Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 68
________________ संदीप कुमार ग्रंथों में कहा गया है कि अश्वत्थामा को ब्रह्महत्या की सिर्फ शंका होने पर भी बड़ा प्रायश्चित दिया गया। अश्वत्थामा को रूद्र का अवतार कहा गया है अत: वह वेद जानता होगा इसमें संदेह नहीं। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि ज्ञान से पाप दूर नहीं होते। मीमांसक उत्तर देते हैं कि यज्ञ के जानने से यह फल प्राप्त होता है। यह कथन अर्थवाद या सिद्धार्थवाक्य है-प्रशंसा के लिये कहा है, अक्षरशः सत्य नहीं है। किन्तु ऐसा मानने पर यज्ञ करने का फल भी अक्षरशः सत्य है इसका निश्चय कैसे होगा? अतः इस पूरे कथन में परस्पर विरोध दूर नहीं किया जा सकता। ८. वेदों में हिंसा का विधान: वेद इस लिये भी अप्रमाण है कि उनमें तुरूष्कों (म्लेछों) के समान ब्राह्मण आदि के वध करने का विधान है- कहा है- “ब्रह्मा के लिये ब्राह्मण का वध करें, क्षत्र के लिये क्षत्रिय का, मरूतो के लिये वैश्य का, तप के लिये शूद्र का तथा तम के लिये चोर का वध करें।" ___ "ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेत क्षत्रायं राजन्यं मरूभ्यो वैश्यं तपसे शूद्रं तमसे तस्करम् इत्यादिना ब्राह्मणादिवधविधानात।" उपरोक्त मंत्र में यह माना जाता है कि ब्राह्मण के वध का तात्पर्य ब्राह्मण को स्पर्श करना है। किन्तु यह स्पष्टतः गलत है। यदि वध का अर्थ स्पर्श करना हो तो 'ऐश्वर्य की इच्छा हो तो सफेद बकरे की बलि दें यहाँ बकरे को स्पर्श करने से विधि पूर्ण क्यो नहीं होती? .. विशिष्ट यज्ञों में ब्राह्मण आदि का वध भी पाप का कारण न होकर पुण्य का कारण होता है। यह कथन भी तार्किक नहीं। प्राणिवध यज्ञ में हो या अन्यत्र हो-वह पाप का ही कारण होता है। मीमांसको के अनुसार सभी वध पापकारण नहीं होतेजिनका शास्त्रों में निषेध है वे ही वध पापकारण होते हैं। किन्तु उपरोक्त कथन उचित नहीं है। वैदिक ग्रंथों में पापकारण वध का भी विधान मिलता है, उदाहरणार्थ- अभिचार से शत्रु का वध करने के लिये श्येन के यज्ञ का विधान है। यहाँ श्येन का वध पापकारण होते हुये भी विहित है- निशिद्ध नहीं। अतः जो निशिद्ध है वे ही वध पापकारण है यह कहना संभव नहीं है। दूसरा किसी अनुमान में इस प्रकार उपाधि बताकर दोष निकालना योग्य नहीं-यह दूषणाभास है जिसका अंतर्भाव उत्कर्षसम, अपकर्षसम या संशयसम जाति में होता है।

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