Book Title: Paramagamsara Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur View full book textPage 9
________________ इन अधिकारों का पृथक् से निरूपण क्यों किया गया है ? नव पदार्थो की विवेचना तक ही इनका अन्तर्भाव कर लेना चाहिए था किन्तु ऐसा न कर ग्रंथकार ने बंध तत्त्व और बंध स्वरूप का कथन पृथक् रूप से ही किया है । बंध तत्त्व विवेचन में भावबंध , द्रव्यबंध,बंध के प्रकार, चतुर्विध बंध के कारण इनका निरूपण किया है। बंध स्वरूप के कथन में बंध का लक्षण कहा है। बंध कारण -स्वरूप में चार प्रकार के बंध में मिथ्यात्वादि प्रत्ययों का निरूपण किया है । इसी प्रकार मोक्ष तत्त्व के निरूपण में द्रव्य मोक्ष, भाव मोक्ष और मोक्ष अवस्था का कथन किया है। मोक्ष स्वरूप निरूपण में मोक्ष का लक्षण मात्र किया है । मोक्ष हेतु स्वरूप निरुपण में व्यवहार और निश्चय रूप दो प्रकार के मोक्ष केकारणों का निरूपण किया है। (गा. 9-10) • जीव को औदयिक, औपशमिक क्षायोपशमिक और क्षायिक भावों की अपेक्षा मूर्त कहा गया है तथा परमपारिणामिक भाव की अपेक्षा अमूर्तिक कहा गया है। (गा. 46-47) • द्रव्यों के सामान्य - विशेष गुणों के विवेचन में सक्रिय और निष्क्रिय द्रव्यों का नामोल्लेख किया गया है। • द्रव्यों के सामान्य - विशेष गुणों का विवेचन करते समय जीव के चेतनत्व, सक्रियत्व, अमूर्तत्व ये तीन विशेष गुण कहे गये हैं । (गा. 75) • गाथा (98-99) में क्षायोपशमिक एवं औदयिक भाव की शब्द संयोजना की अपेक्षा नवीन परिभाषायें उपलब्ध हैं। कर्मों के उदय के साथ चेतन गुणों का प्रगट होना क्षायोपशमिक भाव है। जो कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले कर्म के गुण (भाव) औदयिक भाव कहलाते हैं अर्थात् कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाले कर्म भाव औदयिक हैं।(गा. 98-99) • आहारक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति भिन्न मुहूर्त बतलायी है (गा. 12) अन्यत्र सिद्धान्त ग्रन्थों में उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है। • इस ग्रंथ की यह विशेष उपलब्धि समझनी चाहिये कि अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग के स्वामीयों का उल्लेख स्पष्ट रूप से गाथाओं में निम्न रूप से प्राप्त होता है। ( II ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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