Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

View full book text
Previous | Next

Page 66
________________ कुविचार और कुसंगति में लगा हुआ है तथा उन्मार्ग में लगा हुआ है , उसका वह उपयोग अशुभ है। (प्र. सा. 2 - 66) 18. * दण्डति सल्लति लेस्सति गारवतिय अट्ठरुद्धझाणेहिं। सण्णा चउ हिंसादिहि सहियो असुहोवओगो त्ति ॥ अर्थ- मन, वचन, काय तीनों की अशुभ प्रवृत्ति (दण्डत्रय), मिथ्या, माया , निदान तीन शल्य, कृष्ण, नील , कापोत तीन अशुभ लेश्यायें , रसगारव, ऋद्धिगारव, सात गारव तीनगारव, आर्त्त, रौद्रध्यान से युक्त, चार संज्ञायें , हिंसादि पापों से युक्त उपयोग अशुभोपयोग कहलाता है। 19. * असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो। दुक्खसहस्सेहि सया अभिंधुदो भमइ अच्चत्तं ।। अर्थ- अशुभ के उदय से आत्मा हीन मनुष्य तिर्यंच या नारकी होकर हजारों दुःखों से निरन्तर पीडित होता हुआ संसार में अत्यन्त दीर्घ काल तक भ्रमण करता है । (प्र- सा. 1 - 12) 20. * सुविदिद पदत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणियो सुद्धोवओगो त्ति ॥ अर्थ- भली भांति जान लिया है पदार्थों को और सूत्रों को जिसने जो संयम और तप युक्त है, राग रहित है, समान है सुख दुःख जिसको ऐसा श्रमण शुद्धोपयोगी कहा गया है । (प्र. सा. 1 - 14) 21. * अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं। ___ अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्भुवयोगप्पसिद्धाणं ॥ ( 55 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74