Book Title: Paramarsh Jain Darshan Visheshank
Author(s): 
Publisher: Savitribai Fule Pune Vishva Vidyalay

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Page 37
________________ ३१ कर्म, बंधन, मोक्ष : जैन और अद्वैत दृष्टिकोण जैन दर्शन में 'योग'१२ कहा गया है और इस व्याख्या का जो हेतु है वही कर्म है। आचार्य देवेन्द्रसुरि कर्म की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि “जीव की क्रिया का जो हेतु है वही कर्म कहलाता है"।१३ _वस्तुतः जैन परम्परा में क्रिया और क्रिया के हेतु या कारण दोनों को कर्म कहा गया है। इसके साथ-साथ यहाँ कर्म को पौद्गलिक माना गया है और ये वे पुद्गल परमाणु हैं जो किन्हीं क्रियाओं के परिणाम स्वरूप आत्मा की ओर आकर्षित होकर (आस्रव) कालक्रम में अपना फल प्रदान करते हैं और आत्मा में विशिष्ट मनोभाव उत्पन्न करते हैं। जैन मतानुसार आत्मा का बंधन स्वतः होता है। अतः इसका कोई निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए। बंधन के हेतु कषाय, राग, द्वेष, मोह आदि मनोभाव भी आत्मा में स्वतः उत्पन्न नहीं होते अपितु कर्म-वर्गणा के विपाक के फलस्वरूप चेतना के सम्पर्क में आने पर ये तजनित मनोभाव बनते हैं। ये ही बंधन के मूल कारण हैं। इनसे विरत होना ही मोक्ष है। ___ आचार्य शंकर का इस संबंध में अपना विचार है। उनका मत है कि जीव कर्म से बंधन में है और ज्ञान से मुक्त हो जाता है। इसलिए पारदर्शी मुनिजन कर्म नहीं करते। यहाँ ज्ञान और कर्म को विद्या, अविद्या रूप माना गया है। कर्म अविद्याजन्य है। केवल अज्ञानी द्वारा कर्म किया जाता है। ज्ञानी के लिए कर्म का विधान नहीं है।१५ केवल त्रयी-धर्म (वैदिक-कर्म) में लगे रहने वाले सकाम पुरुष आवागमन को प्राप्त होते हैं। अतः अज्ञान का पूर्णतया क्षय होने पर ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है। यही मोक्ष परम कल्याणकारी और सत् -चित् -आनंद स्वरूप है। एक बार यह प्राप्त हो जाता है तो पुनः इसका नाश नहीं होता। . __ व्रत, दान, तप, यज्ञ, सत्य, तीर्थ, आश्रम और कर्मयोग ये सभी स्वर्ग के हेतु हैं। परंतु अशुभ, अकल्याणकर और अनित्य हैं। ज्ञान नित्य, शांतिकारक और परमार्थरूप है। मनुष्य यज्ञों के द्वारा देवत्व प्राप्त करता है, तपस्या से ब्रह्मलोक को पाता है, दान से तरह-तरह के भोग को प्राप्त करता है और ज्ञान से मोक्ष पद पाता है। पुरुष धर्म की रस्सी से ऊपर की ओर जाता है और पापरज्जु से अधोगति को प्राप्त होता है। परंतु जो इन दोनों को ज्ञानरूप खड्ग से काट देता है, वह देहाभिमान से रहित होकर शान्ति प्राप्त करता है। __जैनमत और आचार्य शंकर के मत में यहाँ जो अंतर परिलक्षित है वह वस्तुतः निमित्त और उपादान को लेकर है। क्योंकि बंधन की दृष्टि से आत्मा की अशुद्ध

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