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जैन आगमों में अपरिग्रह
१०३ आभूषण आदि। ५. धन- मोहर, गिन्नी, रुपये-पैसे, सिक्के नोट आदि। ६. धान्य - सभी प्रकार का अनाज। ७. द्विपद - नौकर, दास-दासी, पक्षी आदि। ८. चतुष्पद- गाय, भैंस, घोडा, बैल, बकरी आदि जानवर। ९. कुप्य - धातु (सोनेचाँदी के सिवाय) सब प्रकार की ताम्बा, पीतल, स्टील, लोहा, लकडी तथा कपडे की बनी हुई वस्तुएँ।
ये नौ प्रकार के बाह्य परिग्रह है।
वैसे स्थानांग सूत्र' में भगवान महावीर ने परिग्रह के तीन प्रकार बताये हैं : (१) कर्म परिग्रह (२) शरीर परिग्रह, (३) बाह्य भाण्डमात्र उपकरण परिग्रह।
'उपासक दशांग सूत्र' में परिग्रह के चार भेद भी बताये हैं : (१) गणिम - जिनको गिनकर दिया जा सके। (२) धरिम - जो वस्तु तोल कर दी जाये जैसे गेहूँ, जौ, मक्का, चावल आदि। (३) मेय - जो मापकर दी जाये जैसे कपडा, जमीन आदि। (४) परिच्छेद - जो वस्तु परखकर परीक्षा करके दी जाय जैसे हीरा, माणक आदि।
'प्रश्न व्याकरण सूत्र' में परिग्रह के मुख्य रूप से तीस नाम गिनाये हैं -(१) परिग्रह, (२) संचय, (३) चय, (४) उवचय, (५) विधान, (६) संभार, (७) संकर, (८) आदर, (९) पिंड, (१०) द्रव्यसार, (११) महेच्छा , (१२) प्रतिबन्ध, (१३) लोभात्मा, (१४) महर्द्धि, (१५) उपकरण, (१६) संरक्षण, (१७) भार, (१८) सम्पातोत्पादक, (१९) कलिकरण्ड, (२०) प्रविस्तर, (२१) अनर्थ, (२२) संस्तव, (२३) अगुप्ति, (२४) अविवेग, (२५) अविवेग, (२६) अमुक्ति, (२७) तृष्णा, (२८) अनर्थक, (२९) आसक्ति, (३०) असन्तोष।
इस तरह अपरिग्रह एवं परिग्रह के भेद विभिन्न अवस्थाओं से यत्र-तत्र सूत्रों में बताये गये हैं।
राग-द्वेष रूपी आत्म-परिणाम भाव अन्तरंग परिग्रह है और उनसे जो पुद्गलों का संचय होता है वह द्रव्य बहिरंग परिग्रह है। आत्मा का शुद्ध परिणाम भाव संवर है जो आते हुए कर्मों का निरूंधक है। भाव संवर में अपरिग्रह मुख्य है जिसकी व्याख्या आगमकारों ने यही की है - 'न विद्यते धमोपकरणादते शरीरोपभोगाय स्वलोऽपि परिग्रह यस्य स यथा। प्रत्याख्यात परिग्रहे साधौ।' (अभिधान राजेन्द्र कोष, प्रथम भाग।)
न विद्यते परिसमन्तात सुखार्थ गृह्यति इति परिग्रह। यस्या साव-परिग्रह-जिसने