________________
९२
अनिल कुमार तिवारी करके इनका उपभोग सीमित या बंद नहीं करता (अपरिग्रह) तो वह कहीं न कहीं उस वस्तु के उत्पादन में की गयी हिंसा के लिए नैतिक रूप से उत्तरदायी है। उदाहरण के लिए हम मोबाईल फोन पर विचार कर सकते हैं। आज चारों तरफ इसकी धूम मची हुई है। विशेष रूप से युवा-वर्ग इसे लेकर कुछ ज्यादा ही उत्साह में है। इनमें से अधिकांश लोग इस बात को नहीं जानते होंगे कि पुराने मोबाइल हैन्ड सेटों का निष्तारण अमेरिका जैसे विकसित देशों में पर्यावरण के लिए एक गम्भीर चुनौती बन चुका है। यदि प्रत्येक मोबाईल धारी ईमानदारी से स्वयं से यह प्रश्न करे कि उसे इस फोन की कितनी आवश्यकता है या यदि वह मोबाईल फोन का प्रयोग न करे तो उसके जीवन में क्या असर होनेवाला है, तो उसे स्वयं पता लग जायेगा कि मोबाईलफोन की उसे कितनी जरूरत है। यदि उसे ऐसा प्रतीत हो कि मोबाइल फोन उसके लिए अनिवार्य नहीं है, तो उसे इसका प्रयोग बन्द कर देना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करता, तो उसे मोबाईल फोनजनित पर्यावरण प्रदूषण के लिए नैतिक रूप से (या सीधे) उत्तरदायी ठहराना उचित होगा। समाधान : सम्यक्त्व या सम्यकत्रयी
जैन परम्परा सम्यक्त्व दृष्टि विकसित करना ही नैतिक जीवन का अन्तिम लक्ष्य मानती है। यह दृष्टि तब उत्पन्न होती है जब सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र का समन्वय हो। वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान और उनके प्रति नैतिक आचरण ही इस दृष्टि के मूल में है। ऐसी दृष्टि विकसित होने पर ही यह ज्ञात होता है कि भेद सतही है अभेद ही जीवन का मूल है। जीव-जीव में अन्तर नहीं है। तथाकथित अजीव का भी उतना ही महत्त्व है जितना एक जीव का। किसी न किसी जीव का वासस्थान होने के कारण अजीव तत्त्व से व्यवहार करते समय सावधानी की अपेक्षा की जाती है। इसलिए जैन परम्परा न केवल दृश्यमान जीवधारियों बल्कि सम्पूर्ण प्रकृति के प्रति अहिंसक व्यवहार करने पर बल देती है। समस्त प्रकृति एक जीवित समग्र (an organism or a living whole) है। जिस प्रकार हमारे शरीर के किसी एक अंग की क्षति-शरीर की संपूर्ण कार्यप्रणाली को प्रभावित करती है उसी प्रकार प्रकति के किसी विशेष भाग में उत्पन्न विकार सम्पूर्ण प्रकृति के सन्तुलन को प्रभावित करती है।
पर्यावरण संकट को समाप्त करने के लिए जैनियों का यह विचार महत्त्वपूर्ण है कि हमे केवल दिखाई देने वाले हिंसक कार्यों का समाधान नहीं सोचना चाहिए बल्कि