Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 27
________________ अनेकान्त की अध्यात्मिक चिन्तन धारा ऐसे सम्यक् पुरुषार्थ को, स्वसन्मुख ज्ञान-श्रद्धा को, स्वभाव को, काल को, निमित्त को - सभी को स्वीकार करते हैं; इसलिए यह मिथ्या नियत नहीं है; परन्तु सम्यक् नियतवाद है, उसी में अनेकान्तवाद आ जाता है। __ . वे आगे कहते हैं कि, 'क्रमबद्धपर्याय में पुरुषार्थ आदि का क्रम भी साथ ही है, इसलिए क्रमबद्धपर्याय की प्रतीति भी आ ही जाती है। पुरुषार्थ कहीं क्रमबद्धपर्यायों से दूर नहीं रह जाता, इसलिए नियत के निर्णय में पुरुषार्थ उड नहीं जाता परन्तु साथ ही आ जाता है। इसलिए नियत स्वभाव की श्रद्धा यह अनेकान्तवाद है - ऐसा समझना। जो वस्तु की पर्यायों का नियत-क्रमबद्ध होना न माने, अथवा जो क्रमबद्धपर्याय के निर्णय में विद्यमान् सम्यक पुरुषार्थ को न माने उसे अनेकान्तमय वस्तु स्वभाव की खबर नहीं है। _ प्रत्येक वस्तु को अनेकान्त अपने से पूर्ण’ और ‘पर से पृथक्' घोषित करता है। प्रत्येक वस्तु अनेकान्त रूप से निश्चित होती है। एक वस्तु में वस्तुपन को उत्पन्न करने वाली अस्ति-नास्ति आदि परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है। इसी प्रकार उपादान-निमित्त, निश्चय-व्यवहार और द्रव्य-पर्याय इन सबका अस्ति-नास्ति स्वरूप कानजी स्वामी ने अनेकान्त द्वारा समझाने का प्रयास किया है। निमित्त सम्बन्धी अनेकान्त निमित्त सम्बन्धी अनेकान्त के विषय में कानजी स्वामी कहते हैं कि, 'उपादान और निमित्त यह दोनों भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं, दोनों पदार्थ अपने-अपने स्वरूप से अस्ति रूप है और दूसरे के स्वरूप से नास्ति रूप है; इस प्रकार निमित्त स्व-रूप से है और पर-रूप से नहीं है; निमित्त निमित्त रूप से है और वह उपादान रूप से नास्ति रूप है। इसलिए उपादान में निमित्त का अभाव है, इसमें उपादान में निमित्त कुछ नहीं कर सकता। निमित्त निमित्त का कार्य करता है, उपादान का कार्य नहीं करता - ऐसा अनेकान्त स्वरूप है। ऐसे अनेकान्त स्वरूप से निमित्त को जाने तभी निमित्त का पदार्थ ज्ञान होता है। “निमित्त निमित्त का कार्य भी करता है और निमित्त उपादान का कार्य भी करता है।" ऐसा कोई माने तो उसका अर्थ यह हआ कि निमित्त अपने रूप से अस्ति रूप है और पर रूप से भी अस्तिरूप है; ऐसा होने से निमित्त पदार्थ में अस्ति नास्ति रूप परस्पर विरुद्ध दो धर्म सिद्ध नहीं हुए, इसलिए वह मान्यता एकान्त है। इसलिए 'निमित्त उपादान का कुछ करता है' ऐसा जिसने माना उसने अस्ति

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