Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s):
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay
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जैन परंपरा में पर्यावरण
II, Motilal Banarasidas Publishers Pvt. Ltd, Delhi : Reprint
1999, से लिए गये है, पृ. १९९। ५. सिंघवी द्वारा उद्धृत op.cit (italics mine) ६. S. Radhakrishnan, Indian Philosophy, Vol. I, Londan George
Allen & Unwin Ltd., 1923, p. 58. राधाकृष्णन के अनुसार जैन का जीवविषयक सिद्धान्त न्याय-वैशेषिक के आत्मा सिद्धान्त से मिलता-जुलता है सांख्य के पुरुष से नहीं क्योंकि पुरुष निष्क्रिय है, पृ. २९२। परन्तु जैन मत का जीव न्याय के आत्मा की अपेक्षा सांख्य के पुरुष के अधिक निकट प्रतीत होता है क्योंकि जीव और पुरुष दोनों चेतन स्वरूप है जबकि आत्मा स्वरूपतः अचेतन है। इसके अलावा सांख्य के पुरुष की तरह जीव भोक्ता
और असंख्य है, पृ. ३१४। दोनों में प्रमुख अन्तर यह है कि जीव साकार तथा सक्रिय है जबकि पुरुष निराकार और निष्क्रिय। उल्लेखनीय है कि जैन समुदाय व्यापार को अन्य उद्यम की अपेक्षा ज्यादा वरीयता देता है। इसके पीछे शायद यही भावना है कि व्यापार में स्वयं से जीवों के प्रति हिंसा की कम संभावना होती है। आश्चर्य नहीं कि जैन समुदाय दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक समुदाय हो। Bhiku Parekh, Theory of Non-Violence. (p.159) in the Theory of Value edited by Roy W. Perrett, New York & Londan Garland Publishig ltd., 2000, pp. 135-166 दिल्ली विश्वविद्यालय में अखिल भारतीय अहिंसा संगोष्ठी में दिया गया भाषण जो महावीर : मेरी दृष्टि में पुस्तक के परिशिष्ट (१) में अहिंसा (पृ. ७४१७६४) शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। उदाहरण के लिए Oct. 26th 2006 के The Hindu, Delhi Edition के सम्पादकीय पन्ने पर A Warming planet शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ जिसमें अमेरिकी अंतरिक्ष एजेन्सी से सम्बद्ध गोडर्ड इन्स्टिट्यूट के वैज्ञानिकों का हवाला देते हुए कहा गया है कि वर्ष २००५ ई. पिछले १२००० वर्षों में सर्वाधिक गर्म रहा है। पृथ्वी के तापमान में 0.६°c की वृद्धि पिछले केवल ३० वर्षों में हुई है। और इसका कारण कार्बन आधारित ऊर्जा संसाधनों का अतिशय उपभोग है। गैर-परम्परागत ऊर्जा जैसे - सौर
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