ बालेश्वर प्रसाद यादव तो है, परन्तु इसके द्वारा ज्ञान की आंशिकता और सापेक्षता ही प्रकाशित होती है। इस प्रकार जैन दर्शन की मान्यता है कि किसी भी ज्ञानात्मक कथन के पूर्व ‘स्यात्' पद का प्रयोग न करना ज्ञान की निरपेक्षता तथा ऐकान्तिकता का उपाख्यान करना है, जो मिथ्या एवं भ्रामक है। जैन मतानुसार इसे न मानने से एवं अपने-अपने दुराग्रहों पर अडिग रहने के कारण ही धार्मिक उन्माद एवं दार्शनिक विवाद देखने को मिलते हैं। स्वयंनिर्णित आंशिक एवं सापेक्ष सत्य को परमसत्य मानना तथा अन्य-प्रतिपादित आंशिक सत्य को अस्वीकार करना ही संघर्ष, असंतोष एवं कलह को जन्म देना है। इससे अनेकान्तता एवं वस्तु के अनेकधर्मात्मकता का अपलाप होने से सह-अस्तित्व या सहभाव की भावना समाप्त हो जाती है। इस सम्बन्ध में ऐकान्तिक मत के कारण उत्पन्न विवाद की स्थिति का वर्णन हाथी के स्वरूप के ज्ञान के सम्बन्ध में अलगअलग अन्धों के द्वारा प्रस्तुत विभिन्न कथनों के पारस्परिक विरोध का उदाहरण जैन मत में प्रस्तुत किया गया हैं। यथा, एक अन्धे ने हाथी के पैर को छुआ और कहा'हाथी खम्भे के समान है'; दूसरे अन्धे व्यक्ति ने कान को छूकर कहा- 'हाथी सूप के समान है'; तीसरे ने सूंड को छूकर कहा- 'हाथी एक विशाल अजगर है'; इस प्रकार चौथे ने पूँछ छूकर हाथी को रस्सी, पाँचवे ने पेट का हिस्सा छूकर दीवार कहा और अपने-अपने कथन के दुराग्रहवश आपस में लड़ने लगे। प्रत्येक अन्धे व्यक्ति का कथन आंशिक रूप से सत्य है, परन्तु सम्पूर्णता में वह सत्य नहीं। जैन मत का मानना है कि व्यक्तियों का दुराग्रह इसी प्रकार धार्मिक एवं दार्शनिक असहिष्णुता को उत्पन्न कर देता है जो सहभावन के लिए खतरे की घण्टी होती है। उपर्युक्त इन्हीं कारणों से जैन मतानुसार प्रत्येक कथन-रूप 'नय' के पूर्व में 'स्यात्' पद का प्रयोग अनिवार्य है। जैन दर्शन 'स्यात्' का अर्थ 'कथंचित्' के रूप में करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी एक दृष्टि से वस्तु 'इस प्रकार से' कही जा सकती है और किसी अन्य दृष्टि से वस्तु को 'इस अमुक प्रकार से' कहा जा सकता है। स्यात् पद निरपेक्षता का अपघटन कर सापेक्ष की अभिव्यक्ति कर देता है। 'स्यात् यह सत् है'- इस कथन का तात्पर्य यह है कि 'सापेक्षतया यह सत् है। इसी 'स्यात्' पद के प्रयोग के कारण इस सिद्धान्त का नाम 'स्याद्वाद' पड़ा है। यह स्थाद्वाद वस्तु के अनन्त धर्मात्मक चरित्र का कथन है।" जैन दर्शन के ग्रन्थ स्याद्वादमंजरी में भी इसे परिभाषित करते हुए कहा गया है कि 'स्यात्' पद नामक अव्यय अनेकान्त का द्योतक है, अतएव 'स्याद्वाद' को 'अनेकान्तवाद' कहते हैं।

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